कोविड की विनाशकारी दूसरी लहर को समझ पाने में किस चीज ने भारत सरकार की आंखों पर डाल दिया पर्दा?

(कोविड की विनाशकारी दूसरी लहर को समझ पाने के मामले में किस चीज ने सरकार की आंखों पर  डाल दिया? इस दुर्गति के मुख्य कारण हैं अंध राष्ट्रवाद, कुछ ही लोगों के हाथों में सत्ता का संकेंद्रण और हिंदुत्ववादी चिकित्सा पद्धति के प्रति आशक्ति )

आखिर मोदी सरकार कोविड महामारी की दूसरी लहर और उसके विनाशकारी प्रभावों का अनुमान लगाने में विफल क्यों रही है? इसकी कुछ व्याख्याएं तो बिल्कुल स्पष्ट हैं। इनमें से एक कारण है, कुछ ही लोगों के हाथों में सत्ता का संकेंद्रण, जो कि पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार में व्यस्त थे। सत्ता का यह केंद्रीकरण न केवल संघवाद की कीमत पर किया गया था, बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि सभी संबद्ध नौकरशाह और विशेषज्ञ या तो “हां जी” प्रकृति के थे या उनकी बातों को सुना ही नहीं गया।

उनकी बातों को न सुने जाने का एक कारण तो यह है कि हमारे शासक राष्ट्रवाद के कैदी थे। जनवरी में, नरेंद्र मोदी ने दावोस की सालाना बैठक के संदर्भ में कहा: “हमने कोरोनो वायरस के खिलाफ लड़ाई को एक जन आंदोलन में बदल दिया और आज भारत लोगों का जीवन बचाने के मामले में सबसे सफल देशों में से एक है … जबकि भारत निर्मित दो टीके पहले ही दुनिया के सामने पेश किए जा चुके हैं, अभी भारत के पास देने के लिए और भी बहुत कुछ है। …हमने दुनिया को रास्ता दिखाया कि कैसे भारत की पारंपरिक चिकित्सा, आयुर्वेद, प्रतिरोधक क्षमता में सुधार करने में मदद कर सकती है। आज भारत कई देशों को अपने टीके भेज रहा है और सफल टीकाकरण के लिए बुनियादी ढांचे को विकसित करने में मदद कर रहा है, इससे उन देशों के नागरिकों की जान बच रही है।” 

यह भाषण तीन दृष्टिकोणों से अंध-राष्ट्रवाद के एक रूप को दर्शाता है। सबसे पहले, मोदी ने डींग हांकते हुए, जोर देकर कहा कि भारत ने कोविड -19 के खिलाफ लड़ाई जीत ली है, जबकि अन्य देश अभी भी उससे जूझ रहे हैं। वह मार्च तक इसी सोच पर डटे हुए थे, जबकि दूसरी लहर फरवरी के अंत में ही शुरू हो चुकी थी। क्या वे विशेषज्ञों से नियमित परामर्श कर रहे थे? शायद नहीं, क्योंकि सरकार को सलाह देने के लिए 2020 में गठित कोविड-19 पर राष्ट्रीय वैज्ञानिक कार्यबल की 11 जनवरी से 15 अप्रैल के बीच कोई बैठक ही नहीं हुई थी।

दूसरा, जो कि अति-राष्ट्रवाद से ही जुड़ा हुआ है, पारंपरिक हिंदू चिकित्सा पद्धति का दंभयुक्त संदर्भ देने में दिखता है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन एक कदम और आगे बढ़ गए जब उन्होंने कोरोनिल को कोविड-19 के खिलाफ एक प्रभावी दवा के रूप में समर्थन दिया। फरवरी 2021 में बाबा रामदेव ने हर्षवर्धन की उपस्थिति में कोरोनिल का शुभारंभ किया, और उनके मंत्रालय ने इसे प्रमाणित भी किया था। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने एक विज्ञप्ति के माध्यम से इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की: “देश के स्वास्थ्य मंत्री होते हुए, आपके द्वारा इस तरह के झूठे, गलत तथ्यों के आधार पर गढ़े हुए, अवैज्ञानिक उत्पाद को जारी करना कितना उचित है … क्या आप इस तथाकथित एंटी-कोरोना उत्पाद के क्लिनिकल परीक्षणों का तारीख सहित ब्योरा उपलब्ध करा सकते हैं?”

सरकार ने कई अन्य छद्म उपचारों का भी समर्थन किया। उदाहरण के लिए, इसने पंचगव्य, यानि गाय के दूध, मक्खन, घी, गोबर और मूत्र  से चिकित्सा के क्लिनिकल ​​परीक्षण का भी समर्थन किया। कुछ भाजपा नेताओं ने दावा किया कि गंगा में स्नान करने जैसे पवित्र अनुष्ठानों से प्रतिरोधक क्षमता प्राप्त होती है। अप्रैल में, जबकि दूसरी लहर तेज हो रही थी, कुंभ मेले के लिए लाखों तीर्थयात्री हरिद्वार में इकट्ठा हुए। अंत में, एक सप्ताह के बाद, मोदी ने ट्वीट करके भक्तों से “प्रतीकात्मक” कुंभ करने का आह्वान किया, क्योंकि जान बचाना भी “पवित्र” कार्य है।

तीसरा, मोदी सरकार का मानना ​​​​था कि भारत अपने टीकों की बदौलत दुनिया को महामारी से बाहर निकाल सकता है। 7 मार्च को, हर्षवर्धन ने घोषणा की: “अधिकांश अन्य देशों के विपरीत, हमारे पास कोविड-19 टीकों के अनवरत आपूर्ति की व्यवस्था है। दुनिया भर में भारत में बने इन टीकों से टीकाकरण के सबसे कम दुष्प्रभाव दिखे हैं। (दरअसल, एस्ट्राजेनेका टीके का ही भारत में नाम कोविशील्ड है। यहां इसे सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया बना रही है। कोवैक्सिन के संबंध में एक विवाद पैदा हो गया था क्योंकि इसे सरकार द्वारा तीसरे चरण के परीक्षणों के डेटा की अनुपस्थिति में ही मंजूरी दे दिया था)।

मोदी सरकार का मानना ​​​​था कि उसके टीकों से उसे एक रोल मॉडल और “दुनिया को रास्ता दिखाने वाले” के रूप में एक नया अंतरराष्ट्रीय रुतबा मिल गया है। इसी वजह से दो स्तरों की टीका कूटनीति की गय़ी। सबसे पहले, भारत संयुक्त राष्ट्र समर्थित कोवैक्स कार्यक्रम का एक प्रमुख सदस्य बन गया, जिससे मध्यम और निम्न-आय वाले देशों को टीकों की 20 लाख खुराकें उपलब्ध कराने की उम्मीद की जाती है। दूसरा, मोदी ने जनवरी में घोषणा की कि भारत अपने दोनों टीके मंगोलिया, ओमान, म्यानमार, फिलीपींस, बहरीन, मालदीव, मॉरीशस, भूटान, अफगानिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश और सेशेल्स को “सद्भावना के प्रतीक” के रूप में मुफ्त में निर्यात करेगा। चार महीनों में, “वैक्सीन मैत्री” पहल के तहत, भारत ने टीकों की 6.44 करोड़ खुराकों का निर्यात किया, जिसमें वाणिज्यिक आधार पर 3.57 करोड़, कोवैक्स कार्यक्रम के तहत 1.82 करोड़ और अनुदान के रूप में 1.04 करोड़ टीके भेजे गये। जबकि उस समय तक भारत में केवल 12 करोड़ लोगों को टीका लग पाया था।

जब दूसरी लहर ने जोर पकड़ लिया तो न केवल भारत को अपना निर्यात रोकना पड़ा, बल्कि उसे विदेशों से सहायता भी स्वीकार करनी पड़ी। क्या भूमिकाओं के इस उलटफेर से पश्चिम में इसकी छवि दुष्प्रभावित होगी? निश्चित रूप से भारत को एक उभरते हुए देश की अपनी छवि को फिर से बहाल करने के लिए पहले खुद आर्थिक रूप से ठीक होना होगा। लेकिन जहां तक ​​अमेरिका और यूरोप की भारत से मुख्य अपेक्षाओं का संबंध है, यानि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन को संतुलित करने की इसकी भूमिका, इस मामले में यह उनका विश्वसनीय भागीदार बना हुआ है। क्योंकि उसके लिए आपको किसी सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की आवश्यकता नहीं है। एक कमजोर भारत, जिसे उनकी ज्यादा जरूरत हो, पश्चिमी देशों के लिहाज से बहुत अच्छा रहेगा, क्योंकि ऐसा देश अपनी सामरिक स्वायत्तता को बनाए रखने की स्थिति में नहीं होगा।

हालांकि, थोड़े समय के लिए, भारत की नाजुक स्थिति पश्चिम के साथ उसके संबंधों को और अधिक जटिल बना सकती है, क्योंकि नई दिल्ली से और अधिक शर्मिंदा करने वाले प्रश्न पूछे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ दिनों पहले, यूरोपीय संसद ने एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें उसने “भारत को, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में, नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा शांतिपूर्ण सभा करने और संगठित होने के उनके अधिकारों के प्रति सम्मान और प्रतिबद्धता दिखाने और उनकी रक्षा करने, तथा भारत-प्रशासित कश्मीर सहित देश के कई हिस्सों से मनमाने ढंग से हिरासत में लिये गये मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों पर हमले बंद करने और उन्हें रिहा करने के लिए कदम उठाने को कहा।”

यहां तक कि इसके बाद हुए यूरोपीय संघ-भारत शिखर सम्मेलन में भी भारत ने उस प्रस्ताव पर सवाल नहीं उठाया और इसके एजेंडे में केवल जलवायु परिवर्तन, व्यापार के साथ-साथ भारत-प्रशांत क्षेत्र में जुड़ाव जैसे कुछ अन्य मुद्दे ही शामिल थे। अंतिम विज्ञप्ति में “90 से अधिक देशों में कोविड -19 टीकों का उत्पादन और वितरण करने के भारत के प्रयासों” की सराहना की गई – जैसे कि उक्त प्रस्ताव में की गयी भारत की खिंचाई से कोई फर्क ही न पड़ा हो। इसके साथ ही फिर से इस अंतिम विज्ञप्ति में भी भारत द्वारा अपने देश में “मानव अधिकारों को बढ़ावा देने के लिए तंत्र को मजबूत करने के महत्व” पर जोर दिया गया। अति राष्ट्रवाद कभी-कभी पलट के खुद को ही घायल कर देता है, और जाहिर है कि ऐसा केवल अपने देश के भीतर के कुप्रबंधन के कारण नहीं होता।

(राष्ट्रवाद के कैदी शीर्षक से ‘इंडियन एक्सप्रेस’ 17.05.2021 में प्रकाशित, —क्रिस्टॉफ जैफ्रेलॉट की लेख, साभार। अनुवाद स्वतंत्र टिप्पणीकार शैलेश ने किया है।)

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