मोदी के लेह के भाषण पर अम्बेडकर की क्या होती प्रतिक्रिया?

भारत-चीन सीमा गतिरोध के बीच, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार को लेह का दौरा किया और चीन का नाम लिए बगैर उन्होंने कहा कि “विस्तारवाद का युग समाप्त हो गया है”। मुख्यधारा का मीडिया इस भाषण की तारीफ करते नहीं थक रहा है और मोदी जी को भारत का ही नहीं बल्कि विश्व का बड़ा नेता बनाकर पेश कर रहा है। मगर कल्पना कीजिए कि आज अम्बेडकर जिंदा होते और वे लेह वाला मोदी जी का भाषण सुनते तो उनकी क्या प्रतिक्रिया होती? 

अगर आज आंबेडकर होते तो उनका रुख बिकाऊ मीडिया से अलग होता। वे हरगिज़ मोदी जी का लेह वाला भाषण सुनकर यह नहीं कहते कि मोदी जी ने वह कर दिखलाया जैसा कि दुनिया के किसी नेता ने नहीं किया है। न ही बाबा साहेब यह कहते कि मोदी जी ने वह कर दिखलाया है जो किसी भी पूर्व प्रधानमंत्री ने नहीं कर दिखलाया था। अगर वह आज जिंदा होते तो यह सब देख कर मायूस हुए होते। यह इसलिए कि वह राजनीति में धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल और किसी राजनेता के अधिनायकवाद या फिर उनके प्रति “भक्ति” के घोर विरोधी थे। उनकी आस्था लोकतंत्र और संविधान और उसकी संस्था में थी। वे किसी भी हाल में ‘एक ही नेता और एक ही पार्टी सर्वोपरि है’ की बात नहीं स्वीकार करते। तभी तो अपनी ज़िन्दगी में उन्होंने ने न तो किसी बड़े नेता को ‘सुपर मैन’ कहा और न ही खुद को ‘सुपर मैन’ के तौर पर पेश किया।

अगर आज बाबासाहेब अम्बेडकर जिंदा होते तो वे मोदी जी से कुछ यूँ कहते: “नरेन्द्र तुम हर बात में खुद क्रेडिट लेने के लिए क्यूँ आ जाते हो? सुना है लेह जाने का प्लान रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने बनाया था। क्या तुम को अपने रक्षा मंत्री पर यकीन नहीं है कि वे सैनिकों को ठीक ढंग से संबोधित कर सकेंगे? अगर ऐसी बात नहीं थी तो तुमने राजनाथ को क्यों नहीं भेजा?”

बाबा साहेब को यह बात तो मालूम ही होगी कि मोदी जी के मंत्रिमंडल में कैबिनेट मिनिस्टर हैं ज़रूर, मगर हर काम का क्रेडिट वह खुद लेते हैं और पब्लिसिटी का कोई भी मौक़ा हाथ से नहीं जाने देते हैं। जब सुषमा स्वराज जिंदा थीं, तो विदेशों का दौरा विदेश मंत्री से कहीं ज्यादा मोदी जी किया करते थे। मोदी जी तो भारत में सिर्फ चुनाव प्रचार के दौरान ही दिखते थे। अगर ऐसी बात नहीं है तो आप जरा मोदी जी के लेबर मिनिस्टर का नाम बता दीजिये। चौंक गये न?

लेह में मोदी जी ने अपने भाषण में धर्म का सहारा लिया। उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत “भारत माता की जय” के जाप के साथ की और इस की समाप्ति “भारत माता की जय” और वंदे मातरम” के नारों के साथ किया। अगर बाबा साहेब लेह में मौजूद होते तो वे मोदी जी के इन धार्मिक नारों का पुर जोर विरोध करते क्योंकि यह सब नारे कट्टर दिमाग की उपज है जो धर्म का इस्तेमाल राजनीतिक तौर पर करना चाहता है। तभी तो धार्मिक अल्पसंख्यकों ने इन नारों पर हमेशा आपत्ति जताई है।

भारत का संविधान सेकुलरिज्म की बात कहता है, जिसका मतलब है कि राज्य किसी भी धर्म से खुद को नहीं जोड़ सकता है। देश का प्रधानमंत्री पूरे  देश का नेता होता है। वह अपने घर के अन्दर किसी धर्म को मान सकता है या नहीं मान सकता है मगर पब्लिक में उसे सारे धर्मों का आदर करना है और किसी एक धर्म की पैरवी नहीं करनी है। मोदी ने एक खास धर्म के प्रतीकों का इस्तेमाल कर उन्होंने प्रधानमंत्री के पद की गरिमा पर चोट पहुँचाई है और आरएसएस के  दफ्तर में बैठे अपने गुरुजनों का एजेंडा साधा है। यह सब बाबासाहेब को कभी भी काबिले कुबूल नहीं होता। 

इस से भी चिंताजनक बात यह है कि मोदी ने अपने भाषण में हिंदू देव कृष्ण का आह्वान किया और कहा कि वे हमारे आदर्श हैं। ऐसा बोलते वक़्त मोदी जी यह भूल गए कि वह अपना भाषण देश के जवानों के सामने दे रहे हैं किसी आरएसएस की शाखा में नहीं।

इससे भी अफसोसनाक बात यह है कि मोदी जी ने अपने भाषण में “सुदर्शन चक्र” धारी भगवान कृष्ण को अपना आदर्श कहा। अगर यह मान भी लिया जाए कि मोदी जी कृष्ण के भक्त हैं और देश में बड़ी तादाद में लोग उनकी पूजा अर्चना करते हैं, फिर भी उनको पब्लिक प्लेटफार्म से किसी भी धर्म के प्रतीक का इस्तेमाल करने से बचना चाहिए था। ऐसा कर वह खुद को एक धर्म का नेता बतला रहे हैं जो बिल्कुल गलत है। बाबा साहेब ने पूरी ज़िन्दगी धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल का विरोध किया है और धार्मिक तंग नज़री, कट्टरता, और अन्धविश्वास पर कड़ा प्रहार किया है। दलित बहुजन चिंतकों ने अपनी लेखनी में इस बात पर आपत्ति जताई है कि हिन्दू देवी के हाथों में हथियार थामे प्रतिमा की पूजा होती है। 

लोकतंत्र के महान चैंपियन बाबासाहेब ने अपने एक मशहूर लेख “रानाडे, गांधी और जिन्ना” में नायक-पूजा (Hero-worship) के खिलाफ चेतावनी दी। वे कहते हैं: “मैं मूर्तियों का पूजक नहीं हूँ। मैं उन्हें तोड़ने में विश्वास करता हूं।” यहाँ मूर्ति तोड़ने का मतलब किसी धर्म का अपमान करना नहीं है बल्कि इस बात पर जोर देना है कि इन्सान को स्वतंत्र सोच विकसित करनी चाहिए और नायक पूजा और अधिनायकवाद का विरोध करना। इस कथन की यह भी शिक्षा है कि अंधविश्वास से बचा जाए। आंबेडकर के नज़दीक धर्म वही है जो लोगों के बीच में बंधुत्व की भावना पैदा करे।

मगर इन सब के विपरीत मीडिया और राजनीतिक दल एक नेता की भक्ति और गुणगान में मग्न है। उसकी सोचने और तार्किक शक्ति कम होती जा रही है। देश का नेता दूसरी तरफ खुद की पूजा करने वालों को पुरस्कार से नवाज़ रहा है और राजनीतिक गोलबंदी के लिए धार्मिक प्रतीक का इस्तेमाल कर रहा है। मोदी जी का दौरा और उनका भाषण भी पब्लिसिटी बटोरने और एक धर्म के मानने वालों को खुश करने के लिए ज्यादा आतुर दिखा। यह सब देख कर आंबेडकर अपना सिर पकड़ लेते।    

(अभय कुमार एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। इससे पहले वह ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के साथ काम कर चुके हैं। हाल के दिनों में उन्होंने जेएनयू से पीएचडी (आधुनिक इतिहास) पूरी की है। अपनी राय इन्हें आप debatingissues@gmail.com पर मेल कर सकते हैं।) 

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