शांति की कश्मीर वार्ता में बड़े विस्फोट की आशंका

प्रधानमंत्री की जम्मू-कश्मीर के नेताओं के साथ बैठक देश ही नहीं पूरी दुनिया में चर्चे का विषय बनी हुई है। और लोग इस घटना को कुछ इस तरह से देख रहे हैं जैसे किसी चीज की अपेक्षा न की गयी हो और वह हो गयी है। या दूसरे तरीके से कहें तो पीएम मोदी की सोच और उनकी कार्यशैली के बिल्कुल विपरीत रही है। बैठक में सबकी बातों को सुनना और एक आम सहमति बनाने की कोशिश कश्मीर के प्रति अब तक बरते गए सरकार के रवैये के बिल्कुल विपरीत था। वार्ता में भी भाग लेने वाले नेता खुशी-खुशी अपने घरों को वापस गए। लेकिन हमें एक पल के लिए ठहरकर सोचने की जरूरत है। अचानक ये कायाकल्प क्यों और कैसे? वह शख्स जो राजधानी की सीमाओं पर पिछले 7 महीनों से सपरिवार बैठे किसानों की तरफ मुंह तक करना जरूरी नहीं समझता। गर्मी की तपन हो या कि जाड़े की ठिठुरन या फिर बारिश में बार-बार उजड़ते उनके ठिकानों को देखकर वह पसीज तक नहीं रहा है।

बंगाल के चुनाव में न तो प्रचंड बहुमत देने वाली जनता और न ही उसकी चुनी हुयी सरकार की वह फिक्र करता है और चुनाव निपटते ही उसके खिलाफ अभियान छेड़ देता है। वह शख्स जिसकी निगाह में लोकतंत्र की हैसियत किसी इस्तेमाल किए हुए नैपकिन से ज्यादा नहीं। कैसे उस कश्मीर के प्रति इतना उदार हो सकता है जिसकी बनावट न केवल मुस्लिम बहुल है बल्कि वह पाकिस्तान की सीमा से भी लगता है और जिसे हमेशा गरम बनाए रखना उसकी सांप्रदायिक राजनीति की जरूरत है। इसलिए सरकार की इस पहल को किसी सदिच्छा का नतीजा नहीं बल्कि तात्कालिक दबाव के हिस्से के तौर पर देखा जाना चाहिए।

और वह दबाव है अमेरिका का। कहा जा रहा है कि अचानक हुई यह बैठक उसी के दबाव का परिणाम है। अमेरिकी हितों के खांचे में भारत के रणनीतिक महत्व का स्थान रखने के बावजूद राष्ट्रपित बाइडेन ने अभी तक मोदी से ठीक से बात नहीं की है। मोदी को भी उपराष्ट्रपति और भारतीय मूल की कमला हैरिस से ही बात कर संतुष्ट होना पड़ा है। दरअसल बाइडेन एक तरफ अपनी पार्टी के लोकतांत्रिक, समावेशी और धर्मनिरपेक्षता जैसे बुनियादी उसूलों के प्रति प्रतिबद्ध हैं। ऊपर से मोदी के खास चरित्र को लेकर उनके भीतर एक तरह का रिजर्वेशन भी है। यहां यह जानकारी देना उचित रहेगा कि मोदी की अमेरिकी यात्रा पर पाबंदी के समय बाइडेन वहां के उप राष्ट्रपति थे। लिहाजा मोदी पर लगे प्रतिबंध और उसके पीछे के कारणों से बाइडेन भलीभांति परिचित हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि बाइडेन मोदी को बहुत नजदीक से जानते हैं। ऐसे में एक लोकतांत्रिक शख्स और किसी तानाशाही की पक्षधर शख्सियत के बीच भला कैसे तालमेल हो सकता है?

यही वह बात है जो दोनों नेताओं के बीच अभी दूरी बनाए हुए है। और उससे भी आगे बढ़कर बाइडेन और उनकी पार्टी का कश्मीर के प्रति रुख बिल्कुल अलग है। जिसको कि उन्होंने अमेरिकी चुनाव से पहले अपने घोषणापत्र में जाहिर कर दिया था। इसमें कश्मीर के भीतर लोकतंत्र की बहाली उसकी प्रमुख शर्त थी। इस प्रतिबद्धता का ही शायद नतीजा था कि चुनाव जीतने के बाद अपने प्रशासन में उन्होंने दो कश्मीरियों को जगह दी। यह भारत और खासकर मोदी के लिए बड़ा संकेत था। और इसी का विस्तार एक दूसरे रूप में भी सामने आया जब वहां एनआरआई के नाम कुछ संघ समर्थक भारतीयों के बने संगठन की चंदा वसूली समेत उसकी सभी आर्थिक गतिविधियों पर सरकार ने लगाम लगा दी। इस कड़ी में कई को तो गैरकानूनी घोषित कर उन्हें प्रतिबंधित कर दिया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि अमेरिका में बसे संघी जमात के लोग, जो अभी तक पूरे अमेरिका को अपने फासीवादी हिंदुत्व के प्रचार के लिए खुला चारागाह समझ रहे थे उन्होंने अपनी गतिविधियों को सीमित कर लिया।

और फिर वे अपनी खोल में सिमट गए। ट्रम्प के समय जो अबाध स्वतंत्रता उन्हें मिली थी वह अब जाती रही। इन तमाम परिस्थितियों के बीच जबकि मोदी और संघ के लिए अमेरिका किसी मक्के से कम नहीं है। भला वे उसे कैसे नाराज कर सकते हैं। इस बात में कोई शक नहीं कि न केवल चीन के खिलाफ बल्कि जरूरत पड़ने पर अफगानिस्तान पर भी नजर रखने के लिए मोदी के नेतृत्व वाला भारत अमेरिका का सबसे विश्वसनीय मित्र है। ऐसे में अमेरिका भारत को नहीं छोड़ सकता है। लेकिन कहते हैं कि फेस सेविंग के लिए कुछ तो करना पड़ेगा। लिहाजा बाइडेन और उनकी मंडली मोदी से कश्मीर समेत कुछ अन्य मसलों पर इसी तरह की पहलकदमियां करवा कर भविष्य के अपने रिश्ते को पुख्ता करने का रास्ता साफ कर रही है। कश्मीर पर तात्कालिक तौर पर मोदी की इस कवायद को उसी से जोड़ कर देखा जा रहा है।

लेकिन मोदी-शाह-संघ भी इतने कच्चे खिलाड़ी नहीं हैं। इन सारी विपरीत परिस्थितियों में भी अपने हितों की रक्षा करना उन्हें आता है। अनुच्छेद 370 समाप्त करने और इलाके को केंद्र शासित प्रदेशों में बांटने के बाद जिन नेताओं को जेल की सींखचों के भीतर डाल दिया गया था या फिर उन्हें अपने घरों में नजरबंद कर दिया गया था उन सभी के साथ बैठक कर मोदी ने एक बड़ा संदेश दे दिया है। अब उसके नाम पर कश्मीर के भीतर संघी साजिश का जो पिटारा खुलेगा उसे सिर्फ गिना ही जा सकता है। दरअसल इस पहल के बाद भी मोदी कश्मीर के जरिये जो हासिल करना चाहते हैं वो उसे छोड़ने नहीं जा रहे हैं। मसलन अनुच्छेद 370 खत्म कर उन्होंने अपने 70 सालों के संकल्प को अगर पूरा किया है तो अब उसे कश्मीर में कैसे स्थायी तौर पर पुख्ता किया जाए यह उनकी चिंता का प्रमुख विषय बन गया है। इस कड़ी में परिसीमन उनके पास सबसे बड़ा हथियार है।

अनायास नहीं इस बैठक में भी पूरा फोकस परिसीमन पर रहा। और मोदी ने सभी नेताओं से पहले उसमें सहयोग करने और फिर बाद में दूसरी चीजों को लागू करने की बात कही। अब परिसीमन में होगा क्या सबकी निगाहें उसी पर लगी हैं। परिसीमन के खेल को ही समझकर पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को कहना पड़ा कि भला इसकी अभी क्या जरूरत थी? और वह भी केवल कश्मीर के लिए अलग से क्यों? जबकि 2026 में पूरे देश में एक साथ परिसीमन होना है। दरअसल पूरा खेल अब उसी बिंदु पर आ कर टिक गया है। कहा जा रहा है कि इसके जरिये केंद्र सरकार विधानसभा के पूरे चरित्र और सूबे के पूरे नक्शे को बदल देगी। दरअसल जम्मू-कश्मीर में अभी तक कश्मीर का ही राज चलता रहा है। सभी मुख्यमंत्री घाटी से ही बने। उनमें कोई भी न तो जम्मू का था ना ही हिंदू था। लिहाजा सरकार का पूरा जोर इस बात पर होगा कि इस राजनीतिक समीकरण को कैसे बदल दिया जाए। जो बैलेंस अभी घाटी के पक्ष में है उसे जम्मू के पक्ष में कर दिया जाए। यहां यह बताना जरूरी नहीं है कि कश्मीर मुस्लिम बहुल है और जम्मू हिंदू।

अभी मौजूदा समय में सीटों की जो स्थिति है उसमें विधानसभा में कुल 111 सीटें हैं। उनमें पाक अधिकृत कश्मीर के लिए 24 छोड़ दी गयी हैं। बचीं 87 सीटें जिनमें 4 लद्दाख इलाके से आती हैं। और अब लद्दाख अलग हो गया है। बाकी सीटों में 46 सीटें कश्मीर घाटी के खाते में आती हैं। और 37 जम्मू के। अब इसमें जो खेल होने की आशंका है वह यह कि हाल के दिनों में सरकार ने न केवल वहां अनुसूचित जाति बल्कि अनुसूचित जनजाति के हिस्से को भी चिन्हित किया है और उन्हें सरकारी नौकरियों से लेकर राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान तक में हिस्सेदारी देने की कवायद शुरू की है। उसके नाम पर असेंबली की कुछ सीटों को आरक्षित किया जा सकता है। ऐसा होने पर न केवल घाटी बल्कि मुसलमानों की सीटों में कटौती हो जाएगी। और कहा तो यहां तक जा रहा है कि घाटी से बाहर आए पंडितों के लिए भी सरकार कुछ सीटें आरक्षित कर सकती है। जिसमें वहां से विस्थापित पंडित मौका आने पर न केवल वहां जाकर वोट डाल सकें बल्कि उनके प्रतिनिधित्व की गारंटी हो सके। इसके साथ ही सरकार के पास एक और रास्ता है जिसके जरिये वह घाटी की सीटों को कम कर सकती है। वह है जम्मू के क्षेत्रफल का हवाला जो घाटी से बहुत ज्यादा है। अगर उसको पैमाना मानकर सीटें तय कर दी गयीं तब भी एक बड़ा बदलाव आ जाएगा जो जम्मू के पक्ष में होगा। 

लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या सूबे के राजनीतिक दल इस बात से सहमत होंगे? ऐसा कत्तई नहीं होने जा रहा है। इसका नतीजा यह होगा कि सभी मिलकर केंद्र की सत्ता के खिलाफ आंदोलन करने के लिए बाध्य हो जाएंगे। लेकिन उसका पूरा फायदा बीजेपी और संघ को मिलेगा। बीजेपी यही चाहती है कि घाटी हमेशा गरम रहे। क्योंकि उसका दूसरा फायदा उसे देश के दूसरे हिस्सों में मिलता है। इस तरह से जबकि 2022 में यूपी का चुनाव है और उसके बाद देश 2024 के आम चुनाव के लिए तैयार हो जाएगा। तो फिर यही घाटी बीजेपी के लिए खाद पानी का काम करने लगेगी। और ऐसे समय में जबकि यूपी के चुनाव के लिए संघ ने देश के स्तर पर सांप्रदायिक गोलबंदी शुरू कर दी है। घाटी में राजनीतिक दलों का कोई भी आंदोलन उसके लिए किसी बड़े तोहफे से कम नहीं होगा। इसलिए हमें समझना चाहिए कि मोदी और संघ का यह सामंजस्य और सौहार्द भविष्य के किसी बड़े विस्फोट की तैयारी का हिस्सा है। वह किस रूप में और कैसे सामने आएगा उसको देखने के लिए हम लोगों को इंतजार करना होगा।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संस्थापक संपादक हैं।)

महेंद्र मिश्र
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