सुरेखा सीकरी; अभिनय के लिए 70 एमएम का पर्दा भी छोटा था

दुनिया के लिए ‘सुरेखा सीकरी’ , पर हमारे लिए ‘फ़याज़ी, नहीं ‘फैज्जी’। जब सब तरफ़ से तुम्हारे इस जहां से रुख़्सत हो जाने की आवाज़ें आ रही हैं, जुलाई की उमस से भरी गर्मी में पेड़ भी शिथिल खड़े हैं, किसी भी पत्ते में ज़रा सी सरसराहट भी नहीं, सब कुछ शिथिल और निर्जीव। 

अल्काज़ी साहब के निर्देशन में तुमने नाट्य मंच से अपनी कला और अदाकारी के आकाश में उड़ान भरी। इस स्वच्छंद उड़ान के लिए हालांकि आकाश सीमित तो न था पर मुश्किलें भी कम न थीं। जीवन में तुम्हारे इस रूप की हल्की सी झलक मुझे मिल पाती, ऐसा सबब मुमकिन न हो पाया। पर कल कुछ दोस्तों के मार्फ़त तुम्हारे उस सफ़र के बारे में जाना तो जीवन की विशालता का अहसास होने लगा।  1968 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में, स्वयं अल्काज़ी के प्रशिक्षण में `द ट्रोजन वीमेन` और एंटोन चेखव की `थ्री सिस्टर्स` जैसे नाटक तुम्हारी नाट्यमंच की गहनता का उत्कृष्ट उदाहरण रहे। 1973 में एनएसडी रेपर्टरी कंपनी में शामिल हो अल्काज़ी, शांता गांधी, प्रसन्ना, एमके रैना के साथ-साथ रिचर्ड शेचनर और फ्रिट्ज बेनेविट्ज़ जैसे श्रेष्ठ अंतर्राष्ट्रीय निदेशकों द्वारा निर्देशित किया गया। 

बचपन में जाने कितनी बार तुम्हें दूरदर्शन पर कई धारावाहिकों और टेली-फिल्मों के ज़रिये महज़ देखना ही हुआ। बचपन का लड़कपन सिर्फ ख़ूबसूरत चेहरों के पीछे जो भागता रहता है। तुमसे सबसे पहले मिलना एनएसडी के कैम्पस में हुआ, जहां दाख़िल होते ही तुम्हारी एक बड़ी सी तस्वीर हमेशा विस्मित करती रही पर असल में तुम्हें क़रीब से जानने का सबब श्याम बाबू की फिल्मों के ज़रिये ही` बना और कुछ ऐसा बन पाया कि तुम ताउम्र ‘फैज्जी’ बन हमारी ज़िंदगी में शामिल रहोगी। `मम्मो` और `ज़ुबैदा` की “फ़याज़ी”, ख़ामोश पर पुख्ता, जिसकी, जिसकी अभिव्यक्ति शब्दों क़ी बंदिश से आज़ाद रही, तुम्हारी ख़ामोश भावाभिव्यक्ति हमें नि:शब्द करती गई। मैं आज भी जब तुम्हें याद करती हूँ तो सफेद, सूती दुपट्टा सर पर लिए, पसोपेश में रुमाल अपनी मुट्ठी में दबाये, अपने किरदार की बेचैनी को पर्दे पर खींचती, मेरे ज़ेहन में आती हो। अपने दोस्त से इत्तफ़ाक़ रखते हुए तुम्हें यही बताना चाहती हूँ कि फ़याज़ी होकर भी फिल्म की असली ‘मम्मो’ तुम ही रही।

तुम सिर्फ़ कलाकार नहीं, ख़ुद में एक अध्याय रही हो, कलात्मकता और अभिनय का, विजुअल पटल पर बेशक़ मौके सीमित रहे, पर तुम्हारे अभिनय के लिए 70 mm का पर्दा भी छोटा था। टीवी की दनदनाती स्क्रीन पर तुम हर बार एक ही रूप में लाई गई, हर बार दादी सा जैसे कठोर किरदार में। हम यहाँ अपनी ही सोच की सीमा के शिकार रहे। ग़र `हिंदी कविता` पर तुम्हें न सुनते तो मालूम न पड़ पाता कि हमारी फयाज़ी के भीतर भी एक फ़ैज़ धड़कता है। फयाज़ी, इत्तन बाई, हसीना, दादी सा, सूज़ी के साथ-साथ, सलीम की माँ, गणेश की बीवी और यहां तक कि सिर्फ़ एक बस पैसेंजर के किरदार में, वो तुम ही थीं, जिन्होंने हर किरदार को जीवंत किया।

सुरेखा सीकरी, आपका एक छोटा सा किरदार मुझे हमेशा याद रहा; सरफ़रोश फ़िल्म का। ठाकुर की माँ के रूप में। एक चूबतरे पर रहती माँ, जिससे उसके अपराधी बेटे के बारे में पुलिस वाले पूछने आते हैं। स्क्रीन स्पेस शायद कुछ दो-तीन मिनट तक का ही होगा पर, उनकी आँखों का दर्द कितना कुछ बयाँ कर देता है। एक माँ का दर्द, चिंता और मासूमियत। जाते-जाते भी देखो, अमित शर्मा की फिल्म `बधाई हो` में अपनी वही तुनकमिज़ाज बुढ़िया सास के किरदार से तुमने फिर एक बार हम सब की सराहना और प्यार पाया।

यक़ीनन इस राष्ट्रीय पुरस्कार पर तुम्हारा ही हक़ था। एक ऐसी महिला की भूमिका, जो रूढ़िवादी पृष्ठभूमि से होते हुए भी नई दुनिया से मीलों आगे थी। ऐसी ही तो थी तुम निजी ज़िन्दगी में। वर्ना कई सालों तक इस मायानगरी में अपनी जगह तलाशते-तलाशते, मुफ़्लिसी और गुमनामी से लड़ते हुए तुमने अपनी जगह अपने तरीक़े से तलाशी। `इंडियन एक्सप्रेस` में उल्लेख है कि  एनएसडी में, एक बार बेनेविट्ज ने अभिनेताओं से नींबू की तरह आखिरी बूँद तक प्रदर्शन को `निचोड़ने` के लिए कहा था। तुमने इसे अपने जीवन में पूरी तरह उतारते हुए अंत तक यही किया, यही जिया।

आज तुम्हारे कैंपस में, यक़ीन मानो सिर्फ़ तुम ही तुम गूंज रही होगी, तुम्हारे क़िस्से, तुम्हारा नाम, सब के होंठों पर होगा, पर चेहरे पर एक उदास मुस्कुराहट के साथ।

ख़ुशकिस्मत होते हैं वे लोग जिनका फ़ौत हो जाना ख़बर या सूचना नहीं बन पाता, एक किरदार की अमिट याद बन, अमर हो जाता है। इतना सम्पूर्ण, प्रेम भरा जीवन जीने के लिए तुम्हें बहुत-बहुत बधाई, हमारी प्यारी, गुस्सैल फ़याज़ी…।

(प्रिया चोपड़ा दोआबा कॉलेज, जालंधर के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग में पढ़ाती हैं। फ़िल्म शोधार्थी प्रिया सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों पर लिखती रही हैं।)

प्रिया चोपड़ा
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प्रिया चोपड़ा