इस बार ब्रिक्स समिट में खास क्या है?

चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने हाल में ब्रिक्स समूह को एक हाथ की पांच उंगलियों जैसा बताया था। उन्होंने कहा- ‘ब्रिक्स देश पांच उंगलियों की तरह हैं। अगर (हथेली को) फैलाया जाए तो वे छोटी या बड़ी दिखेंगी, लेकिन साथ में बंध जाएं तो एक शक्तिशाली मुट्ठी का रूप ले लेंगी।’

अब जबकि दुनिया का ध्यान ब्रिक्स- ब्राजील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका- की 15वीं शिखर बैठक पर टिका हुआ है, क्या ये उंगलियां एक मुट्ठी के रूप में वहां मौजूद होंगी, यह कयास का एक बड़ा विषय है। इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि दक्षिण अफ्रीका के शहर जोहान्सबर्ग में 22 से 25 अगस्त तक होने जा रही यह ब्रिक्स की 15वीं शिखर बैठक है। इस लिहाज से इसमें कोई नयापन नहीं है। 14 बार पहले भी ऐसी बैठकें हो चुकी हैं। कोरोना काल को छोड़कर हमेशा ही इन बैठकों के मौके पर मेजबान शहर में इन पांचों देशों के नेता इकट्ठे होते रहे हैं (कोरोना काल में शिखर बैठक ऑनलाइन मोड में हुई थी)।

फिर भी अगर यह बैठक दुनिया भर की राजधानियों में दिलचस्पी का विषय बनी हुई है, तो उसके कुछ ठोस कारण हैं। इस बार नई बात यह है कि पिछले 14 मौकों पर कभी ब्रिक्स उस तरह दुनिया (खासकर पश्चिमी मीडिया) की सुर्खियों में नहीं रहा था, जैसा अब है। चूंकि पश्चिमी मीडिया का नजरिया हर घटनाक्रम को zero sum game (यानी हर घटना को किसी की हार और किसी की जीत) के रूप में देखने का रहता है, तो फिलहाल यही कहानी बताई गई है कि जोहान्सबर्ग शिखर बैठक धनी देशों के समूह जी-7 के वर्चस्व के लिए चुनौती साबित हो सकती है।

मसलन, अरबपतियों का मुखपत्र मानी जाने वाली ब्रिटिश पत्रिका द इकोनॉमिस्ट के ताजा अंक में ब्रिक्स के बारे में छपी इन पंक्तियों पर गौर कीजिएः “इस गुट के मुताबिक 40 से ज्यादा देशों ने ब्रिक्स की सदस्यता लेने के लिए आवेदन दिया है या ऐसा करने में दिलचस्पी दिखाई है। ऐसा ‘बिग ब्रिक्स’ पश्चिम के लिए चुनौती होगा।”

वैसे द इकोनॉमिस्ट ने यह सटीक टिप्पणी की है कि यह शिखर बैठक इस बात को रेखांकित करेगी कि यूक्रेन पर रूस के हमले और पश्चिम एवं चीन के बीच बढ़ रहे तनाव ने किस तरह इस गुट में नई जान फूंक दी है। स्पष्टतः ब्रिक्स की 15वीं शिखर बैठक बड़ी चर्चा का विषय बनी हुई है, तो उसका कारण वह बदला संदर्भ ही है, जिसके बीच इसका आयोजन होने जा रहा है। बेशक यह संदर्भ यूक्रेन में रूस की विशेष सैनिक कार्रवाई और चीन का उदय रोकने की अमेरिका एवं अन्य पश्चिमी देशों की आक्रामक अंदाज में की जा रही कोशिशों से ही बना है।

चूंकि यूक्रेन के बहाने रूस को घेरने की पश्चिम की रणनीति न सिर्फ नाकाम होती, बल्कि उलटा नतीजा देते हुए दिखी है- इसलिए एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के विकासशील देशों ने यह संदेश ग्रहण किया है कि अब भविष्य अपनी उत्पादक अर्थव्यवस्था के बूते द्विपक्षीय/बहुपक्षीय लाभ की व्यापार की नीति पर चलने वाले देशों का है। गौरतलब है कि फरवरी 2022 (जब यूक्रेन युद्ध शुरू हुआ) के बाद लगाए गए सख्त प्रतिबंधों के बावजूद रूस की अर्थव्यवस्था स्वस्थ गति से आगे बढ़ी है, जबकि रूस से सस्ती उर्जा की सप्लाई बंद होने के कारण यूरोप लड़खड़ा गया है। उधर चीन है, जो निर्विवाद रूप से आज दुनिया की सबसे बड़ी उत्पादक अर्थव्यवस्था है।

इस घटनाक्रम ने ब्रिक्स में वह आकर्षण पैदा किया है, जिसकी वजह से 40 से ऊपर देश इसमें शामिल होने की औपचारिक या अनौपचारिक इच्छा जता चुके हैं। अल्जीरिया, अर्जेंटीना, बहरीन, बांग्लादेश, बेलारूस, बोलिविया, क्यूबा, मिस्र, इथियोपिया, होंडूरास, इंडोनेशिया, ईरान, कजाखस्तान, कुवैत, मोरक्को, नाइजीरिया, स्टेट ऑफ फिलस्तीन, सऊदी अरब, सेनेगल, थाईलैंड, संयुक्त अरब अमीरात, वेनेजुएला और वियतनाम ब्रिक्स का सदस्य बनने की औपचारिक अर्जी सौंप चुके हैं।

इसके अलावा इस आयोजन को और भी भव्य रूप देने के प्रयास में दक्षिण अफ्रीका ने सभी अफ्रीकी देशों के नेताओं को जोहान्सबर्ग आमंत्रित किया है। खबरों के मुताबिक ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के मौके पर इस शहर में कम से कम 69 देशों के प्रतिनिधि उपस्थित होंगे। इस रूप में इसे हाल के वर्षों का (संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक को छोड़ कर) सबसे बड़ा अंतरराष्ट्रीय आयोजन बताया जा रहा है।

इसके बावजूद यह कहना कि इस बैठक के पीछे मकसद पश्चिमी वर्चस्व को चुनौती देना है, चीजों को देखने का एक संकीर्ण नजरिया होगा। ‘बिग ब्रिक्स’ तो अभी भविष्य की बात है। इसलिए उसे दरकिनार करते हुए अगर सिर्फ पांच मौजूदा सदस्यों की विदेश नीति पर ध्यान दें, तो उनमें समानता के कम तत्व ही नजर आएंगे। यूक्रेन युद्ध और चीन के खिलाफ छेड़े गए नए “शीत युद्ध” से बनी परिस्थितियों में रूस और चीन के बीच तालमेल बेशक बढ़ा है, दक्षिण अफ्रीका अपनी कूटनीति को काफी हद तक इन दोनों देशों के करीब ले गया है, लेकिन यही बात ब्राजील के बारे में पूरी तरह सच नहीं है।

बल्कि पूर्व राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो के समय तो ब्राजील साफ तौर पर अमेरिकी खेमे में चला गया था। अब लुइज इनेसियो लूला दा सिल्वा के राष्ट्रपति पद पर वापस लौटने के बाद जरूर ब्राजील एक बार फिर से उत्साह से ब्रिक्स परियोजना से जुड़ रहा है। इस बीच भारत की नीति फिलहाल अपने को अधिक से अधिक पश्चिमी देशों के करीब ले जाने की है। इसलिए ब्रिक्स का एजेंडा अमेरिका/पश्चिम के वर्चस्व को चुनौती देना है, या इसकी अगली शिखर बैठक में कोई सायास प्रयास किए जाएगा, ऐसे अनुमान बेबुनियाद हैं।

यह दीगर बात है कि दुनिया में हितों का टकराव इस रूप में उभर रहा है कि स्वाभाविक रूप से उपनिवेशवाद और साम्राज्यवादी शोषण का शिकार रहे देशों में अपने आर्थिक और व्यापारिक हितों को लेकर एक नई जागरूकता आ रही है। विकासशील और धनी देशों के हितों में हमेशा से स्वाभाविक टकराव रहा है। लेकिन खासकर सोवियत संघ के विघटन के बाद विकासशील देशों के सामने अमेरिकी मर्जी के मुताबिक चलने के अलावा कोई विकल्प नहीं था, इसलिए वे अपने हितों पर समझौता करके अमेरिकी नेतृत्व वाली एक-ध्रुवीय दुनिया में अपने को एडजस्ट करने को मजबूर थे।

अब चीन और रूस की उभरी धुरी ने उस मजबूरी से बाहर आने का एक विकल्प मुहैया करा दिया है, तो ये देश अपने हितों को जताने के लिए तैयार होते दिख रहे हैं। इसका संकेत यूक्रेन युद्ध के बाद अधिक स्पष्टता से मिला, जब ज्यादातर विकासशील दुनिया ने पश्चिमी दबाव के बावजूद रूस की निंदा करने से इनकार कर दिया।

यही वो पृष्ठभूमि है, जिसमें ऐसा लगता है कि ब्रिक्स का सदस्य बनने की इच्छा रखने वाले देशों की कतार लंबी होती जा रही है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद बनी वैश्विक मौद्रिक एवं वित्तीय व्यवस्था से खुद को स्वतंत्र करना इस उत्कंठा के पीछे एक प्रमुख प्रेरक तत्व है। सोवियत संघ के विघटन के बाद मौजूदा व्यवस्था और अधिक दमनकारी हो गई। अमेरिकी/पश्चिमी साम्राज्यवाद ने विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के जरिए सारी दुनिया पर इस व्यवस्था का शिकंजा कसा, जिससे गरीब और विकासशील देश कर्ज के जाल में फंसते चले गए। कर्ज से राहत पाने की कोशिश में उन्हें आईएमएफ की ढांचागत समायोजन (स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट) से संबंधित अति हानिकारक शर्तों को स्वीकार करना पड़ा। इस जाल में ज्यादातर देश आज भी फंसे हुए हैं।

यह बात अवश्य याद रखनी चाहिए कि अपने गठन के समय से ब्रिक्स का बुनियादी मकसद विकासशील देशों के बीच व्यापार एवं वाणिज्य के क्षेत्र में सहयोग को बढ़ावा देना रहा है। ये देश बिना विश्व बैंक/आईएमएफ के दबाव के अपने हितों के मुताबिक अपनी आर्थिक और व्यापार नीतियां तय कर सकें, इसके लिए ब्रिक्स ने उन संस्थानों के विकल्प बनाने को प्राथमिकता दी है। इस दिशा में एक ठोस पहल न्यू डेवलपमेंट बैंक (एनडीबी) की स्थापना रही है, जिसे बोलचाल में ब्रिक्स बैंक भी कहा जाता है। इस बैंक की कल्पना विश्व बैंक के समानांतर की गई। इसी तरह आईएमएफ के विकल्प के तौर पर 2015 में कंटीजेन्ट रिजर्व अरेंजमेंट (सीआरए) की स्थापना का इरादा जताया गया।

एनडीबी आज कार्यरत है। लगभग 33 बिलियन डॉलर के ऋण भी अनेक देशों को दे चुका है। फिर भी यह योगदान जरूरत और संभावनाओं के तुलना में बहुत छोटा है। सीआरए तो आज तक व्यावहारिक रूप ले ही नहीं सका है।

इसी क्रम में ब्रिक्स की अपनी मुद्रा का विचार भी आया। यूक्रेन युद्ध के बाद जिस तरह अमेरिका ने रूस की 300 बिलियन डॉलर की विदेशी मुद्रा जब्त की और जिस तरह मनमाने ढंग से रूस को डॉलर में भुगतान के सिस्टम स्विफ्ट से बाहर कर दिया गया, उससे दुनिया पर डॉलर के वर्चस्व को लेकर आशंकाएं गहराई हैं। इससे अमेरिका के एकतरफा प्रतिबंधों के पूरे इतिहास पर सबका ध्यान गया है। नतीजा, एक नई अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक व्यवस्था कायम करने की सोच का लोकप्रिय होना रहा है।

अब जबकि ब्रिक्स देशों के नेता इस मंच से जुड़ने की इच्छा रखने वाले देशों के नेताओं के साथ जोहान्सबर्ग में इकट्ठा होने जा रहे हैं, तो उपरोक्त मकसद ही उनके एजेंडे पर सर्वोपरि है। यानी,

  • ब्रिक्स की सदस्यता का संभावित विस्तार
  • एनडीबी की सदस्यता का विस्तार और सीआरए को अमली जामा पहनाना
  • और, डॉलर के विकल्प पर विचार-विमर्श करना।

बीजिंग में हुई पिछली शिखर बैठक में ब्रिक्स के नेता नई सदस्यता के मानदंड तय करने पर राजी हुए थे। ऐसे संकेत हैं कि इस दिशा में ठोस प्रगति हुई है। अगर पांचों देशों में इस पर आम सहमति बनी रही, तो संभव है कि जोहान्सबर्ग के बाद यह ग्रुप ब्रिक्स प्लस या बिग ब्रिक्स के रूप में हमारे सामने होगा।

एनडीबी में नए सदस्यों के शामिल होने का क्रम पहले से चल रहा है। जोहान्सबर्ग शिखर बैठक इस गति को तेज करने का मार्ग प्रशस्त कर सकती है। सीआरए के बारे में क्या पहल होगी या सहमति बनेगी, इस बारे में अभी कुछ कहना कठिन है।

इस बीच अब यह लगभग तय है कि ब्रिक्स की अपनी करेंसी का एलान जोहान्सबर्ग शिखर सम्मेलन में नहीं होगा। लेकिन यह मुद्दा एजेंडे पर बना रहेगा। अधिक संभावना ब्रिक्स के सदस्यों (और संभावित सदस्यों) के बीच आपसी मुद्रा में कारोबार करने पर सहमति बनने की है। सोच यह है कि इस दिशा में बढ़ते हुए इन देशों को एक साझा करेंसी की जरूरत महसूस होगी, तब इसे शुरू करने पर आम सहमति बनाना आसान होगा। इस बीच साझा करेंसी से जुड़े तकनीकी और व्यावहारिक पहलुओं पर भी अधिक स्पष्टता और सहमति बन सकेगी।

तो कुल मिलाकर ब्रिक्स शिखर सम्मेलन से ठीक पहले यही ठोस स्थिति हमारे सामने है। वामपंथी न्यूज लेटर द ट्राइकंटिनेंटल ने शिखर सम्मेलन से पहले प्रकाशित अपने ताजा दस्तावेज में कहा है कि ब्रिक्स परियोजना इस सवाल पर केंद्रित रही है कि नव उपनिवेशवाद से पीड़ित देश क्या पारस्परिक व्यापार और सहयोग के जरिए इस उत्पीड़क सिस्टम को तोड़ पाएंगे? इसमें उचित ही यह कहा गया है कि ब्रिक्स ने दुनिया के शक्ति संतुलन को बदला है, लेकिन यह समूह स्वतः परिघटना के रूप में दुनिया को नहीं बदल पाएगा। साथ ही कहा गया है- ‘15वीं शिखर बैठक में इतिहास बनाने की संभावना निहित है।’

लेकिन क्या जोहान्सबर्ग में इकट्ठा हो जा रहे नेताओं में इस संभावना को साकार करने का दृढ़ संकल्प है, यह एक बड़ा सवाल है। क्या वे देश वैसी शक्तिशाली मुट्ठी बन पाएंगे, जिसका उल्लेख चीन के विदेश मंत्री ने किया है? इन प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए हमें अभी हफ्ते भर का इंतजार करना होगा।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

सत्येंद्र रंजन
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