बिहार की जाति जनगणना के आंकड़ों का क्या-क्या होगा असर?

नई दिल्ली। बिहार में जाति जनगणना के आंकड़े आने के बाद देश की राजनीति दो धाराओं में बहने लगी है। हालांकि, इस सर्वेक्षण के बाद से देश में राजनीति का रुख भी बदलने लगा है। इसके साथ ही इसका अलग-अलग कोण से विश्लेषण भी शुरू हो गया है। सोमवार को कुछ विशेषज्ञों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कहा कि इस सर्वेक्षण का असर बहुत दूर तक पड़ने वाला है। खास कर बिहार और पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले हैं। इन दोनों राज्यों में अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की श्रेणी के लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है। आगामी चुनाव में राजनीति इन श्रेणियों के इर्द-गिर्द घूमने वाली है। साथ ही उन्होंने कहा कि अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) श्रेणी के लिए उच्च शिक्षा में आरक्षण की मांग और तेज हो जाएगी। इसके साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर जाति जनगणना की मांग भी जोर पकड़ेगी।

विशेषज्ञों का मानना है कि नये डेटा के साथ राज्य प्रस्तावित आरक्षण में ओबीसी का कोटा बढ़ाने की मांग प्रासंगिक हो जाएगी और इसके तहत मौजूदा आरक्षण नीति को संशोधित करने की दिशा में प्रयास भी बढ़ जाएगा। इन सभी का कहना है कि इस सर्वेक्षण के सामने आने के बाद से राष्ट्रीय स्तर पर जाति जनगणना की मांग को बल मिला है।

सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज, जेएनयू के फैकल्टी सदस्य हरीश एस. वानखेड़े ने जाति सर्वेक्षण को लेकर कहा कि बिहार का जाति सर्वेक्षण अपने सूबे और भाजपा शासित उत्तर प्रदेश में ईबीसी-केंद्रित राजनीति को बढ़ावा देगा।

वानखेड़े, जिनके रुचि के क्षेत्रों में राजनीतिक सिद्धांत, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय जैसे विषय शामिल हैं, ने कहा कि ‘सर्वेक्षण डेटा’ सत्ता के पदों में प्रतिनिधित्व और ईबीसी को सामाजिक एवं राजनीतिक रूप से सशक्त बनाने के मामले में पिछले 10 वर्षों के दौरान भाजपा की भूमिका पर सवाल उठाएगा।

वानखेड़े ने आगे कहा कि भाजपा को मिली इतनी सीटें और उसके द्वारा हासिल राजनीति वर्चस्व की वजह ईबीसी को माना गया है। बीजेपी ईबीसी के समर्थन के कारण एक शक्तिशाली ब्लॉक के रूप में उभरी है। भाजपा के रथ को रोकने के लिए, जाति सर्वेक्षण डेटा का उपयोग विपक्षी दलों द्वारा ये साबित करने के लिए होगा कि भाजपा ने अपने वोटबैंक ईबीसी को सामाजिक और राजनीतिक रूप से कितना बेहतर बनाया है। बिहार की राजनीति में बड़े पैमाने पर सामान्य जातियों समेत यादव, कुर्मी और कुशवाहा जैसी ओबीसी जातियों का वर्चस्व रहा है। अब, राजनीति और प्रशासन में ईबीसी के अधिक प्रतिनिधित्व के लिए लामबंदी होगी।

वानखेड़े ने बताया कि जातीय मुद्दे ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में भी अहम भूमिका निभाई है और बिहार की जनगणना का निष्कर्ष विपक्ष को वहां ईबीसी की स्थिति के बारे में पूछने के लिए प्रेरित करेगा। ऐसा माना जाता रहा है कि बिहार और उत्तर प्रदेश में जाति-आधारित राजनीति को प्राथमिकता दी गई है।

वानखेड़े का कहना था कि यह डेटा कि बिहार में ईबीसी राज्य की आबादी का 36 प्रतिशत है, एक “आश्चर्य करने” वाला आंकड़ा था और ये आंकड़े सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों के लिए नीति नियोजन में भी उपयोगी साबित होंगे।

डीएमके के राज्य सभा सदस्य पी. विल्सन ने कहा कि नए जाति डेटा से ओबीसी के लिए आरक्षण में बढ़ोत्तरी की मांग को और बल मिलेगा। राष्ट्रीय स्तर पर, एससी, एसटी, ओबीसी और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) को सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश में क्रमशः 15 प्रतिशत, 7.5 प्रतिशत, 27 प्रतिशत और 10 प्रतिशत आरक्षण के हकदार हैं।

राज्य-स्तरीय सरकारी नौकरियों और राज्य सरकार द्वारा संचालित संस्थानों में प्रवेश के लिए कोटा शेयर अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग है। बिहार में एससी को 15 प्रतिशत, एसटी को 1 प्रतिशत, ओबीसी को 34 प्रतिशत कोटा दिया जाता है, जिसमें ईबीसी के लिए 18 प्रतिशत और ईडब्ल्यूएस के लिए 10 प्रतिशत का उप-कोटा शामिल है।

विल्सन ने आगे कहा कि ओबीसी को सही आरक्षण नहीं मिलने का मुख्य कारण आंकड़ों की कमी है, लेकिन अब डेटा आ गया है। इसलिए, बिहार सरकार ने ओबीसी और ईबीसी को अधिक लाभ देने के लिए अपनी आरक्षण प्रणाली में संशोधन की आवश्यकता को उचित ठहराया है।

कार्यकर्ता और जेएनयू के पूर्व छात्र थल्लापेल्ली प्रवीण ने कहा कि बिहार में सामाजिक रूप से पिछड़ी जातियों की आबादी 85 प्रतिशत है, लेकिन उन्हें केवल 50 प्रतिशत आरक्षण दिया गया। विशेषाधिकार प्राप्त जातियां, जो जनसंख्या का 15.5 प्रतिशत हैं, 10 प्रतिशत ईडब्ल्यूएस कोटा की हकदार हैं और अनारक्षित वर्गों के लिए 40 प्रतिशत सीटों में भी उनकी बड़ी हिस्सेदारी है।

जाति जनगणना के बाद से कई चीजें साफ हो गई हैं। उनमें से एक ओबीसी वर्ग के लोगों को उनकी आबादी के अनुसार आरक्षण हासिल न हो पाना है। जनगणना से पहले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा था कि अब समय आ गया है कि आरक्षण की सीमा को बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दिया जाए। सीमित आरक्षण ओबीसी और ईबीसी को उनकी आबादी के अनुपात के अनुसार उन्हें अवसरों से वंचित कर रहा है।

आर्थिक रूप से कमजोर हिस्से के लिए दिए जाने वाले 10 फीसदी आरक्षण जिसे मोदी सरकार ने 2019 में सामान्य कटेगरी के लिए लागू किया था, के आईने में बिहार की यह जाति जनगणना बीजेपी को किनारे लगा देती है।

बिहार में सामान्य वर्ग या उच्च जातियों की संख्या कुल जनसंख्या का केवल 15.5 फीसदी है। जिसमें 10% लोग ईडब्ल्यूएस कोटा में आते हैं जिसका मतलब है कि सामान्य वर्ग की 64% से अधिक आबादी को सरकारी नौकरियों और सीटों में आरक्षण मिल रहा है। इसके विपरीत, ओबीसी के पास केवल 27% सीटें आरक्षित हैं, जबकि बिहार में उनकी आबादी 63% से अधिक है। इसका मतलब यह है कि राज्य की आधे से थोड़ी कम ओबीसी आबादी को आरक्षण के तहत कोई लाभ नहीं मिलेगा।

सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज के फेलो हिलाल अहमद ने स्क्रॉल को बताया, “भाजपा अब इसे एक मुद्दे के रूप में पहचानने के लिए बाध्य होगी।” अहमद ने कहा कि 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में ओबीसी वोटों का एक बड़ा हिस्सा हासिल करने के बावजूद, भाजपा ने मौजूदा राजनीतिक संतुलन के साथ छेड़छाड़ की आशंका के तहत जाति जनगणना का विरोध किया है।

अहमद बताते हैं कि “जिस क्षण जनगणना के आंकड़े ये बताते हैं कि यादव पिछड़े हैं, तभी राजद और समाजवादी पार्टी जैसी पार्टियों को फायदा होने लगता है।” अहमद आगे कहते हैं हालांकि जाति जनगणना के अधिक ठोस निहितार्थ तब सामने आएंगे जब हर श्रेणी के सामाजिक-आर्थिक संकेतकों पर डेटा जारी किया जाएगा। बिहार में राजद को सत्ता में बैठाने और विपक्ष में रखने में यादव वोटों का काफी अहम रोल रहा है। अगर वह डेटा वास्तव में दिखाता है कि ऊंची जातियां बेहतर स्थिति में हैं, तो यह विपक्षी दलों के लिए कोटा में बदलाव के लिए एक मजबूत तर्क बन जाएगा।

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