इतने बेबस क्यों हो गए हैं `इलीट-पावरफुल` डॉक्टर

भूखे-बेबस ग़रीबों के पिटते-गिरते काफ़िलों को सब देखते रहे। बहुतेरे एक आश्वस्ति की अनुभूति के साथ और कुछेक ज़रा अफ़सोस के साथ कि इन्हें तो झेलना होता ही है। चलिए, इनकी `क़िस्मत में तो यही बदा है` पर इलीट-पावरफुल डॉक्टर तबके के साथ यह क्या हो रहा है?

कोरोना संकट में नागरिकों के बचाव के लिए आवश्यक प्रबंध करने में असफल प्रधानमंत्री के आह्वान पर आज जब मोमबत्तियां जलाने की तैयारियां चल रही हैं तो मैं सोच रहा हूँ कि मास्क और पीपीई का अभाव झेलते हुए मौत के साये में ड्यूटी करने को मज़बूर डॉक्टर और दूसरे मेडिकल स्टाफ के घरों की बालकनियां भी क्या मोमबत्तियों से जगमगा उठेंगी? क्या उस जनता कर्फ़्यू के दौरान इन घरों में भी थालियां बजाकर `साउंड वाइब्रेशन` में योगदान दिया गया था? मोमबत्तियां जलाने की बात से वे दिन याद आए जब इन्हीं डॉक्टरों के समूह सज-धज कर `रंग दे बसंती` देखते हुए केंडल जला रहे थे और अपने प्रोफेशन के दलित-वंचित तबकों के `साथियों` को ज़लील कर रहे थे।

सत्ता की मशीनरी की मदद से हो रहे कथित प्रतिरोध के उन अश्लील आयोजनों की छवियां पूरे सवर्ण-दबंग तबकों में पॉपुलर हो रही थीं। न्याय और बराबरी के सवाल पर केंडल जलाने वालों को ट्रोल करने वाला मीडिया ग़ैर बराबरी और अन्याय कायम रखने की मुहिम चला रहे डॉक्टरों के साथ खड़ा था। आज हालत यह है कि वही मीडिया इन डॉक्टरों का रोना सुनने को तैयार तक नहीं है। 

इतना तो सभी जानते हैं कि रोहतक पीजीआई (पं. भगवत दयाल शर्मा यूनिवर्सिटी) की कोरोना से जंग में फ्रंटलाइन वॉरियर एक एनस्थीसिया पीजी ने पीपीई और मास्क की मांग को लेकर पीएम को ट्वीट कर दिया था और उसे विपक्ष के नेता राहुल गाँधी ने रीट्वीट कर दिया तो तूफ़ान खड़ा हो गया था। लेकिन उसे अपना ट्वीट डिलीट कर किस तरह सत्ता को राहत देने वाला दूसरा ट्वीट करना पड़ा, वह इनसाइड स्टोरी मीडिया में नदारद रही। रोहतक के अख़बारों के स्थानीय संस्करणों से भी जिनके पास अलग से पीजीआई रिपोर्टर्स हैं और जो वहाँ की भीतर-बाहर की हर हलचल से वाकिफ़ रहते हैं।

जो लोग मेडिकल एजुकेशन की दुनिया से थोड़ा सा भी परिचित हैं, वे जानते हैं कि एक पीजी का भविष्य किस तरह अपने गाइड के रहमोक़रम पर निर्भर रहता है। इसी तरह सीनियर/जूनियर रेजिडेंट डॉक्टर्स, नर्सेस, वॉर्ड बॉएज मेडिकल एजुकेशन के ऊपरी पायदानों पर बैठे प्रोफेसर्स, असिस्टेंट प्रोफेसर्स वगैरह सीनियर्स के मुक़ाबले ज़्यादा वलनरेबल होते हैं और हर आपदा में फ्रंट पर रहने के लिए मज़बूर रहते हैं। आमतौर पर नाइट ड्यूटी का सीनियर डॉक्टर घर पर (ऑन कॉल) होता है और पीजीज को हिदायत होती है कि कोई बड़ा तूफ़ान आ जाने की सूरत में ही उसे डिस्टर्ब किया जाए लेकिन इमरजेंसी एक्सरे वगैरह तक के लिए ज़रूरी दस्तख़त के लिए सीएमओ को भी तलाशना मुश्किल हो जाता है कि वह कहाँ सो रहा है।

कोरोना आपदा में जो वीडियोज वायरल हो रहे हैं, उनमें रोते-बिलखते सबसे ज़्यादा मेडिकलकर्मी वही हैं जिन्हें मरीज़ के सबसे ज़्यादा संपर्क में रहना पड़ रहा है। सवाल यह है कि पीपीई और मास्क उपलब्ध कराने की जेनुइन और आपात ज़रूरत को लेकर सामूहिक स्वर क्यों नहीं हैं? मेडिकल कचरा उठाने वाले सफाई कर्मचारियों के लिए तो कोई शब्द तक नहीं। सवाल है कि सीनियर डॉक्टर्स जो मेडिकल कॉलेजों/अस्पतालों के प्रशासनिक अधिकारी भी होते हैं, क्यों इस मसले पर आवाज़ उठाने वालों को ही धमकाकर चुप कराने की कोशिश करने लगते हैं?

मैं जानता हूँ कि मेरे जैसे जिस भी रिपोर्टर को जिलों के अस्पतालों से लेकर मेडिकल यूनिवर्सिटी की कवरेज का मौका मिला है, उस का वास्ता दलित-वंचित-ग़रीब मरीज़ों और उनके परिजनों के साथ डॉक्टरों के आक्रामक रवैये, इस वजह से मचे बवालों, डॉक्टरों व पूरे मेडिकल स्टाफ की हड़तालों और अंतत: मरीजों के परिजनों की गिरफ्तारियों से ज़रूर पड़ा होगा। सोचता हूँ कि वर्ग, वर्ण और प्रोफेशन के लिहाज से यह इलीट-पावरफुल तबका आज इतना बेबस क्यों है? एक तो शायद इस वजह से कि सामूहिक आवाज़ों के अभाव के दौर में हर कोई गिरते को गिरता देखते हुए सिर्फ़ ख़ुद को बचाने की कोशिश से ज़्यादा कुछ करने के लिए तैयार नहीं है। दूसरे यह कि जिस शक्ति ने उसकी आवाज़ को बंद कर दिया है, वह उसके मन की ही चीज़ है। उसे इस तरह की अपराजेय सी शक्ति बनाने में इस तबके ने बढ़-चढ़कर योगदान दिया है। कमज़ोर तबकों पर निरंकुश दमन में अपने हित और आनंद तलाशता रहा यह तबका आज ख़ुद उस दमनकारी शक्ति के सामने सरेंडर करने से ज़्यादा कुछ सोच नहीं पा रहा है।

एक शक्तिशाली समूह की विवशता की एक बड़ी वजह उसके अपराध भी हो सकते हैं। नरेंद्र मोदी इस वर्ग का हीरो रहा है और भाजपा उसके मन की पार्टी। लोकतांत्रिक संस्थाओं और सार्वजनिक संस्थाओं-संसाधनों पर हमले हों या अल्पसंख्यकों और दलितों के दमन के अभियान, यह तबका हमेशा संतुष्ट भाव में रहा। अपनी गाड़ी, फ्लैट, बैंक बैलेंस के लिए चिंतित रहने वाला यह तबका स्वास्थ्य बजट में कटौती या रिसर्च को लेकर अनदेखी जैसी बातों से भी कभी विचलित होता नहीं दिखाई दिया। वह उच्च व मध्य वर्ग की उस मानसिकता का प्रतिनिधित्व करते हुए आश्वस्त होता रहा कि आरक्षण जैसे सामाजिक बराबरी के आधे-अधूरे प्रबंधों पर प्रहार और ग़रीबों की बढ़ती असहायता में ही उसके सुनहले भविष्य की गारंटी छुपी हुई है।

इस नाते आज भी यह तबका मौत का साया सिर पर होने के बावजूद थोड़ा-बहुत रोकर और अपने बीच के साथियों को संक्रमित होते देखकर भी शायद ही उन नीतियों के नियंताओं को हिकारत से देखने की स्थिति में हो जिनकी वजह से अभूतपूर्व विकास के शोर के बावजूद सरकारी अस्पतालों में सामान्य व्यवस्थाएं तक नहीं हैं। मौके का फायदा उठाकर शेयर खरीद लेने जैसी `समझदारी भरी चर्चाओं` में गाफिल रहा यह तबका अब `सरकार बेचारी के पास पैसा नहीं है` या `अकेले मोदी जी क्या करें` जैसे झूठ के सहारे ख़ुद को तसल्ली देकर ख़ुद पैसा जुटाकर पीपीई खरीदने के जुगाड़ में जुट जाता है और अंतत: अपने लिए उठ रही जेनुइन आवाज़ों को ही ट्रोल करने वाली आईटी सेल के हेट-कम्युनल मैसेजेज को फॉरवर्ड करने लगता है।

यहाँ उन सर्वज्ञात तथ्यों को दोहराना ज़रूरी नहीं है जो इस बात का प्रमाण हैं कि जन स्वास्थ्य को लेकर सरकार की बेरुखी भारत में कोरोना का पहला मरीज़ आने के बाद भी जारी रही। न ही यह बताने की कि `अकेले मोदी जी` और उनकी विशाल पार्टी के नेता पिछले दो-तीन महीनों में क्या कर रहे थे, किसके लिए भीड़ जुटा रहे थे, क्या बयान दे रहे थे, कहाँ सरकार बना-गिरे रहे थे। `बेचारी सरकार के पास पैसा नहीं है` जैसे मासूम झूठ के जवाब के लिए उन ग़ैर ज़रूरी कारनामों की फेहरिस्त गिनाने की भी कोई ज़रूरत नहीं है जिन पर सरकार बेशुमार दौलत खर्च करती रही। दूर की छोड़िए, इसी संकट के दौरान नई संसद और सेंट्रल विस्टा से लेकर कुंभ के लिए करोड़ों के बजट स्वीकृत किए ही जा रहे हैं।    

बहरहाल, डॉक्टरों और मेडिकल स्टाफ का यह संकट अकेला उनका संकट नहीं है। यह हिन्दुस्तान की उन विशाल आबादियों से जुड़ा संकट है जिनके जीने-मरने के सवालों को उदारवादी-फासिस्ट सरकारें हाशिये पर डालती चली गईं। निष्कवच डॉक्टरों और मेडिकल स्टाफ की अपने प्रशासन या सरकार को लिखी जा रही चिट्ठियां, उनके रोते-बिलखते वीडियो, उनके संक्रमित होते जाने की ख़बरें हमारी कमबख़्तियों का हिस्सा हैं। उन सभी की सदा जो धनपशुओं के होटलनुमा अस्पतालों में नहीं घुस सकते हैं।

इसे प्रधानमंत्री द्वारा की गई अचानक `सुविचारित` लॉक डाउन की घोषणा के बाद कारखानों और किराये के दड़बों से लतिया दिए गए लोगों की बात न समझिए, एक ग़रीब वैश्य लड़के की बेहतर इलाज के लिए गुहार वाली वीडियो क्लिप देख लेने से विचलित होकर ही मैं अचानक यह सब लिखने के लिए मज़बूर हो रहा हूँ। मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत भरे वॉट्सएप ठेलने में मुब्तिला सवर्ण, दबंग, ओबीसी की ग़रीब आबादियों का भविष्य इन्हीं सरकारी अस्पतालों और इनके डॉक्टरों के भविष्य पर टिका हुआ है। असल में, सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को मज़बूत करने और होटलनुमा अस्पतालों का अधिग्रहण कर सब के लिए एक जैसी स्वास्थ्य सेवा की मांग करने में। लेकिन, पहले यह तय करना होगा कि धर्मस्थल और मूर्तियां ज़रूरी हैं या स्कूल-अस्पताल? नफ़रत की नशा ज़रूरी है या अपने सवालों को पहचानने की होश?

(धीरेश सैनी जनचौक के रोविंग एडिटर हैं।)

धीरेश सैनी
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