जन्मदिन पर विशेष: कहां है कांशीराम का बहुजनवाद?

आज 15 मार्च है यानि उत्तर भारत और देश की राजनीति को बदल देने वाले बहुजन आंदोलन के नेता कांशीराम का जन्मदिन। आज कांशीराम होते तो 80 वर्ष के होते। उनके द्वारा बनाई गई पार्टी भी 36 वर्ष की हो रही है।

कांशीराम की बनाई पार्टी बसपा के अलावा ऐसी कोई पार्टी नहीं है जिसका केंद्रीय एजेंडा सिर्फ दलित हो। आज कांशीराम नहीं हैं लेकिन उनका राजनीतिक दर्शन मौजूद है। दलितों को वह एक राजनीतिक आधार दे गए। यह उनकी मेहनत का फल है कि आज सभी दल दलितों को अपनी तरफ लाने का प्रयास करते हुए नजर आते हैं।

कांशीराम आजादी के बाद भारतीय दलितों की सबसे बड़ी आवाज बनकर उभरे। उनके न रहने के बाद से ही असमानता मिटाने वाले आंदोलन में कमी सी आई है।कांशीराम का बहुजन आंदोलन बनाम क्रांति- प्रतिक्रांति का दौर भारतीय राजनीति में विशेषतया उत्तर प्रदेश के सामाजिक तथा राजनैतिक परिदृश्य में 1990 का दशक सामाजिक न्याय और सामाजिक परिवर्तन का दशक माना जायेगा क्योंकि इसी दशक में मण्डल आयोग की सिफारिशें लागू हुई और दलित-पिछड़ी जातियों को शासन-प्रशासन में भागीदारी हासिल हुई। इसी दशक में दलित राष्ट्रपति का मुद्दा भारतीय राजनीति में गर्म हुआ और इसी दशक में दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का राजनीतिक ध्रुवीकरण अस्तित्व में आया।

उत्तर प्रदेश में दलित महिला को मुख्यमंत्री और केन्द्र में पिछड़े वर्गों की भागीदारी वाला भी यही दशक है, और अति दलितों तथा महिलाओं के लिये पृथक आरक्षण की माँग भी इसी दशक में मुखर हुई। 1990 में दो बड़ी राजनैतिक महत्व की घटनाएं हुईं पहली सामाजिक परिवर्तन के समानान्तर सामाजिक न्याय की राजनीति अस्तित्व में आयी। राजनीति में यह नारा जनता दल नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह ने दिया। यह नारा निश्चित रूप से बसपा के विरूद्ध था जो सामाजिक परिवर्तन का आंदोलन चला रही थी। सामाजिक परिवर्तन जहां व्यवस्था परिवर्तन के अर्थ में था, वही सामाजिक न्याय के नारे का अर्थ था उसी व्यवस्था से न्याय की अपील करना जो अन्याय के लिये जिम्मेदार है। इसलिये राजनीति में इस नये नारे को व्यापक समर्थन मिला। कांग्रेस तथा वामपंथी दलों ने सामाजिक न्याय के नारे को स्वीकार कर लिया। लेकिन भाजपा को इस नारे से भी परेशानी थी।

1990 में जो दूसरी घटना घटी वह युगांतकारी है। यह घटना है, विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार द्वारा 1982 से निर्णय के लिये लंबित मण्डल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने की घोषणा। पिछड़ी जातियों के लिये सामाजिक न्याय की यह एक बड़ी राजनैतिक क्रांति थी। इस घोषणा से पहली बार पिछड़ी जातियों को शासन सत्ता में भागीदारी मिलने जा रही थी। इसलिये पिछड़े वर्गों में इस घटना का जबरदस्त स्वागत हुआ। लेकिन उतनी ही तेजी से इस क्रांति के विरूद्ध सवर्ण वर्गों की जबर्दस्त प्रतिक्रांति भी हुई। भाजपा के नेतृत्व में पूरे देश में आरक्षण विरोधी संघर्ष समितियां बनीं और सरकार द्वारा दलित व पिछड़े वर्गों के विरूद्ध वे हिंसा पर उतारू हो गई। सवर्ण राजनीति और मीडिया में  रातों-रात विश्वनाथ प्रताप सिंह खलनायक बन गए।  

इस तरह से दलित आंदोलन के क्रमिक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य तथा दलित आंदोलन के क्रमिक चरण के रूप में उत्तर भारत तथा देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के सामाजिक-राजनैतिक क्षितिज पर एक बार फिर दलितों में आत्मनिर्भर राजनैतिक चेतना अपने विकसित तथा संगठित रूप में सन् 1984 में बहुजन समाज पार्टी के रूप में फिर प्रकट हुई और बसपा के विकास के साथ कई तरह की ऊंचाइयों को प्राप्त प्राप्त किया है, परन्तु इस राजनैतिक चेतना के पुनः उत्थान के पहले कांशीराम (बामसेफ तथा बसपा कैडर कांशीराम को मान्यवर के नाम से पुकारते हैं) ने अपने सहयोगियों के साथ ”बामसेफ” 6 दिसम्बर 1978 को दिल्ली में स्थापना) तथा 1981 में ’’डीएसफोर’’ (दलित, शोशित, समाज, संघर्ष समिति) के माध्यम से सामाजिक चेतना को और उभारा। 1984 में यह सामाजिक आंदोलन राजनीति में बदल गया, जिससे दलितों में नवीन राजनैतिक चेतना का संचार हुआ, इसी नई उभरती चेतना के कारण बहुजन समाज पार्टी के सहारे अनेक इतिहासों को जन्म हुआ।

इसी चेतना ने दलित समुदाय हेतु समाज में नवीन प्रतीकों को भी स्थापित किया है, आज यह नवीन चेतना दलितों में सामुदायिक भावना, आत्मविश्वास तथा पहचान की शक्ति का संचार करने में सफल हुई है। सामाजिक आंदोलनों व दलित समुदाय में बढ़ती राजनीतिक चेतना तथा व्यापक जनाधार के कारण आज बसपा भारतीय राजनीति का केन्द्र बन चुकी हैं। बसपा व दलित आंदोलन को इस स्तर तक पहुंचाने में कांशीराम एवं मायावती के कार्यों को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। क्योंकि उन्होंने डा. अम्बेडकर के वैचारिक आंदोलन को जमीन पर क्रियान्वित करने का काम किया।

दलितों में आत्मनिर्भर सामाजिक-राजनैतिक चेतना का प्रारम्भ जो सन् 1937 में आईएलपी के साथ हुआ था, जिसको करीब आज 80 वर्ष बीत चुके हैं, इन वर्षों में यह चेतना एआईएससीएफ, आरपीआई, एवं दलित पैन्थर्स से होते हुए बसपा तक पहुंची है। इस अंतराल में हर वर्ष दलित चेतना का विस्तार हुआ है, और इसकी व्यापकता भी बढ़ी है, हां बीच-बीच में ऐसा जरूर लगा कि अब यह खत्म हो जायेगी, परन्तु दूसरे ही क्षण यह और तीव्र होती देखी गई।

1984 में बहुजन समाज पार्टी का गठन करने के बाद कांशीराम चुनाव लड़ने से कभी पीछे नहीं हटे। इसके बारे में उनका तर्क रहा कि चुनाव में भागीदारी करने से पार्टी और संगठन में नई जान आती है। जनता के बीच जाने से जनाधार और जन लामबन्दी के नए रास्ते खुलते हैं। दलितों के बीच में पार्टी और संगठन की  लोकप्रियता बढ़ेगी। कांशीराम बड़े से बड़े लोगों के खिलाफ चुनाव लड़ने में कभी पीछे नहीं हटे। इलाहाबाद संसदीय सीट से वो पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के खिलाफ चुनाव लड़ गए।

हालांकि मुख्यधारा के दलों और मीडिया ने उन पर पैसे लेकर चुनाव लड़ने का आरोप लगाया लेकिन वह कभी इन आरोपों से विचलित नहीं हुये। चंदे और अपने संगठनों के माध्यम से उन्हें जो पैसा मिला उसको उन्होंने कभी भी व्यक्तिगत तौर पर खर्च नहीं किया और न ही किसी परिवारीजन को कभी दिया। कांशीराम ने अपना जीवन संगठन और पार्टी के लिए समर्पित कर दिया था। उनके जीवन में व्यक्तिगत जैसे शब्दों के लिए कोई जग़ह ही नहीं बची थी। वह विलासिता से हमेशा ही दूर रहे। 

कांशीराम ने 1993 में पहली बार इटावा लोकसभा से समाजवादी पार्टी के सहयोग से चुनाव लड़कर संसद में प्रवेश किया था। यही वह दौर था जब कांशीराम और मुलायम सिंह में दोस्ती शुरू हुई जिसके फलस्वरूप 1993 में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी कि गठबंधन सरकार बनी इस गठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव बने। लेकिन यह दोस्ती और सरकार दूर तक नहीं चल पायी। 1995 में बहुजन समाज पार्टी ने गठबंधन तोड़ दिया। मुलायम सिंह की सरकार गिर गई। 1995 में भाजपा के सहयोग से बसपा ने सरकार बनाई मायावती मुख्यमंत्री बनीं। लेकिन इन दोनों ही सरकारों से कांशीराम किसी पद से दूर ही रहे। वह अभी किसी जल्दबाज़ी में नहीं थे।

कांशीराम की राजनीति का अध्ययन करने वाले कहते हैं कि वह कांग्रेस भाजपा सबके सहयोगी रहे। जब जरूरत पड़ी साथ खड़े हुये। जब जरूरत पड़ी तो अलग हो गए। कांशीराम के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अवसरों को अक्सर अवसरों की तरह ही इस्तेमाल किया। वह कहते थे कि राजनीति में आगे बढ़ने के लिए यह सब जायज है। 1993 में समाजवादी पार्टी के सहयोग से लोकसभा चुनाव जीतने के बाद 1995 में समाजवादी पार्टी को झटका देकर उन्होंने भाजपा जैसे वैचारिक धुर विरोधी के साथ जाने में देरी नहीं लगाई। कांग्रेस के साथ भी उन्होंने तालमेल किया। अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व वाली केंद्र कि सरकार जब गिर रही थी तब वह बिल्कुल एक नए किरदार में आ गए थे।

कांशीराम इस समय तक राजनीति के हर खेल को बनाने-बिगाड़ने की हैसियत में जो आ चुके थे। उनका कहना था कि सत्ता में होने वाली हर उथल पुथल में भागीदारी करनी होगी। क्योंकि इसी से आम जन में तेजी के साथ जाने का अवसर मिलता है इसके साथ ही उनका यह भी मानना था कि राजनीति के इस बनते बिगड़ते खेल का भागीदार बनने के विचार से दलितों के बीच भी राजनैतिक प्रभाव बढ़ेगा और सामान्य दलितों के अंदर भी प्रेरणा पैदा होगी।

1980 के दशक से उत्तर-प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की “सामाजिक आंदोलन” तथा राजनैतिक आंदोलन“ की लहर ने सामाजिक न्याय एवं लोकतांत्रिक परिवर्तन के एक नवीन दृष्टिकोण को मजबूत किया। इसने राज्य एवं दलित आंदोलन के सम्बन्ध को लेकर भी एक नया परिदृश्य तैयार किया। बसपा के नेतृत्व में दलित आंदोलन ने अपनी एक राजनीतिक पहचान बनाकर दलितों में सामाजिक राजनैतिक तथा पहचान की चेतना उत्पन्न की है, इसकी वजह से आज दलित समुदाय अपने अधिकारों के प्रति सजग हो रहा है, एवं अपनी पहचान को प्राप्त करने का प्रयास कर रहा है, इसी वजह से क्रिस्टोफेर जेफरेलांट बसपा के आंदोलन को एक ‘‘मौन क्रांति’’  की संज्ञा देते हैं।

किन्तु पिछले कुछ वर्षों से मायावती के नेतृत्व में बसपा की विचारधारा में भी व्यापक परिवर्तन दिखाई दे रहा है, पहले जहां इसमें सवर्ण जातियों के प्रति उग्र नजरिया ’’बहिर्वेशन की राजनीति’’  दिखाई देता था, वहीं हाल के वर्षों में यह काफी परिवर्तित हुआ हैं, बसपा द्वारा ’’सामाजिक इंजीनियरिंग’’ तथा ’’समावेशी राजनीति’’ द्वारा अब इसमें ब्रम्हणवादी तथा अन्य सवर्ण जातियों का भी प्रवेश हो रहा है। 2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में तो यह खुलकर सामने आ गया, जिसमें भारी संख्या में ब्राम्हणों को टिकट दिया गया। साथ ही वे चुनाव जीतने में भी सफल हुए।

इस ब्राम्हाण दलित समीकरण की बदौलत बसपा उत्तर-प्रदेश में मायावती के नेतृत्व में सरकार बनाने में भी सफल हुई। सत्ता प्राप्ति तथा सरकार बनाने के लिये ब्राम्हाणवादी जातियों के समर्थन लिये जाने के कारण बसपा के दलित आंदोलन की दिशा पर एक प्रश्न चिन्ह भी लग गया है, अनेक विद्वानों ने जहां इसे एक सोची समझी रणनीति के रूप में देखा, वहीं कई विद्वानों ने इसे अपनी विचारधारा से भटकाव के रूप में भी देखा है।

कांशीराम के केंद्र में हमेशा दलित समस्या रही। उनका मानना था कि अति-पिछड़ा वर्ग, गरीब मुसलमान और अन्य गरीब समुदायों को किस तरह से एक मंच पर लाया जाये यही कांशीराम का बहुजनवाद था और इसी की राजनीति कांशीराम कर रहे थे। इस काम में कांशीराम कामयाब भी रहे और अपनी बहुजनवाद की राजनीति के माध्यम से उत्तर प्रदेश की राजनीति को केंद्र में रखते हुये दो बड़े राजनीतिक दलों कांग्रेस और भाजपा को दो दशक से अधिक समय तक यानि 1993 से लेकर 2017 तक हाशिये पर धकेल दिया और इन दो दशकों की राजनीति की धुरी किसी न किसी प्रकार से बने रहे। कभी बसपा-भाजपा की गठबंधन सरकार के रूप में कभी पूर्ण बहुमत की सरकार के रूप में यह सब उनकी अपनी मर्जी के हिसाब से और उनकी शर्तों के आधार पर था।

जब उनकी बनाई पार्टी सत्ता में नहीं थी तो पिछड़े सामाजिक आधार वाली मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी इन खाली समयों में सत्ता में रही। राजनीतिक विश्लेषक चाहे जो भी कहें लेकिन सत्ता की चाभी किसी न किसी रूप में कांशीराम के बहुजनवाद के पास ही थी। लेकिन कांशीराम के बहुजनवाद के व्यापक संदर्भों को देखें तो समाज विज्ञानी रजनी कोठारी ने दलितों तथा पिछड़ों में बढ़ते जनतांत्रिक मूल्यों में विश्वास तथा दलित पिछड़ी राजनीति के गठजोड़ की प्रतिक्रिया स्वरूप हिन्दुत्ववादी राजनीति का विश्लेषण इस प्रकार किया है ‘‘हिन्दुत्ववादी मुहिम की एक व्याख्या यह भी है कि पिछड़े वर्गों, दलितों और मुसलमानों के गठजोड़ के प्रतिक्रिया स्वरूप यह परवान चढ़ी और अन्त में यही गठजोड़ इसके उभार में बाधक बन गया 1993 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सपा-बसपा के द्वारा अपनी राजनीतिक हार के बाद से भाजपा द्वारा राज्य में आज तक बहुमत हासिल नहीं कर पाने तथा दलितों के हाथ में राजनीतिक सत्ता आने से हिन्दुत्ववादी राजनीति का कमजोर होना एक ऐतिहासिक घटना है।’ 

लेकिन कांशीराम के न रहने के बाद की राजनीति को देखें तो उनका बहुजनवाद धीरे-धीरे कमजोर हुआ और 2014 के लोकसभा चुनावों में वह पूरी तरह से बिखर गया। इस तरह से रजनी कोठारी की यह बात आज सच साबित होती है। क्योंकि राजनीतिक रूप से दलितों और पिछड़ों की एकता कमजोर हुई है जिसके कारण उत्तर प्रदेश में भाजपा ने अपना जनाधार भी बढ़ाया है और हिंदुत्ववादी राजनीति के माध्यम से सांप्रदायिक राजनीति को भी।

क्या दलितों ने कांशीराम को पढ़ा है?

कांशीराम और अकादमिक जगत का ख़ालीपन

भारतीय राजनीति के बने बनाए मानकों को ध्वस्त करने वाले कांशीराम अकादमिक जगत के लिए भी अछूते ही रहे। कांशीराम और उनकी राजनीति पर अकादमिक जगत में एक रिक्तता है। अकादमिक जगत ने कभी भी उनको ठीक से समझने का प्रयास नहीं किया है। कांशीराम पर जो अकादमिक काम हुआ है उसमें सबसे पहले उनकी राजनीति का अध्ययन विदेशी अध्येता क्रिस्टोफर जेफर्लोट ने इंडियाज साइलेंट रिवोल्यूशन के माध्यम से महत्वपूर्ण काम किया है। समाज विज्ञानी अभय कुमार दुबे ने 1997 में कांशीराम की राजनीति को आज के दौर के नेताओं की श्रृंखला में कांशीराम पर कार्य किया है।

दलित चिंतक लेखक कंवल भारती ने ‘कांशीराम के दो चेहरे’ नाम की पुस्तक में कांशीराम की राजनीति को आलोचनात्मक नजरिए से लिखने का काम किया है। खुद मायावती ने भी बहुजन समाज और उसकी राजनीति और मेरे संघर्षमय जीवन और ‘बहुजन मूवमेंट का सफर नामा’ किताबों में कांशीराम और बहुजन राजनीति पर लिखा है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर विवेक कुमार ने बहुजन समाज पार्टी के साथ ही कांशीराम और उनकी बहुजन राजनीति पर देश के प्रसिद्ध जरनल्स में आलेख लिखने के साथ ही ‘दलित लीडरशिप’ और ‘बहुजन समाज पार्टी एवं संरचनात्मक परिवर्तन’ नाम की किताबों में भी कांशीराम पर लिखा है। पत्रकार अजय बोस ने मायावती की जीवनी में कांशीराम को नजदीक से विश्लेषित किया है।

अभी हाल ही में समाज विज्ञानी बद्री नारायण ने कांशीराम की जीवनी ‘कांशीराम लीडर ऑफ दलित्स’ नाम से लिखी है यह अँग्रेजी और हिन्दी दोनों में ही प्रकाशित हुई है। इस प्रकार से इन चुनिन्दा कामों के अलावा मुख्यधारा के समाज विज्ञान में कांशीराम पर बहुत कम लिखा गया है। इस तरह से कांशीराम पर दलित आंगिक बुद्धिजीवियों और कुछ प्रकाशन संस्थानों द्वारा किताबें और पुस्तिकाएं जरूर प्रकाशित की गई हैं। लेकिन अकादमिक जगत ने उनको कभी ठीक से समझने की कोशिश नहीं की है।

चमचावाद की वापसी 

कांशीराम रिपब्लिकन पार्टी से लेकर दलित पैंथरों तक हर तरह के दलित आंदोलन से संबंध रखा। उन्हें स्थापित दलित नेताओं के प्रति निराशा की भावना से भर दिया। उनकी दिलचस्पी जल्दी ही रिपब्लिकन पार्टी में खत्म हो गई। उन्हें लगा कि ये तमाम दलित नेता ब्राह्मण वर्ग के चमचे हैं। इन सब में खुद कांशीराम का लेखन बहुत ही महत्वपूर्ण है सबसे पहले उन्होंने एक किताब लिखी थी ‘द चमचा एजः द एरा आफ स्टूजिस। उनकी मान्यता बनी कि अनुसूचित जातियों और जन जातियों के लिए किए गए राजनीतिक आरक्षण से केवल सवर्णों के तलवे चाटने वाले दलित नेता ही निकले हैं।

कांशीराम ने इसके लिए पूना पैक्ट को जिम्मेदार माना। उनकी यह पुस्तक पूना पैक्ट की आलोचना करती है। गांधी जी के प्रति कांशीराम की इस प्रवृति को समझने के लिए पूना पैक्ट और उसके बाद से हुई दलित राजनीति पर एक व्यापक दृष्टि डालनी आवश्यक है। केवल तभी हमें वह पृष्ठभूमि ज्ञात हो सकती है जिसके कारण कांशीराम एक नई तरह की राजनीति करने पर मजबूर हुए। इस तरह से यह किताब दलित राजनीति और उसके नेतृत्व पर लिखी गई थी। इस किताब में उनके द्वारा दलित राजनीतिक नेतृत्व पर सवाल उठाए गए थे। यह किताब दलित राजनीतिक नेतृत्व की प्रकृति को समझने के लिए हमेशा ही प्रासंगिक लगती है।

आज अगर वर्तमान राजनीति का विश्लेषण किया जाये तो, बहुजन समाज के लोग विभिन्न पार्टियों से जुड़े हुए हैं, लेकिन उन पार्टियों में वह सिर्फ अनुसूचित जाति-जनजाति मोर्चा तक ही सीमित रह जाते हैं। वह लोग बहुजन समाज के लोगों द्वारा दिए गए वोट द्वारा चुने तो जाते हैं, लेकिन बाद में वह सिर्फ पार्टी के चाकर ही बन कर रह जाते हैं। अपने समाज के लोग, उनकी समस्या और उनके प्रश्नों को वह सही तरह से प्रस्तुत करने में व उनके निराकरण में पूर्णत: असफल दिखाई देते हैं। उनकी जवाबदेही एवं वफ़ादारी अपने समाज की बजाय सत्ता पक्ष के प्रति दिखाई देती है। उन लोगों का इस्तेमाल उनके ही समाज के पक्ष और सच्चे नेता को कमजोर करने के लिए होता है। इसी बात को साहब कांशीराम ने अपनी किताब चमचायुग में बखूबी दर्शाया है।

कांशीराम लिखते हैं कि, “चमचा एक देसी शब्द है, जिसका प्रयोग उस व्यक्ति के लिए होता है जो अपने आप कुछ नहीं कर सकता बल्कि उससे कुछ करवाने के लिए किसी और की जरूरत होती है। और वह कोई और व्यक्ति, उस चमचे का इस्तेमाल हमेशा अपने निजी फायदे और भलाई के लिए अथवा अपनी जाति की भलाई के लिए करता है, जो चमचे की जाति के लिए हमेशा अहितकारक होता है।” चमचों के लिए कांशीराम ने दलाल, पिट्ठू, औजार जैसे और शब्द भी इस्तेमाल किये हैं।

चमचों या दलालों की वजह से बहुजन आन्दोलन को बहुत ही गहरी चोट पहुंची है। जिस आन्दोलन को बहुजन महापुरुषों ने अपने खून पसीने से सींचा, उस आन्दोलन को चमचों ने अपने स्वार्थ के लिए बेच दिया और इसी लिए आज हमारे लिए यह बहुत जरुरी बन जाता है कि, हम सच्चे मिशनरी और चमचों के बीच का फर्क जाने, ताकि हमें चमचों को पहचानने में आसानी हो।

‘जिसकी जितनी थैली भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’

बसपा से निकले या हाशिये पर धकेल दिये गए पुराने नेता कहते हैं कि जब कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की थी तब इसका नारा था ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’, लेकिन जब से मायावती राष्ट्रीय अध्यक्ष बनी हैं तब से इसका नारा हो गया है-‘जिसकी जितनी थैली भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’। मायावती ने कांशीराम का सपना तोड़ा नहीं बल्कि ध्वस्त कर दिया है। कांशीराम बहुजन के लिए काम करते थे और मायावती सिर्फ अपने निजी हित के लिए काम करती हैं। निजी हित की वजह से न उन्होंने किसी पर विश्वास किया और न उन पर किसी और ने। इसलिए अब वो पार्टी में अपने परिवार के सदस्यों आनंद कुमार और आकाश आनंद को आगे बढ़ा रही हैं। मायावती ने नेता नहीं कलेक्शन एजेंट रखे हुए हैं।

आज तमाम सारे संगठन हैं। बहुत सारे नेता हैं। सबके अपने-अपने राजनीतिक दल हैं। सबके अपने-आपने दावे हैं। लेकिन इन सब में जो केंद्रीय बात है वह है कांशीराम का बहुजन और उनका बहुजनवाद का सिद्धांत।  कांशीराम अपने कार्यकर्ताओं से कहा करते थे कि ‘जिन लोगों की गैर-राजनीतिक जड़ें मजबूत नहीं हैं वे राजनीति में सफल नहीं हो सकते’। कांशीराम की यह बात आज सही साबित लगती है क्योंकि उनके द्वारा स्थापित संगठन बामसेफ आज निष्क्रिय जैसा है जो है भी वह कई गुटों के रूप में संचालित है। सबकी अपनी-अपनी बातें हैं। बसपा का बामसेफ संगठन उसका जेबी संगठन भर रह गया है।

कांशीराम द्वारा शुरू किए गए पत्र-पत्रिकाएं जो कांशीराम के बहुजनवाद की वैचारिक ताकत थे वह सब बंद हो गए हैं या बंद कर दिये गए हैं। वर्तमान राजनीतिक स्थितियों को देखते हुये ऐसा लगता है कि कांशीराम का बहुजनवाद कहीं विरोधाभास में फंस सा गया है। उनके द्वारा स्थापित दल ने तो जैसे उनके विचार को तिलांजलि दे दी है। कांशीराम का बहुजनवाद न तो आज आन्दोलन में है न ही किसी विचार के स्तर पर। यदि कहीं है भी तो वह सिर्फ नेताओं कि जुबान पर उनके बैनर और पोस्टर पर लेकिन व्यवहार के स्तर पर तो बिल्कुल ही नहीं। जिस तरह से आज देश कठिन राजनीतिक परिस्थितियों से जूझ रहा है उसमें कांशीराम की बनाई बहुजन समाज पार्टी की चुप्पी से तो नहीं लगता कि यह पार्टी उनकी बनाई है। यदि आज कांशीराम होते तो वर्तमान भारत में नागरिक अधिकार आंदोलन के साथ होते और एक स्पष्ट वैचारिक राजनीतिक लाइन लेते।

(डॉ.अजय कुमार, शिमला स्थित भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में फेलो हैं। वह यहाँ पर समाज विज्ञानों में दलित अध्ययनों की निर्मिति परियोजना पर एक फ़ेलोशिप के तहत काम कर रहे हैं।)

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