क्या यूपी में योगी हिंदुत्व का चेहरा नहीं होंगे?

इन दिनों देश का मीडिया, खासकर उत्तर प्रदेश का, इस बहस में उलझा हुआ है कि योगी आदित्यनाथ को आरएसएस और बीजेपी वाले आने वाले चुनावों में अपना चेहरा बनाएंगे या नहीं। मौजूदा बहस इसी का एक उदाहरण है कि भारत का मीडिया, जो अब गोदी मीडिया के नाम से बेहतर जाना जाता है, किस तरह गलत सवालों को केंद्र में लाकर असली मुद्दों से लोगों का ध्यान भटकाने में माहिर है। यह जानना मुश्किल है कि मीडिया ने अपनी बुद्धि से यह बहस शुरू की है या इसे संघ-बीजेपी के रणनीतिकारों ने तय किया है।

पिछले दिनों देश ही नहीं विदेशी मीडिया में गंगा में तैरती लाशों और रेत में दबी लाशों से कफन खींचने की तस्वीरें छाई हुई थीं। कुछ चैनलों के साहसी पत्रकार तथा सोशल मीडिया के जरिए लोगों की आवाज उठा रहे पत्रकार तथा गैर-पत्रकार राज्य की चरमरा गई स्वास्थ्य व्यवस्था से हंसते-खेलते परिवारों के उजड़ने की दर्दभरी कहानियां दुनिया के सामने ला रहे थे। बेरोजगारी तथा आर्थिक तंगी से बेहाल हो रहे जीवन की कथा भी मीडिया की चर्चा का हिस्सा बन रही थी। ऐसे में, ये सुर्खियां आने लगीं कि केंद्रीय नेतृत्व योगी जी से नाराज है और वह इस पर गंभीरता से विचार कर रहा है कि आने वाले विधान सभा चुनावों में उन्हें चेहरा बनाया जाए या नहीं। इन सुर्खियों ने उन खबरों से लोगों का ध्यान हटा दिया है जिनके जवाब योगी-मोदी तथा संघ के पास नहीं थे। यह बताने की जरूरत भी है कि कोरोना की बदइंतजामी में योगी-मोदी तथा बीजेपी सम्मिलित रूप से जिम्मेदार हैं। अगर आक्सीजन की कमी, वैक्सिनेशन लगाने में हुई देरी तथा कोरोना पर विजय पाने की झूठी घोषणा के लिए मोदी जिम्मेदार हैं तो अस्पताल की कुव्यवस्था,  लोगों को मरने देने के लिए छोड़ देने और पार्थिव शरीर के अंतिम संस्कार की परवाह नहीं करने के जिम्मेदार योगी आदित्यनाथ हैं।

हम जरा मीडिया में प्रचारित इस योगी-मोदी भेद तथा आरएसएस-भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व की कथित नाराजगी की चीरफाड़ कर लें। अव्वल तो यह समझ लें कि यह केंद्रीय नेतृत्व का अर्थ क्या है। अगर सतही तौर पर देखेंगे तो भाजपा का नेतृत्व जेपी नड्डा तथा अन्य पदाधिकारी नजर आएंगे। लेकिन किसे नहीं पता है कि भाजपा की कमान अमित शाह के हाथों में है और वे नरेंद्र मोदी के आदेश तथा मशविरे के बाद ही कुछ करते हैं। संघ का अंतिम फैसला मोहन भागवत के हाथ में है।

अब देखें कि कोराना काल में यह नेतृत्व क्या कर रहा था। एक बात जिस पर मीडिया खामोश रहता है वह है कोरेना काल में बेरोकटोक चल रहे हिंदुत्व का अभियान। कोरोना के मरीजों की तेजी से बढ़ती संख्या के बीच पांच अगस्त, 2020 को अयोध्या में नरेंद्र मोदी, योगी आदित्यनाथ और मोहन भागवत ने राम जन्मभूमि पूजन किया जिसे आजाद भारत के इतिहास में इसलिए याद रखा जाएगा कि देश के प्रधानमंत्री तथा राज्य के मुख्यमंत्री ने मिल कर किसी धर्म विशेष के पूजागृह की नींव रखी। अखबारों ने यह छापा भी कि हिंदुत्व के इस खुले उद्घोष में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तथा देश के प्रधानमंत्री किस तरह एकमत थे।

भाजपा के इस हिंदुत्व-अभियान के तहत अयोध्या का दीपोत्सव हुआ जिसमें साढ़े पांच लाख दीप जला कर विश्व रिकार्ड बनाया गया। इसी अभियान को जारी रखते हुए हरिद्वार में कुंभ स्नान हुआ जिसके लिए उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने लोगों को खुला आमंत्रण दिया। प्रधानमंत्री के आशीर्वाद से चल रहे यह आयोजन उस समय जारी रहा जब कोरोना की दूसरी लहर कहर बरपा रही थी।

कोरोना काल में मोदी तथा योगी सिर्फ हिंदुत्व के धार्मिक अभियान को ही साथ-साथ नहीं चला रहे थे बल्कि इसके राजनीतिक रथ को भी मिल कर खींच रहे थे। योगी बिहार विधान सभा से लेकर हैदराबाद महानगरपालिका के चुनावों में कट्टर हिंदुत्व का चेहरा बन कर घूमते रहे। फिर कोरोना की चढ़ती लहर में बंगाल के चुनावों में वहां का चक्कर लगाते रहे। एक कमजोर अर्थव्यवस्था, अशिक्षा तथा बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था वाले प्रदेश का मुख्यमंत्री कोरोना काल की कठिन परिस्थितियों में यह सब कर रहा था, लेकिन न तो उसे आरएसएस और न ही भाजपा के नेतृत्व ने उसे ऐसा करने से रोका। वे ऐसा करते भी कैसे क्योंकि वे भी यही कर रहे थे। वही नेतृत्व आने वाले विधान सभा चुनावों में विजय पाने के लिए एक नई कहानी सुना रहा है कि मुख्यमंत्री योगी के कामकाज से वह नाराज है। ताकि लोगों को भ्रम हो जाए कि योगी नहीं होते तो प्रधानमंत्री मोदी लोगों को कष्ट से उबार लेते।

संघ के इशारे पर मीडिया एक और किस्सा बता रहा है कि मोदी-शाह तो योगी को चाहते भी नहीं थे, लेकिन उन्हें संघ के दबाव में बनाना पड़ा। इसके साथ ही यह भी बताया जा रहा है कि योगी तो कभी आरएसएस में थे ही नहीं, वह तो हिंदू वाहिनी चलाते थे जिसका संघ के साथ रिश्ता नहीं था। अगर यह सच है तो इससे यही जाहिर होता है कि सत्ता पाने के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं, किसी को अपना नेता बना सकते हैं और उसे नेता के रूप में देश भर में घुमा सकते हैं।

इन कहानियों का मतलब यही है कि संघ तथा भाजपा वाले कोरोना काल में लोगों की जानमाल से ज्यादा चुनाव जीतने तथा राज्यों की सत्ता हथियाने में अपनी ताकत तथा पैसा लगाने के अपराध से खुद को मुक्त करने के लिए छटपटा रहे हैं। वे मोदी तथा योगी का भेद बता कर उत्तर प्रदेश की जनता को भरमाना चाहते हैं।

क्या योगी को बलि का बकरा बनाया जा सकता है और कोरोना काल में लोगों की जिंदगी बचाने के लिए कुछ नहीं करने का दोष उन पर मढ़ कर वे अपने को बचा सकते हैं? इसमें कोई संदेह नहीं है कि जरूरत पड़ने पर संघ ऐसा करने से हिचकेगा नहीं। उसने पहले भी लालकृष्ण आडवाणी के साथ ऐसा किया है और भाजपा को अपनी पूरी जिंदगी सौंपने वाले नेताओं को हाशिए पर डाल कर नरेंद्र मोदी को अपना नेता बनाया। उसने पूरी की पूरी पार्टी मोदी-शाह के हाथों में सौंप दी। लेकिन योगी के साथ यह कहानी दोहराने में व्यावहरिक कठिनाइयां हैं। कट्टर हिंदुत्व का चेहरा बन गए योगी की इस हैसियत को छीनने के लिए थोड़े समय की जरूरत है। इतने नजदीक आ गए चुनाव के समय ऐसा संभव नहीं दिखाई देता है। सिर्फ मोदी के चेहरे पर चुनाव जीतना संभव नहीं होगा क्योंकि उनकी खुद की छवि बहुत बिगड़ चुकी है।  

आखिर सत्ता विरोधी लहर से बचने के लिए और क्या किया जा सकता है? पहले तो लोगों की नाराजगी को दूर करने के लिए वे राहत के कुछ कदम उठाएंगे। उनकी दूसरी कोशिश समाजवादी पार्टी के शासन से असंतुष्ट हुए समुदायों तथा पार्टियों के नेताओं को किसी न किसी तरह अपनी ओर लाने की होगी। इसमें बहन मायावती की पार्टी भी शामिल है। वे नए उम्मीदवारों को टिकट देकर नए वायदे करेंगे।
लेकिन उनका असली हथियार सांप्रदायिक नफरत है। वे अपने हथियार को फिर से आजमाने का रास्ता ढूंढेंगे। कोरोना की महामारी ने सभी समुदाय के लोगों को सरकारी उपेक्षा का दर्शन करा दिया है। दर्द का एक रिश्ता अनजाने ही बन गया है। अपने परिजनों, पड़ोसियों तथा गांव वालों को श्मशान तथा कब्रिस्तान भेज-भेज कर उनका दिल भर गया है। आंसू से भरी आंखों में नफरत के डोरे उगाना आसान नहीं होगा।

(अनिल सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

अनिल सिन्हा
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