हरिद्वार में धर्म के नाम पर लंपटों और अपराधियों का हुआ था जमावड़ा

हरिद्वार में हुई तथाकथित धर्म-संसद के उस कार्यक्रम पर खूब चर्चा हो रही है जिसमें मुसलमानों के विरुद्ध हिंदू युवाओं का शस्त्र उठाने के लिए आह्वान किया गया। यानी कि हिंदू युवा पीढ़ी को दंगाई, आतंकवादी बनाने की बात कही गई थी। उक्त कार्यक्रम में भाग लेने वाले उसे ‘धर्म-संसद’ कह रहे हैं लेकिन क्या सचमुच ऐसा है?

अब से करीब 128 साल पहले एक धर्म-संसद शिकागो (अमेरिका) में हुई थी। जिसमें रामकृष्ण परमहंस के शिष्य युवा विवेकानंद ने भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए जब अपने भाषण की शुरुआत “मेरे अमेरिकी भाइयो और बहनों” शब्दों से की तो इनके जादुई प्रभाव से वहां एक तरह के सम्मोहन का वातावरण बन गया और लोग मंत्र-मुग्ध होकर स्वामी जी की वाणी के प्रवाह में बह गये।

स्वामी विवेकानंद के वे शुरुआती शब्द केवल औपचारिक सम्बोधन भर नहीं थे, बल्कि उनमें हृदय की गहराई से निकला आत्मा का स्पंदन था जिससे झंकृत मानवों को ऋषियों के ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के उद्घोष का धरातल पर साक्षात्कार करा दिया। उनके कानों में सदियों से सुनाई देते आ रहे ‘लेडीज़ एंड जेंटलमैन’ के परायेपन और शुष्क सम्बोधन को ‘भाइयों और बहनों’ के अपनत्व भरे कौटुम्बिक भाव में बदल दिया था।

11 सितंबर, 1893 को सम्पन्न हुई उस ‘धर्म-संसद’ में दासता की बेड़ियों में जकड़े भारत से गये उस संन्यासी ने सभी का अभिवादन करते हुए कहा था—”मैं आपको दुनिया की प्राचीनतम संत परम्परा की तरफ़ से धन्यवाद देता हूं। मैं सभी धर्मों की जननी की तरफ़ से धन्यवाद देता हूं और सभी जातियों, संप्रदायों के लाखों, करोड़ों हिन्दुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूं। यह ज़ाहिर करने वालों को भी मैं धन्यवाद देता हूं, जिन्होंने बताया कि दुनिया में सहिष्णुता का विचार पूरब के देशों से फैला है। मैं आपको दुनिया की प्राचीनतम संत परम्परा की तरफ से धन्यवाद देता हूं।”

विवेकानंद जी ने कहा था, ”मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं। मुझे गर्व है कि मैं उस देश से आता हूं जिसने सभी धर्मों और सभी देशों के सताये गये लोगों को अपने यहां शरण दी।”

रुचिनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम… नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव…’

इसका अर्थ है- जिस तरह अलग-अलग स्रोतों से निकली विभिन्न नदियां अंत में समुद्र में जाकर मिल जाती हैं, उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग-अलग मार्ग चुनता है, जो देखने में भले ही सीधे या टेढ़े-मेढ़े लगें, परंतु सभी भगवान तक ही जाते हैं। वर्तमान सम्मेलन, जो आज तक की सबसे पवित्र सभाओं में से एक है, गीता में बताए गए इस सिद्धांत का प्रमाण है – ‘ये यथा मा प्रपद्यंते तांस्तथैव भजाम्यहम… मम वत्मार्नुवर्तते मनुष्या: पार्थ सर्वश:…’ अर्थात, जो भी मुझ तक आता है, चाहे वह कैसा भी हो, मैं उस तक पहुंचता हूं. लोग चाहे कोई भी रास्ता चुनें, आखिर में मुझ तक ही पहुंचते हैं।

स्वामी विवेकानंद जी ने कहा—”सांप्रदायिकताएं, कट्टरताएं और इनकी भयानक वंशज हठधर्मिता लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजों में जकड़े हुए हैं। इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है। कितनी ही बार यह धरती खून से लाल हुई है, कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुए हैं। यदि ये भयानक राक्षस न होते, तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब उनका समय पूरा हो चुका है। मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश, चाहे वे तलवार से हों या कलम से, और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा।”

यह एक सच्चे संन्यासी का विश्व के सम्मुख अपने धर्म के मानवतावादी स्वरूप का उद्घोष था। जिसने न केवल सात समंदर पार उस अनजान संन्यासी को अकल्पनीय सम्मान और प्रसिद्धि दिलवाई, बल्कि भारत की गौरव-गरिमा में अतुलनीय अभिवृद्धि कर दी।

इसके ठीक विपरीत धर्म के नाम पर जब निहित राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है तो हरिद्वार जैसी अधर्म संसद आयोजित की जाती है। जिसमें अपने ही देश के युवाओं से एक समुदाय विशेष के नागरिकों के विरुद्ध हथियार उठाने और उनके कत्लेआम का अधर्मयुक्त आह्वान किया जाता है। जिसमें अपने ही देश को घृणा और द्वेष की अग्नि में झोंककर गृहयुद्ध का वातावरण बनाया जाता है। संन्यासियों का चोला ओढे ये संत नहीं बल्कि अपराधी हैं। जिन्हें ‘धर्म’ का लेशमात्र भी ज्ञान नहीं है। सनातन धर्म मनुष्य ही नहीं बल्कि जीवमात्र के कल्याण की प्रार्थना करता है और इसी के लिए प्राणप्रण से समर्पित होकर पुरुषार्थ करता है।

संत कुंभनदास ने लिखा था—’संतन को कहाँ सीकरी से काम’ और ये धूर्त, मक्कार और पाखंडी हैं जो सत्ता की चाकरी को ही धर्म कह रहे हैं। ये अधर्मी लोग स्वामी विवेकानंद जी और इस महान देश के ऋषि-मुनियों की शिक्षाओं का अपमान कर रहे हैं। इन्हें यह भी चिंता और लज्जा नहीं है कि इनके इस कुकृत्य की संसार भर में कैसी प्रतिक्रिया हो रही है।

(श्याम सिंह रावत लेखक और टिप्पणीकार हैं।)

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