खेल-खेल में, क्या खेल हुआ! लोकतंत्र क्या, फेल हुआ!

नौवीं बार नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने हैं। बिहार विधान सभा के अंदर सरकार में विश्वासमत के प्रति राजनीतिक आस्था के पराक्रम का प्रयास पराकाष्ठा पर चल रहा है। जब राजनीतिक उलट-पलट का खेल चल ही रहा है, तो नागरिक जमात भी थोड़ा पलटकर देखने की कोशिश करे तो क्या बुरा है! 

जनता दल (यू) के नेता नीतीश कुमार के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने बिहार में 2020 के चुनाव में जीत दर्ज करवाई। राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव के नेतृत्व में महागठबंधन को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) से कम सीटें मिली थीं। गठबंधन के तौर पर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के विधायक दल के नेता के रूप में नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने। 

नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बन तो गये, लेकिन उनका जनता दल (यू) संख्या के आधार पर तीसरे नंबर का दल ठहर गया था, जिसे दूसरे नंबर के दल भारतीय जनता पार्टी का समर्थन हासिल था। यह लोकतंत्र की विडंबना थी कि सब से बड़े राजनीतिक दल, राष्ट्रीय जनता दल का नेता विपक्ष में था और तीसरे नंबर के दल, जनता दल (यू) का नेता मुख्यमंत्री के पद पर आसीन हो गया था। तकनीकी और राजनीतिक रूप से यह सही था, तो था! इस पर कोई नैतिक सवाल खड़ा करना इस समय के राजनीतिक व्यवहार के लिहाज से प्रासंगिक नहीं है, बिल्कुल नहीं। असल में, आज भारत के जीवन के हर क्षेत्र में नैतिकता बहुत कमजोर हो गई है, राजनीति में तो खैर वह किसी के काम की बची ही नहीं है। मनुष्य का जीवन ही ऐसा है कि स्थिति चाहे जैसी भी हो विवेक, नीति और नैतिकता की बात उठ ही जाती है।

पश्चिम बंगाल में 2021 के विधान सभा चुनाव के दौरान अखिल भारतीय तृण मूल कांग्रेस की नेता और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री, नरेंद्र मोदी के भाषण के जवाब में कहा था — खेला होबे। इस चुनाव में अखिल भारतीय तृण मूल कांग्रेस की भारी जीत के बाद ममता बनर्जी का यह बयान राजनीतिक चर्चा-परिचर्चा में बहुत लोकप्रिय हुआ। ‘खेला होबे’ या ‘खेला होगा’ अब भारत में लोकप्रिय राजनीतिक मुहावरा बन गया है।

जब खेल की बात चल ही रही है तो यहाँ थोड़ी-सी बात अतीत से, यानी मिथ के संदर्भ से, कर ली जाये। वैसे भी भारत में आजकल अतीत और मिथ से ही सब कुछ तय करने का रिवाज जोरों से चल पड़ा है। खेल में श्रीदामा जीत गये थे। कृष्ण हार गये थे। हारकर कृष्ण रूठ गये थे। सूरदास कहते हैं, श्रीदामा ने मनाते हुए कहा — खेलत मैं को काकौ गुसैयाँ! कृष्ण के पास अधिक गायें थी क्या! हार तो वे गये ही थे! श्रीदामा ने ठीक ही कहा था। खेल कोई हो, उस में न छोटा-बड़ा होता है, न आगे-पीछे; लहर-लहरकर जिसका जहाँ, लह जाये! सब बराबर के हिस्सेदार होते हैं! कृष्ण समझ गये थे — खेल में जीतना ही खेल धर्म है। जीतने में ही मजा है।

महाभारत में जुआ को क्रीड़ा, यानी खेल कहा गया है। महाभारत युद्ध की पटकथा लिखने में यह खेल बड़ा कारण बना। कहा जा सकता है, खेल नहीं, खेल में बेईमानी। खेल में असल खेल तो बेईमानी ही करती है। बेईमानी में ही मजा है! इस मजा का चक्कर भी बड़ा विचित्र है! चक्कर अपनी जगह, लेकिन यह सच है कि बेईमानी का मजा कुछ और ही होता है! बेईमानी का असल मजा तो तब है, जब हारने वाले को बेईमानी का पता ही न चले और जीतने वाला मंद-मंद मुसकुराता रहे। हारने वाला टुकुर-टुकुर ताकता रह जाये। यानी आँख बंद भी नहीं और डब्बा गोल! इसलिए बेईमानी जीवन के हर प्रसंग को खेल बना देती है। हर खेल में मजा के लिए पर्याप्त जगह सुरक्षित रहती है। 

भारत में लोकतंत्र के संदर्भ में पंचायत व्यवस्था को देखा जा सकता है। पंचायत व्यवस्था को संगठित राजनीतिक दलों के ‘प्रकोप’ से बचाने पर जोर था। फिर भी ऐसा नहीं हो सका। कुछ खेल यहां भी ज़रूर होता रहता है! यहां, राजनीतिक दलों के व्यवहार में निहित एक तरह की बेईमानी की भूमिका को पहचाना जा सकता है। परम आदर्श स्थिति तो कहीं होती नहीं है, इसलिए व्यावहारिक स्तर पर इस स्थिति को निराशाजनक मानना उचित नहीं है। यह भी ध्यान में होना चाहिए कि पंचायत के चुनावों में आम चुनाव से अधिक मतदान देखा गया है। महिलाओं, दलितों, आदिवासी जैसे विभिन्न सामाजिक संवर्गों के लिए आनुपातिक तौर पर राजनीतिक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए प्रावधान हैं।

प्रारंभिक खींच-तान, यानी खेल के बाद अब स्थिति पहले की तुलना में कुछ संतुलित हो गई है। जाति वर्चस्व की ऐतिहासिक वंचनाओं को कम-से-कम राजनीतिक मामले में, कम करने में पंचायत व्यवस्था की भूमिका को भुलाया नहीं जा सकता है। समाज के शक्ति-वंचितों का सशक्तिकरण लोकतंत्र की बड़ी उपलब्धि मानी जा सकती है। लोकतंत्र में मतपेटी को परम-ब्रह्म और मतदान को मतदाताओं की मोक्ष-प्राप्ति की परम-पवित्र प्रक्रिया से जोड़कर देखा जा सकता है। तकनीक के सहारे मतपेटी में इधर-उधर के खेल के खलल और लोभ-लाभ के सहारे मतदाताओं के मन में ‘महाबली’ के होने के एहसास से खलबली मचने का मसला अलग है।

आज पूरी दुनिया में ओलंपिक खेलों का खेलों में वर्चस्व है। ओलंपियन के मिथ का इतिहास को याद किया जा सकता है। टाइटन्स और ओलंपियन के बीच के युद्ध को टाइटेनोमाची कहा जाता है। ब्रह्मांड पर वर्चस्व कायम करने के लिए यह युद्ध हुआ था। इस युद्ध में जीउस ने ओलंपियन का नेतृत्व किया और क्रोनस ने टाइटन्स का नेतृत्व किया। यह युद्ध दस साल तक श्रृंखलाओं में चलता रहा। ओलंपियन की तुलना में टाइटन्स का आकार बड़ा था। टाइटन्स दूसरी पीढ़ी के देवता थे और माउंट ओथ्रिस पर निवास करते थे। युद्धोपरांत, तीसरी पीढ़ी का देवता ओलंपियन का माउंट ओलिंप पर कब्जा हो गया था।

टाइटेनोमाची युद्ध भले ही दस साल तक श्रृंखलाओं में चला हो, भारत के लोकतंत्र में पाँच-पाँच साल तक की अटूट श्रृँखलाओं का ही प्रावधान है। भारत की राजनीति में बार-बार राजनीतिक पाला बदलने के कारण ‘पलटू कुमार’ नाम से चर्चित नीतीश कुमार ने अगस्त 2022 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का साथ छोड़ दिया। पलटकर महागठबंधन में शामिल हो गये। और फिर से मुख्यमंत्री बन गये। केंद्र में भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में बने रहने को लोकतंत्र के लिए खतरा बताते हुए उन्होंने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) और भारतीय जनता पार्टी से पल्ला झाड़ लिया था, ऐसा ही उन्होंने तब बताया था। अपने दल जनता दल (यू) को भारतीय जनता पार्टी के द्वारा तोड़ने के तिकड़म की बात भी कही थी। अब वे भारत भूमि पर लोकतंत्र को बचाने की मुहिम में लग गये। सत्ता-रूढ़ भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से बेदखल करने के संकल्प के साथ विपक्षी दलों का ‘मजबूत’ गठबंधन के प्रयास में रात-दिन लग गये थे।

बड़ी मशक्कत के बाद 20 से अधिक दलों का साथ-सहयोग लेकर इंडिया गठबंधन (I.N.D.I.A – इंडियन नेशनल डेवलेपमेंटल इनक्लुसिव अलायंस) बन भी गया। इंडिया गठबंधन में सब कुछ ठीक-ठाक ही था, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि जनता दल (यू) के नेता नीतीश कुमार ने एक बार फिर पाला बदल लिया। महागठबंधन से इस्तीफा देकर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में शामिल हो गये। मुख्यमंत्री बनना भी तय हो ही गया था। अतः फिर शपथ लेकर, नौवीं बार मुख्यमंत्री की शपथ लेने का रिकॉर्ड बनाया। राष्ट्रीय जनता दल और महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव ने कहा कि खेल तो अभी शुरू हुआ है, खेल अभी बाकी है। 

इस बीच बिहार की राजनीति में तरह-तरह की चर्चाएँ होती रहीं। इस बार भी चर्चा-परिचर्चा का केंद्रीय विषय ‘खेल’ ही था। लोग बाग इस चर्चा-परिचर्चा में बार-बार और तरह-तरह से चित्र-विचित्र ढंग की भाव-भंगिमा के साथ भाग लेते रहे। 12 फरवरी 2024 को बिहार विधान सभा में विनीत नीतीश कुमार विश्वासमत के लिए सदन के समक्ष उपस्थित हुए और विश्वासमत प्राप्त भी कर लिया। अब यह कयास लगाते रहिए, कि ‘खेल’ हुआ या नहीं, हुआ! हुआ तो क्या हुआ? इसी के साथ काल जो कि स्वयं इतिहास पुरुष है ने अपने खाता में जो दर्ज किया उसे भावी पीढ़ी अपने पाठ्यक्रम में पढ़ेगी।

नीतीश कुमार के विश्वासमत प्राप्त होने के बाद बिल्कुल शांत माहौल में पीठासीन अधिकारी ने दिवंगत आत्माओं का नामोल्लेख करते हुए उनके प्रति सम्मान व्यक्त किया और मौन होकर ईश्वर से दिवंगत आत्मा को शांति प्रदान करने के लिए प्रार्थना की। यह परंपरा का प्रसंग है, कोई प्रतीक नहीं। परंपरा और प्रसंग के अनुसार अध्यक्ष ने सभी माननीय सदस्यों, खासकर सत्ता पक्ष के सदस्यों के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करते हुए 12 जनवरी 2024 की कार्यवाही के समापन की घोषणा की। 

जनता दल (यू) के नेता, नीतीश कुमार ने सदन का विश्वासमत जीता है। पता नहीं कितना सही कहा जाता है, और कितनी यह बनावटी बात है कि डॉ. राममनोहर लोहिया नीतीश कुमार के भी प्रेरणा पुरुष रहे हैं। आज के इस पावन अवसर पर डॉ. राममनोहर लोहिया की याद नीतीश कुमार को कितनी आई होगी कहना मुश्किल है। डॉ. राममनोहर लोहिया के अनेक उत्तरजीवियों को उनकी याद जरूर आई होगी। डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा था, “राजनीति अल्पकालिक धर्म है और धर्म दीर्घकालिक राजनीति है।” इस सूत्र वाक्य से प्रेरित होकर कहा जा सकता है — विगत समय का खेल आज की लीला है और आज का खेल भविष्य की लीला है। 

लेकिन सवाल तो यह है कि खेल-खेल में, क्या खेल हुआ! लोकतंत्र क्या, फेल हुआ! खैर, यह तो भविष्य ही बता पायेगा। इंतजार कीजिये भविष्य का, तब तक साभार पाठ कीजिये, महाकवि सूरदास की एक कविता का —  

“खेलत मैं को काको गुसैयाँ ।

हरि हारे जीते श्रीदामा, बरबसहीं कत करत रिसैयाँ ॥

जात-पाँति हम ते बड़ नाहीं, नाहीं बसत तुम्हारी छैयाँ ।

अति धिकार जनावत यातैं, जातैं अधिक तुम्हारैं गैयाँ !

रुहठि करै तासौं को खेलै, रहे बैठि जहँ-तहँ सब ग्वैयाँ ॥

सूरदास प्रभु खेल्यौइ चाहत, दाउँ दियौ करि नंद-दहैयाँ ॥”

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)   

प्रफुल्ल कोलख्यान
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