मजदूरों की मौत से आत्मनिर्भरता आएगी?

किसी ने ठीक ही कहा है कि कोरोना महामारी में नया कुछ नहीं हो रहा है। बल्कि जो चीजें हो रही थीं उनकी गति तेज हो गई है। इसे हम श्रम कानूनों के साथ भी घटित होता देख सकते हैं। सरकार लंबे समय से श्रम सुधारों का एलान कर रही थी और इस दौरान उसे तेज कर दिया गया है। प्रधानमंत्री ने लॉकडाउन 4.0 की पूर्व पीठिका में जो कुछ कहा उससे जाहिर है कि विभिन्न राज्यों ने श्रम सुधारों की गति उनके कहने पर तेज की है।

उन्होंने आपदा को अवसर में बदलने का नारा देते हुए कहा है कि भारत को आत्मनिर्भर बनाना है और यही कोरोना का सबक है। लेकिन क्या भारत की यह आत्मनिर्भरता मजदूरों को शोषण और मौत के मुंह में धकेलने से आएगी? दुखद यह है कि प्रधानमंत्री ने अपने हड़बड़ी में लिए गए फैसले पर कोई पश्चाताप न दिखाते हुए मजदूरों की पीड़ा को तपस्या और साधना कहा है। इससे व्यवस्था के इरादे स्पष्ट होते जा रहे हैं।

श्रम सुधार का मतलब यह नहीं समझना चाहिए कि यहां श्रमिकों को पूंजीपतियों और सामंतों के बंधन से मुक्त किया जा रहा है और उन्हें आर्थिक समृद्धि का नया अवसर मिलेगा। बल्कि इसका उद्देश्य इसके ठीक उलट है। यहां सरकारों और पूंजीपतियों को श्रमिकों के बंधन से मुक्त किया जा रहा है। सरकार और पूंजीपति पर मजदूरों से संबंधित जो भी जिम्मेदारी थी उसे हटाया जा रहा है और उल्टे मजदूरों पर जिम्मेदारी बढ़ाई जा रही है और उनके अधिकार घटाए जा रहे हैं। 

एक प्रकार से महामारी की महागाज मजदूरों पर ही गिर रही है हालांकि ज्यादा नुकसान में होने का हल्ला उद्यमी मचा रहे हैं। विडंबना देखिए इस मौके पर मजदूरों की रक्षा करने के लिए न तो संसद है, न न्यायपालिका है और न ही कार्यपालिका। मीडिया ने भी इस दायित्व से मुंह मोड़ लिया है। एक ओर शहरों से गांवों की ओर गिरते पड़ते मजदूर भाग रहे हैं तो दूसरी ओर तमाम श्रम कानूनों को मुअत्तल करके उनके पेट पर लात मारी जा रही है। विडंबना यह है कि इसकी व्याख्या उल्टे तरीके से की जा रही है। कहा जा रहा है कि इससे निवेश बढ़ेगा, उत्पादन बढ़ेगा और मजदूरों के लिए नए अवसर उत्पन्न होंगे। 

उत्तर प्रदेश सरकार ने मजदूर अधिकारों से जुड़े करीब 35 कानून तीन साल के लिए मुअत्तल कर दिए हैं। उसने काम के घंटे आठ से बढ़ाकर 12 कर दिए हैं। बस क्या था मध्य प्रदेश और गुजरात की भी भाजपा सरकारों ने उसके नक्शेकदम पर चलने का निर्णय ले लिया है। वहां भी काम के घंटे 12 कर दिए गए हैं और कई कानूनों को निलंबित कर दिया गया है। यही नहीं कुछ कानूनों के आवश्यक प्रावधानों को राजस्थान और पंजाब की कांग्रेस सरकारों ने और कुछ कानूनों को उड़ीसा की बीजू जनता दल सरकार ने भी रद्द किया है।

उत्तर प्रदेश में जिन कानूनों की प्रमुख धाराओं को रद्द किया गया है उनमें न्यूनतम वेतन अधिनियम, मातृत्व हित अधिनियम, समान वेतन अधिनियम, ट्रेड यूनियन अधिनियम, इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट अधिनियम, फैक्ट्रीज अधिनियम, कांट्रैक्ट लेबर अधिनियम, वर्किंग जर्नलिस्ट अधिनियम, एम्प्लाइज प्राविडेंट फंड्स एंड मिसलेनियस अधिनियम, एम्प्लाइज स्टेट इंश्योरेंस अधिनियम, पेमेंट ऑफ बोनस एक्ट, अनआर्गेनाइज्ड वर्क्स आन सोशल सिक्योरिटी एक्ट शामिल हैं।

लेकिन दिक्कत यह है कि श्रमिक कानूनों को खत्म किए जाने को जहां पूंजीपति और शासक दल देश की आर्थिक तरक्की की गारंटी मान रहे हैं वहीं जो विरोध कर रहे हैं वे भी श्रम कानूनों को कायम रखने के पक्ष में नहीं हैं। उन्हें आपत्ति इसी बात पर है कि इसे अभी नहीं मुअत्तल करना था या तो पहले मुअत्तल कर देना चाहिए था कुछ समय बाद में। इसे इस तरह नहीं रद्द करना था। रोचक बात यह है कि श्रम कानूनों को रद्द किए जाने को मजदूरों पर कुठाराघात बताने वाले प्रताप भानु मेहता जैसे राजनीति शास्त्री मानते हैं कि भारतीय श्रम कानून वास्तव में न तो पूंजी का भला कर रहे थे और न ही श्रमिकों का।

वे दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनामिक्स के आदित्य भट्टाचार्य के एक महत्त्वपूर्ण प्रपत्र का हवाला देते हुए कहते हैं कि श्रम कानून मजदूरों की रक्षा नहीं कर रहे थे। वे दरअसल विकास की मौजूदा रफ्तार से बेमेल हो गए थे। लेकिन केंद्र सरकार जब उसके लिए औद्योगिक संबंध संहिता 2019 को लेकर आ रही थी तो अध्यादेश का रास्ता क्यों अपनाया गया। वह संहिता लोकसभा में पेश हो चुकी है और उस पर संसदीय समिति विचार कर रही है। 

दूसरी ओर श्रम कानूनों की मुअत्तली को संविधान की भावना के प्रतिकूल बताने वाले फैजान मुस्तफा भी वास्तव में श्रम सुधारों के पक्षधर हैं। वे भी नहीं चाहते कि इतने सारे कानून रहें। हालांकि वे संविधान के मौलिक अधिकारों और नीति निर्देशक तत्वों का हवाला देकर श्रमिकों की बराबरी की बात करते हैं। इस समय देश में 200 श्रम कानून राज्यों के हैं और 50 श्रम कानून केंद्र सरकार के हैं। चूंकि श्रम का मामला समवर्ती सूची में आता है इसलिए इस पर केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं और राज्य को केंद्र के कुछ कानूनों को लागू करना अनिवार्य होता है। कुछ को राज्य अपनी स्थितियों के मुताबिक संशोधित करके लागू करते हैं। 

श्रम कानूनों को चार श्रेणियों में बांटा जा सकता है। एक वे हैं तो काम की स्थितियों को तय करते हैं। जैसे फैक्ट्री एक्ट 1948, कांट्रेक्ट लेबर एक्ट 1970, शाप्स एंड इस्टैब्लिसमेंट एक्ट। दूसरी श्रेणी उन कानूनों की है जो वेतन और पारिश्रमिक तय करते हैं। जैसे न्यूनतम वेतन अधिनियम 1948, वेतन भुगतान अधिनियम 1936 । तीसरी श्रेणी है सामाजिक सुरक्षा की जिसमें एम्प्लाइज प्राविडेंट फंड एक्ट 1952, वर्क मैन कंपनसेशन एक्ट 1923, ईएसआई अधिनियम 1948 । चौथी श्रेणी है रोजगार सुरक्षा और औद्योगिक संबंधों कीः—इसमें औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 और औद्योगिक प्रतिष्ठान अधिनियम 1946 आते हैं। 

देश में ज्यादातर राजनीतिक दलों और बौद्धिकों को नवउदारवाद में गहरा विश्वास है। इसलिए वे देश में लंबे समय के संघर्ष के बाद हासिल किए गए इन श्रम कानूनों को जटिल, औद्योगिक तरक्की में बाधक बताते हैं। उनका मानना है कि इस मंदी के दौर से अगर निकलना है और औद्योगिक विकास को बढ़ाना है तो इन कानूनों को हटाना ही होगा। ताकि उद्यमियों को काम करने में किसी प्रकार की अड़चन न हो। कुछ लोगों का तो कहना है कि इससे उपयुक्त समय हो ही नहीं सकता श्रम कानूनों को हटाने का। 

लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह है कि श्रम कानूनों के हटने से मजदूरों के शोषण के अनुकूल वातावरण निर्मित होगा। वेतन नीचे आएंगे और मजदूरों की सामाजिक असुरक्षा बढ़ेगी। उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। वैसे ही इस बीच ज्यादातर प्रतिष्ठान संविदा पर मजदूर रख नहीं रहे हैं। देश की सबसे बड़ी ट्रेड यूनियन भारतीय मजदूर संघ ने इसका विरोध किया है और कहा है कि जिन राज्य सरकारों ने कानून खत्म किया है वे इस बात को सिद्ध नहीं कर पा रही हैं कि इससे औद्योगिक तरक्की होगी। दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी इन कानूनों को खत्म किए जाने का विरोध किया है।

लेकिन विडंबना यह है कि बीएमएस जिस भाजपा का हिस्सा है उसकी सरकारें कानूनों को खत्म कर रही हैं और कांग्रेस पार्टी की राज्य सरकारें भी पीछे नहीं हैं। ऐसे में किस पर यकीन किया जाए। मजदूरों की लड़ाई निरंतर कठिन होती जा रही है। महामारी के इस दौर में उन पर चौतरफा मार पड़ी है। लेकिन अर्थव्यवस्था की सेहत श्रम कानूनों का आहार करने से सुधरेगी ऐसा लगता नहीं। न ही मजदूरों की मौत से भारत आत्मनिर्भर बनेगा। अगर मजदूरों की सेहत ठीक नहीं रहेगी और वे जीने लायक कमाएंगे नहीं तो उत्पादन कैसे बढ़ाएंगे? सरकार और उद्यमियों की यह गलतफहमी न मजदूरों के लिए ठीक है और न ही मालिकों के लिए।

(अरुण कुमार त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार हैं। आप वर्धा स्थित हिंदी विश्वविद्यालय और भोपाल स्थित माखन लाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय में अध्यापन का भी काम कर चुके हैं।)

अरुण कुमार त्रिपाठी
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अरुण कुमार त्रिपाठी