तो क्या वे मौतें ‘नजरों का धोखा’ थीं?

मरो भूख से, फौरन आ धमकेगा थानेदार/लिखवा लेगा घरवालों से-’वह तो था बीमार’/अगर भूख की बातों से तुम कर न सके इंकार/फिर तो खायेंगे घर वाले हाकिम की फटकार/ले भागेगी जीप लाश को सात समुन्दर पार/अंग-अंग की चीर-फाड़ होगी फिर बारंबार/मरी भूख को मारेंगे फिर सर्जन के औजार/जो चाहेगी लिखवा लेगी डॉक्टर से सरकार/जिलाधीश ही कहलायेंगे करुणा के अवतार/अंदर से धिक्कार उठेगी, बाहर से हुंकार/मंत्री लेकिन सुना करेंगे अपनी जय-जयकार/सौ का खाना खायेंगे, पर लेंगे नहीं डकार।

बाबा नागार्जुन ने 1955 में यह कविता रची तो देश में सबका पेट भरने भर को अनाज पैदा नहीं होता था और अखबारों में प्रायः भूख से मौतों की खबरें आया करती थीं। चूंकि वे खबरें नव स्वतंत्र देश की सरकारों पर कलंक की तरह चस्पां होतीं और इस तल्ख हकीकत के सामने ला खड़ा करती थीं कि देशवासियों को बड़े-बड़े सपने तो दिखाती हैं, लेकिन भरपेट भोजन तक मुहैया नहीं करा पातीं, इसलिए उनके आते ही वे उन्हें ढकने-तोपने में लग जाती थीं। अपने डॉक्टरों व थानेदारों की रिपोर्टों की बिना कभी कहती थीं कि मरने वाला भूख से नहीं बीमारी से मरा और कभी यह कि उसने कुपोषण से जान गंवाईं। जैसे कि उसे बीमारी और कुपोषण से बचाने का दायित्व किसी और सरकार के पास हो! 

यह कविता मुझे गत गुरुवार को तब बहुत याद आई, जब उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार कोरोना की दूसरी लहर के दौरान आक्सीजन की कमी से मौतों के संदर्भ में इसे नये सिरे से सार्थक करती नजर आई और लगा कि तब से अब तक अनेक बार सरकारें बदलकर भी देशवासी उनके असंवेदनशील सलूक की अपनी नियति नहीं बदल पाये हैं। 

दरअसल, कांग्रेस के विधान परिषद सदस्य दीपक सिंह ने प्रश्नकाल में सदन में पूछा था कि उक्त लहर के दौरान प्रदेश में ऑक्सीजन की कमी से कितने व्यक्तियों की मौत हुई तो स्वास्थ्य मंत्री जयप्रताप सिंह ने जवाब दिया कि सरकार के पास उस दौरान ऑक्सीजन की कमी से किसी एक भी व्यक्ति की मौत की सूचना नहीं है यानी प्रदेश में ऑक्सीजन की कमी से कोई मौत हुई ही नहीं। 

इस पर दीपक सिंह ने उन पर गलतबयानी का आरोप लगाया और पूछा कि क्या दूसरी लहर के दौरान सरकार के कई मंत्रियों तक ने जो पत्र लिखे कि प्रदेश में ऑक्सीजन की कमी के कारण मौतें हो रही हैं, वे झूठे थे? इस सम्बन्धी कई सांसदों द्वारा की गई शिकायतें भी झूठी थीं? और क्या प्रदेश सरकार ने अस्पतालों के अन्दर-बाहर ऑक्सीजन की कमी से तड़पते लोगों व बाद में गंगा और दूसरी नदियों में उतराती उनकी लाशों को भी नहीं देखा? इस पर स्वास्थ्य मंत्री ने जो दलील दी, वह बाबा नागार्जुन की ‘जो चाहेगी लिखवा लेगी डॉक्टर से सरकार’ वाली पंक्ति को शत प्रतिशत सार्थक करने वाली थी। 

उन्होंने बेहद ‘मासूमियत’ से बताया कि अस्पताल में भर्ती मरीज की मौत होने पर डॉक्टर उसके परिजनों को मृत्यु का प्रमाण पत्र देते हैं और प्रदेश में अब तक कोरोना से जिन 22,915 मरीजों की मृत्यु हुई है, उनमें से किसी के भी मृत्यु प्रमाण पत्र में किसी डॉक्टर ने कहीं भी ऑक्सीजन की कमी से मौत होने का जिक्र नहीं किया है। यहां तक कि जो पारस हॉस्पिटल उन दिनों आक्सीजन सप्लाई रोककर की गई मौतों की मॉक ड्रिल के वायरल हुए वीडियो को लेकर बहुत चर्चित रहा था, वहां भी मृत्यु प्रमाणपत्रों में ऑक्सीजन की कमी से किसी संक्रमित की मृत्यु का जिक्र नहीं है। होता भी कैसे? स्वास्थ्यमंत्री ने दावा किया कि तब सरकार ने दूसरे प्रदेशों से लाकर ऑक्सीजन की पर्याप्त व्यवस्था कर दी थी। इसलिए कोरोना संक्रमितों की मौतें आक्सीजन की कमी से नहीं बल्कि अन्य विभिन्न असाध्य बीमारियों व रोगों की वजह से हुईं।

उनके इस दावे को इस तथ्य से मिलाकर देखें कि केन्द्र सरकार व कई दूसरे राज्यों की सरकारें पहले ही कह चुकी हैं कि जब कोरोना की दूसरी लहर कहर बरपा रही थी, उनके द्वारा शासित क्षेत्रों में आक्सीजन की कमी के कारण किसी संक्रमित की मौत नहीं हुई, तो कई सवाल जेहन में आते और जवाब की मांग करते हैं। सबसे बड़ा यह कि क्या उन दिनों आक्सीजन की कमी से हाहाकार मचने और मौतें होने की मीडिया में आई सारी की सारी रिपोर्टें और तस्वीरें वगैरह हमारी ‘नजरों का धोखा’ यानी सरासर झूठी थीं? उस दौरान आक्सीजन की कहीं कोई कमी नहीं थी, तो जो लोग टेलीविजन चैनलों के परदों पर व सोशल मीडिया के वीडियो वगैरह में कई-कई गुनी कीमतों पर आक्सीजन सिलेंडरों की जुगत में दिन-दिन भर लाइन लगाये खड़े रहने को अभिशप्त दिखे, वे ऐक्चुअल न होकर वर्चुअल या आभाषी थे? अगर मृत्यु प्रमाण पत्रों में ऑक्सीजन की कमी से मौत का उल्लेख न होने भर से मान लिया जायेगा कि उसकी कमी से कहीं कोई नहीं मरा तो उन मौतों के सिलसिले में कौन-सा दृष्टिकोण अपनाया जायेगा, जो हुईं तो कोरोना से ही, लेकिन मृत्यु प्रमाणपत्रों में इसका उल्लेख नहीं है।  

इससे भी बड़ा सवाल यह है कि अगर आक्सीजन की कमी की कोई समस्या ही नहीं थी तो इसे लेकर केन्द्र व राज्य सरकारों में आरोप-प्रत्यारोप क्यों हो रहे थे, ऐसे कई मामले सर्वोच्च न्यायालय क्यों कर पहुंचे थे और क्यों सर्वोच्च न्यायालय को उनमें दखल देना पड़ा था? फिर दूसरी लहर के बाद देश भर में आक्सीजन के नये संयंत्र लगाने की पहलें क्यों शुरू की गईं? 

मुश्किल यह कि एक तो सरकारों के पास इन सवालों के जवाब नहीं हैं, दूसरे वे दल और विचारधारा का भेद किये बिना ऑक्सीजन की कमी से मौतों को लेकर इस अन्दाज में गलतबयानी कर रही हैं जैसे कवयित्री परवीन शाकिर के शब्दों में उनका इरादा झूठ बोलकर ला-जवाब कर देने और सच बोलने वालों को हरा देने का हो। सो भी, जब उक्त मौतों की खबरें, वीडियो व तस्वीरें अभी इतनी पुरानी नहीं पड़ी हैं कि याददाश्त से पूरी तरह बाहर हो जायें। अभी भी एक क्लिक पर अनेक ऐसी सामग्रियां सामने आ सकती हैं जो बता सकें कि दूसरी लहर के दौरान आक्सीजन की भयंकर कमी थी और उसके कारण मरने वाले कोरोना पीड़ितों की संख्या किसी भी अन्य कारण से मरने वालों से ज्यादा थी। 

सरकारों द्वारा मौतों का यह नकार सच पूछिये तो उन सारे लोगों के जले पर नमक छिड़कने जैसा है, जिन्होंने उन कठिन दिनों में अपनी आंखों के सामने अपने परिजनों व प्रियजनों को आक्सीजन के अभाव में तड़प-तड़पकर जानें गंवाते देखा। सवाल है कि क्या इस तरह ये सरकारें हम सबकी आंखों में धूल झोंककर इन मौतों के सच पर एकदम से परदा डाल देने में सफल हो जायेंगी? या जैसा कि एक नारा भी चल पड़ा है, इनका किया धरा सब-कुछ याद रखा जायेगा और जब वे फिर से जनादेश मांगने के लिए हमारे सामने आयेंगे, उन्हें सच का आईना दिखाकर हिसाब-किताब बराबर कर लिया जायेगा? 

(कृष्ण प्रताप सिंह दैनिक अखबार जनमोर्चा के संपादक हैं।)

कृष्ण प्रताप सिंह
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