झूठजीवी सरकार क्यों नहीं बोल पा रही है एक और झूठ?

यह झूठजीवी सरकार है। खम ठोक कर कह सकती थी कि उसने और उसकी किसी एजेंसी ने या उसकी पार्टी की अगुवाई वाली किसी राज्य सरकार ने भी कभी पेगासस स्पाईवेयर नहीं खरीदा। आखिर महाराष्ट्र के उसके पूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडनवीस ने कहा ही है कि 23 नवम्बर, 2019 को मुंह अंधेरे जब वह राजभवन में सीएम पद की शपथ ले रहे थे, एनसीपी नेता अजित पवार के औचक और चंद घंटों में ही फर्जी साबित हो गये समर्थन से नयी सरकार बना रहे थे, उससे सप्ताह भर पहले ही राज्य के अधिकारियों का एक दल ‘खेती और फार्म टेक्निक्स का अध्ययन करने’ के लिये इजरायल पहुंच चुका था। अब मराठवाड़ा और विदर्भ में खेती-किसानी का जो संकट है, उसे दूर करने के लिये सरकार गठन का या उससे पहले, आचार संहिता के लागू रहते चुनाव आयोग से इजाजत का इंतजार तो नहीं किया जा सकता था न। बल्कि फडनवीस की अल्पजीवी सरकार के इस्तीफे से एक दिन पहले, 25 नवम्बर को तो टीम मुम्बई लौट भी चुकी थी।

और पूर्व सीएम फडनवीस ही क्यों, हफ्ते भर पहले केन्द्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री डॉ. भारती प्रवीण पवार ने भी तो राज्यसभा में केसी वेणुगोपाल के एक सवाल पर कह दिया था कि कोरोना की दूसरी लहर में ऑक्सीजन की कमी से कोई मौत नहीं हुई। बजट सत्र में लोकसभा को मेनहोल और सीवर सफाई के दौरान 370 सफाईकर्मियों की मौत की सूचना देने वाले समाज कल्याण मंत्री रामदास अठावले तीन-चार दिन पहले राज्यसभा में कह ही चुके हैं कि पिछले पांच सालों में मैला ढोने वाले किसी सफाई कर्मी की मृत्यु की खबर नहीं है। और फिर इसी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफिया कहा ही था कि राफेल विमान की कीमत के बारे में सारे कागजातों की जांच सीएजी कर चुकी है, जांच-रिपोर्ट संसद की लोकलेखा समिति को सौंपी जा चुकी है, समिति इसका अध्ययन कर रिपोर्ट दे चुकी है और इसके कुछ अंश संसद में रखे भी जा चुके हैं। कांग्रेस के मल्लिकार्जुन खड़गे लोकलेखा समिति के चेयरमैन न होते और उन्होने सीएजी की ऐसी कोई रिपोर्ट मिलने से इंकार नहीं कर दिया होता तो सुप्रीम कोर्ट ने तो सरकार के सीलबंद दावे को सच मान ही लिया था। वह तो खड़गे के इंकार के बाद सरकार को कहना पड़ा कि उसने तो ऐसा कुछ कहा ही नहीं और जो कुछ कहा था, उसकी अंग्रेजी नहीं समझ पाने के कारण सुप्रीम कोर्ट ने इस पर अपने फैसले के पैरा 25 में कुछ का कुछ लिख दिया।

तो ऐसी सरकार कह दे सकती थी कि उसने और उसकी एजेंसियों ने कोई स्पाईवेयर खरीदा ही नहीं। सवाल संसद में था तो क्या? पूरे देश ने ऑक्सीजन पर मचा त्राहिमाम देखा था। सिलिंडर पाने की भागमभाग देखी थी, उन्हें भरवाने की लाईनें शहर-शहर आम थीं, ऑक्सीजन कन्संट्रेटर की कालाबाजारी और छापे तक की खबरें थीं। ऑक्सीजन नहीं होने से जगह-जगह अस्पतालों के भीतर-बाहर लोग तड़प रहे थे, मर रहे थे और उनके शव नदियों में बहकर कहां-कहां जा रहे थे। इसी दिल्ली- एनसीआर में गंगाराम जैसे कई प्रतिष्ठित अस्पताल रोज-रोज ऑक्सीजन आपूर्ति के संकट से जूझ रहे थे, जयपुर गोल्डन अस्पताल में और कई दूसरे अस्पतालों में भी कई मौतें तक हो गई थीं और दिल्ली सरकार को आक्सीजन की अधिक आपूर्ति के लिये बार-बार शीर्ष अदालत की शरण लेनी पड़ रही थी। फिर भी केन्द्र सरकार ने संसद में ही कह दिया कि ऑक्सीजन की किल्लत से कोई मौत नहीं हुई, एक भी नहीं। अब वे हजारों लोग कहां जायें, किससे कहें कि उनके परिजनों को जैसे-तैसे किसी अस्पताल में जगह मिली भी तो आक्सीजन की ऐसी किल्लत कि उन्हें बचाया नहीं जा सका। सफाईकर्मियों की मौत को लेकर परस्पर उलट उत्तर तो एक ही मंत्री ने दिये थे, सो मुहावरे में यह भी नहीं कह सकते कि सरकार के दाहिने हाथ को नहीं पता कि बांया हाथ क्या कर रहा है। यह खालिस झूठ था।

लेकिन, झूठ बोलने के भी जोखिम होते हैं। खासकर पेगासस स्पाईवेयर कांड जैसे मामलों में, जहां 45-45 देशों के करीब 50 हजार लोग जासूसी के शिकार हुये हों या शिकार होने की प्रतीक्षा सूची में हों और रोज-रोज के खुलासों से, यह सॉफ्टवेयर बनाने वाली इजरायली कंपनी एनएसओ और वहां की सरकार पर भी दबाव बढ़ता जा रहा हो। एनएसओ शायद, ऑक्सीजन नहीं मिल पाने से मरे लोगों और जहरीली गैस के शिकार हो, जान गंवाने वाले सफाईकर्मियों के परिजनों जितने निःशक्त और मजबूर न साबित हो। कहीं बात मार्च 2017 में भारत में नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल के मुखिया के इजरायल जाने और इसी के आसपास जासूसी सॉफ्टवेयर के सौदे होने और इन सौदों के वक्त ही काउंसिल का बजट 33 करोड़ से बढ़ाकर 333 करोड़ रुपये कर दिये जाने की आंकड़ागत चुगली से आगे निकल गयी और इजरायली कंपनी ने ही भारत सरकार को या इसकी किसी लॉ-एन्फोर्सिंग, रक्षा या खुफिया एजेंसी को पेगासस स्पाईवेयर बेचने की बात कह दी तो? कहीं एक दिन एनएसओ और उसे स्पाईवेयर के निर्यात लाइसेंस देने वाली इजरायल की सरकार पर भी दुनिया भर के देशों का दबाव इस कदर बढ़ गया कि उसे सॉफ्टवेयर खरीदने वाले देशों और उसकी एजेंसियों के नाम का खुलासा करना पड़ गया तो?

दो साल पहले तो केवल वाट्स-एप यूजर्स के चैट लीक का मामला था, 120 के आस पास भारतीयों समेत केवल 1400 लोगों के चैट लीक का। याद कीजिये, वाट्स-एप ने सान फ्रांसिस्को की अदालत में मुकद्दमा कर दिया था और जासूसी करने के उसके आरोपों पर दाखिल अपने उत्तर में एनएसओ ग्रुप टेक्नॉलॉजी ने कहा था कि उसने केवल सरकारों और उसकी एजेंसियों को ही यह स्पाईवेयर बेचा है। राज्यसभा में 28 नवम्बर, 2019 को इस मसले पर चर्चा में द्रमुक सांसद पी विल्सन की मानें तो एनएसओ टेक्नॉलॉजी का जवाब दाखिल होने के बाद ‘अदालत में वाट्सएप की दलीलें इशारा करती हैं कि भारतीय एजेंसियों ने यह स्पाईवेयर खरीदे हैं’। फिर अब तो यह कांड बहुत बड़ा हो गया है और इसके साथ ही एनएसओ और इजरायल पर दबाव भी बहुत बढ़ गया है।

यह दबावों का ही नतीजा है कि इजरायल सरकार ने आतंकवाद-रोधी गतिविधियों और राष्ट्रीय सुरक्षा से इतर उद्देश्यों के लिये खरीदारों द्वारा स्पाईवेयर के दुरुपयोग के आरोपों की जांच की ही बात नहीं कही है, इसके लिये एक मंत्रिमंडलीय समूह ही नहीं गठित कर दिया है और उसके सुरक्षा अधिकारीगण तेल अवीव में एनएसओ के दफ्तर पर ही नहीं जा धमके हैं, बल्कि स्पाईवेयर के संभावित शिकारों की सूची में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों और अन्य राजनीतिक-सामाजिक हस्तियों के नाम होने के आरोपों के मद्देनजर इजरायल के रक्षा मंत्री बेनी गांट्ज को अभी पिछले सप्ताह पेरिस का दौरा तक करना पड़ा है और कहना पड़ा है कि वह इन आरोपों की जांच को लेकर ‘अत्यंत गंभीर’ हैं। फिर भारत में तो संभावित शिकारों की सूची में राहुल गांधी, ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के महाचचिव अभिषेक बनर्जी, विहिप के पूर्व नेता प्रवीण तोगड़िया, पूर्व केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के ओएसडी, कर्नाटक की पूर्ववर्ती कांग्रेस-जेडी-एस सरकार के सीएम और डिप्टी सीएम, दोनों के तत्कालीन निजी सचिव, पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा, भीमा कोरेगांव मामले में वर्षों से चार्जशीट का इंतजार कर रहे कई बुद्धिजीवी-एक्टिविस्ट और उनके वकील, चीफ जस्टिस रंजन गोगोई पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली सुप्रीम कोर्ट की स्टाफ, सीबीआई के पूर्व प्रमुख राकेश अस्थाना और आलोक वर्मा, अनिल अम्बानी और कुछ अन्य उद्योगपतियों-व्यापारियों, बीएसएफ के एक प्रमुख, एक आईजी, सेना के दो कर्नल, ईडी और आईएएस के दो अधिकारियों समेत जाने कितने ऐसे नाम रोज सामने आ रहे हैं, जिनसे आतंकी गतिविधि या राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये किसी और खतरे की पता नहीं, क्या आशंका हो सकती है।

यह सवाल जरुरी इसलिये है कि रविशंकर प्रसाद ने 28 नवम्बर को ध्यानाकर्षण प्रस्ताव पर चर्चा पर अपने लम्बे उत्तर में ‘देश की एकता और अखंडता की रक्षा की खातिर लोगों के फोन, कम्प्यूटर आदि को टैप करने की अनुमति देने’ के कानूनी प्रावधानों और केन्द्र और राज्य स्तर पर इसके लिये अधिकृत करने की एक सुस्पष्ट प्रक्रिया होने का जिक्र करते हुए ‘निजता और राष्ट्रीय सुरक्षा की प्रतिस्पर्धी संकल्पनाओं के बीच संतुलन’ की जरुरत पर जोर दिया था।

खुद केन्द्र सरकार के दो मंत्री – अश्विनी वैष्णव और प्रह्लाद पटेल भी इन संभावितों की सूची में थे। पता नहीं इनसे टेररिस्ट एक्टिविटी या नेशनल सिक्योरिटी को खतरे की आशंका कैसे रही हो। वैष्णव, दशक भर पहले आईएएस सेवा में रहे थे, दो साल पहले ही राज्यसभा की सदस्यता के साथ उन्होंने राजनीतिक पारी शुरु की है और मंत्री तो वह पिछले महीने बने हैं। संभव है, कैबिनेट में शामिल किये जाने से पहले उनके बारे में सारे मालूमात कर लेना जरुरी रहा हो और पटेल तो खैर, 2005 में भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व से विद्रोह कर राम-रोटी यात्रा पर निकल पड़ीं उमा भारती के समर्थन में एक बार पार्टी तक छोड़ चुके हैं। बहरहाल फॉरेन्सिक जांच के लिये अपने मोबाइल फोन न तो पटेल ने भेजे, न वैष्णव ने। भेजे होते, तो शायद ‘सुपर डिनायल मोड’ में न होते और यह नहीं कह रहे होते कि ‘समय गवाह है कि हमारे देश की सुगठित और सुव्यवस्थापित प्रक्रियाएं ऐसी अनधिकृत दखलंदाजी और जासूसी की रोकथाम करने में कारगर रही हैं।’ हो सकता है कि उनका मोबाइल भी ‘इन्फेक्टेड’ मिलता, या उसमें भी पेगासस के हमले के निशां मिल जाते, जैसा कि सूची में शामिल जिन भारतीय पत्रकारों ने अपने मोबाइल की डिजिटल स्क्रीनिंग कराना स्वीकार किया, उनमें से कइयों के फोन इन्फेक्टेड पाये गये।

बहरहाल, अश्विनी वैष्णव नये इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री हैं और उन्होंने संसद को नहीं बताया कि भारत सरकार ने इजरायली कंपनी एनएसओ से पेगासस स्पाईवेयर खरीदा है या नहीं। यह भी नहीं कहा कि सरकार की किसी एजेंसी ने तो ऐसा नहीं किया है या किसी राज्य सरकार ने, जहां उनकी पार्टी की सत्ता हो या रही हो। केवल वैष्णव ने नहीं, बल्कि उनके पूर्ववर्ती रविशंकर प्रसाद ने भी इस बारे में जुबान नहीं खोली थी – न 28 नवम्बर 2019 को जब दिग्विजय सिंह ने राज्यसभा में इसी मुद्दे पर ध्यानाकर्षण प्रस्ताव रखा था, न अब, जब वह मंत्री नहीं हैं। जबकि ख्याति यह है कि रविशंकर तो गालिबन बोलते ही रहते हैं — बात-बेबात!

अभी, पेगासस स्पाईवेयर की जासूस निगाहों की जद में आये भारतीयों की पहली सूची और सूची में शामिल कुछ लोगों के फोन अलग-अलग अवधियों में स्पाईवेयर से इन्फेक्टेड रहने की खबर प्रकाशित होने के अगले दिन, 19 जुलाई को लोकसभा में वक्तव्य बेशक नये आईटी मिनिस्टर ने दिया पर इसकी भूमिका उनके पूर्ववर्ती रविशंकर प्रसाद ने ही बना दी थी। इस जिद की भी भूमिका कि कुछ भी हो, स्पाईवेयर की खरीद के सवाल पर जुबान नहीं खोलनी है। उनकी तो मुश्किल भी बड़ी थी, उन्हें राज्यसभा में ‘कॉलिंग अटेन्शन मोशन’ पर शुरुआती वक्तव्य देना था, उस पर चर्चा होनी थी और चर्चा के बाद उनसे सदस्यों के सवालों पर बिन्दुवार जवाब की अपेक्षा थी। लेकिन शुरुआती वक्तव्य के दूसरे पैरा में ही उन्होंने कह दिया कि ‘एनएसओ ने सरकारी और निजी क्षेत्र की एजेंसियों को पेगासस स्पाईवेयर बेचे हैं’, यह भी कह दिया कि ‘यह दावा वाट्स-एप ने सान फ्रांसिस्को की अदालत में अपने वाद में किया है’। यह खालिस खेल था- अव्वल तो अगर स्पाईवेयर किसी को भी बेचा जा रहा था तो – ‘सरकारी और निजी क्षेत्र की एजेंसियों को’ जैसे किसी क्वालिफिकेशन की जरुरत नहीं थी और दूसरे कि स्पाईवेयर किसे बेचा जा रहा था, प्राथमिक तौर पर यह एनएसओ को बताना था।

उसने बताया भी- सान फ्रांसिस्को में वाट्स-एप के वाद पर दाखिल अपने जवाब में (जिसका उल्लेख पहले किया जा चुका है) और विवाद के इस नये दौर में तो बारहा – कि पेगासस केवल सरकारों को और सरकार की एजेंसियों को बेचा गया है। लिहाजा मूल सवाल यही है कि हमारी सरकार ने या उसकी किसी एजेंसी ने यह स्पाईवेयर खरीदा या नहीं। सर्विलेंस, टैपिंग, हैकिंग और स्पाइंग के हर प्रश्न पर आईटी कानून की धारा 69 और टेलीग्राफ कानून की धारा 5 में इसका प्रावधान होने और केन्द्र और राज्यों में इसके लिये ‘स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर’ होने की रट लगाती सरकार के लिये सवाल तीन ही हैं कि क्या सरकार ने कानूनी तौर पर जासूसी करायी या सरकार की जानकारी के बगैर गैर-कानूनी तौर पर जासूसी हुयी या कहीं सरकार ने खुद गैर-कानूनी जासूसी तो नहीं करायी। दो साल पहले राज्यसभा में ठीक यही सवाल पूछा भी गया था। ‘रिसर्च एंड डेवेलपमेंट’ के नाम पर करीब 300 करोड़ रुपये की अतिरिक्त राशि पाने वाली राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद को, आईटी मंत्री को, गृह मंत्री और प्रधानमंत्री को इसी सवाल का जवाब देना है। पेगासस स्पाईवेयर कांड के इस कदर वैश्विक आयाम न होते तो वे जवाब दे भी देते, कह देते कि नहीं खरीदा, सरकार और उसकी एजेंसियों ने ऐसा कोई स्पाईवेयर। पर जोखिम तो हैं – मान लेने में ही नहीं, साफ इंकार करने में भी और व्यंजक यह है कि सरकार ने पेगासस की सरकारी खरीद से इंकार नहीं किया है।

(लेखक राजेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

राजेश कुमार
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