मॉब लिंचिंग में साधु-संत की हत्या : जानिए बुद्धिजीवियों की ‘चुप्पी’ का मतलब

एक सवाल अक्सर पूछा जाता है- क्यों चुप हैं सेकुलर, क्यों चुप हैं बुद्धिजीवी? इन्हें सेकुलर गैंग, अवार्ड वापसी गैंग, मानवाधिकार वाले कहकर धिक्कारते हुए पुकारा जाता है। इन्हें गुनहगार के तौर पर पेश करने की कोशिश होती है। विडंबना यह भी है कि जब यही लोग आवाज़ उठाते हैं तब उसे साजिश करार देते हुए भी इन्हें देर नहीं लगती। पूछते हैं-“तब बोल रहे थे, अब चुप क्यों हैं?” अगर तब बोलना साजिश थी, क्या अब भी उन्हें साजिश की जरूरत है?

ताजातरीन घटना महाराष्ट्र के गढ़चिंचोली में दो साधुओं और एक ड्राइवर की मॉब लिंचिंग की है जिसे लेकर सवाल उन लोगों पर दागे जा रहे हैं जो कथित तौर पर चुप हैं। इस सवाल का जवाब देने से पहले यह बताना जरूरी है कि बीते छह साल में ही मॉबलिंचिंग की घटनाएं परवान चढ़ी हैं। इस दौरान एक भी ऐसी घटना नहीं है जिस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी जुबान खोली हो या फिर उसकी निन्दा की हो। हालांकि उनकी ऐसी चुप्पी अनुकरणीय नहीं है क्योंकि वे शासन चला रहे हैं। उनके लिए ज्वलंत मुद्दों पर बोलना देश के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है। मगर, चुप्पी के जो आरोप देश के बुद्धिजीवी वर्ग पर लग रहे हैं क्या उसमें कोई वजन है? क्या उनकी चुप्पी बेवजह है? क्या उनकी चुप्पी पक्षपात पूर्ण है? 

इसमें संदेह नहीं कि देश के किसी भी बुद्धिजीवी या अनपढ़ व्यक्ति से आप जब पूछने जाएंगे तो उनमें से हर कोई मॉबलिंचिंग की घटना को गलत ही ठहराएगा। मगर, प्रश्न यह है कि पूछे बगैर क्यों नहीं इस घटना की निन्दा की जाए? 

भीड़ किसी महिला को डायन बोलकर मार दे, बच्चा चोर समझकर मार दे या ऐसे ही किसी आरोप में मार दे तो क्या ये घटनाएं चुप रहने की हैं? बिल्कुल नहीं। फिर भी राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा नहीं बन पाती हैं या फिर निन्दा के लिए नेताओं की जुबान पर इनका जिक्र नहीं आ पाता है। बुद्धिजीवी हों या राजनीतिक दलों के नेता- इन मुद्दों पर उनकी चुप्पी ही रहती है। क्यों? शायद इसकी वजह यह है कि ऐसी घटनाएं देश के किसी न किसी हिस्से में होती रहती हैं और उम्मीद की जाती है कि स्थानीय स्तर पर इसे रोक लिया जाएगा। इन घटनाओं का राष्ट्रव्यापी असर नहीं होने को लेकर वे आश्वस्त रहते हैं। 

ऐसी घटनाओं में भीड़ की निन्दनीय क्रूरता तो होती है लेकिन यह आशंका नहीं होती कि यह घटना समाज का स्वभाव बनकर बड़ा खतरा बन जाए। लिहाजा बुद्धिजीवी नीतियां तैयार करने के वक्त तक चुप रहते हैं और वक्त आने पर उसमें परामर्श के तौर पर योगदान करते हैं। कैंडल मार्च, विरोध मार्च जैसी बातें स्थानीय स्तर पर होकर रह जाती हैं।

मगर, जब मॉब लिंचिंग की वजह जीवन शैली हो, जैसे बीफ खाना या फिर मरी हुई गायों के चमड़े उतारने, आदि से जुड़े कार्यों में संलग्नता। तो, यह तय रहता है कि ऐसे मामलों में मॉब लिंचिंग की घटना अकेली रहने वाली नहीं है। यह इस किस्म की जीवनशैली से जुड़े लोगों पर विपदा बनकर टूट पड़ने वाली है। धार्मिक आधार पर या फिर जातीय आधार पर लोग इसके शिकार हो सकते हैं। तब यही विषय सामाजिक और राष्ट्रीय चिंता का बन जाता है। ऐसे मौके पर बुद्धिजीवी चुप नहीं रह सकते। उन्हें तत्काल इसका विरोध करना जरूरी लगने लगता है क्योंकि ऐसा नहीं करने पर यह बीमारी पूरे देश के लिए आज के संदर्भ में कहें तो कोरोना बन जा सकती है।

धार्मिक स्थलों पर हमलों के संदर्भ में देखें। हमले मंदिर पर हों या मस्जिद या गिरिजाघरों पर खतरनाक सभी हैं। इस किस्म की घटनाओं से धार्मिक वैमनस्यता बढ़ती है। मगर, जब बहुसंख्यक आक्रामक होता है तो उसके नतीजे भयावह होते हैं। देशव्यापी स्तर पर अल्पसंख्यकों में असुरक्षा का भाव पैदा हो जाता है। लिहाजा इस पर त्वरित प्रतिक्रिया और इस पर तुरंत रोक लगाने की बेचैनी बुद्धिजीवियों में दिखती है। वहीं अल्पसंख्यकों की आक्रामकता को बहुसंख्यकों पर खतरे के तौर पर नहीं देखा जाता। इसलिए इसे स्थानीय स्तर पर प्रशासनिक तौर पर हल कर लिए जाने की उम्मीद की जाती है। यहां भी अल्पसंख्यकों की आक्रामकता पर संभावित प्रतिक्रिया को लेकर चिंता अधिक होती है। बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रियाओं में यही बात हावी और प्रभावी रहती हैं।   

महाराष्ट्र की घटना के संदर्भ में बात करें तो यह बात विश्वास करने की नहीं होती कि हिन्दू समुदाय के लोग साधु-संतों की म़ॉबलिंचिंग कर दें। मॉबलिंचिंग की एक निन्दनीय घटना घटी है जिसके शिकार हुए लोग साधु-संत हैं। मगर, साधु-संत से नफरत के कारण मॉबलिंचिंग हुई हो, ऐसा माना नहीं जा सकता। ऐसे में कोई भी बुद्धिजीवी इसे ‘साधु-संतों की मॉबलिंचिंग’ कहने से परहेज करेगा क्योंकि इसका संदेश गलत जाता है। ऐसा मतलब निकलता है मानो साधु-संत खतरे में हों। 

साधु-संत की जान गयी है। इससे कोई इनकार नहीं करता। घटना निन्दनीय है। पुलिस की भूमिका भर्त्सना योग्य है। महाराष्ट्र सरकार की जिम्मेदारी है। खुफिया तंत्र की विफलता है। ये तमाम बातें सच हैं। इन आधारों पर आवाज़ बुलन्द की जानी चाहिए। मगर, महाराष्ट्र से बाहर ऐसी आवाज़ उठाने की ज़रूरत क्या वास्तव में है? महाराष्ट्र में कौन ऐसी पार्टी और नेता हैं जिन्होंने मॉबलिंचिंग और उसमें मारे गये साधु-संत की घटना को गलत न ठहराया हो, निन्दा न की हो? यानी चुप रहने का इल्जाम सही नहीं है। 

मॉबलिंचिंग की घटना चाहे जिस कारण से हुई हो, उन कारणों का खुलासा होना चाहिए। मुकम्मल जांच होनी चाहिए। अगर महाराष्ट्र की घटना की जांच से यह संदेश जाता है कि देश में साधु-संत सुरक्षित नहीं रह गये हैं, उन्हें किसी भी हिस्से में सांप्रदायिक आधार पर निशाना बनाया जा सकता है तो इस स्थिति को रोकना भी जरूरी है और इस स्थिति के लिए वजह बनी घटना की निन्दा करना भी उतना ही आवश्यक है। मगर, बगैर जांच के हम ऐसा कैसे मान लें और क्यों बुद्धिजीवी इस घटना को साधु-संतों की मॉबलिंचिंग कहकर विरोध करें?

बुद्धिजीवियों को नहीं लगता कि साधु-संतों के लिए इतनी नफरत देश में है। ऐसे में इस घटना को राष्ट्रीय विमर्श का विषय बनाना एक नया मुद्दा खड़ा करना है जो वास्तव में है नहीं। या, कम से कम जिसके लिए जांच नतीजों का इंतजार करने की जरूरत है। 

यह पूछा जा रहा है कि सोनिया गांधी चुप क्यों हैं? कांग्रेस चुप क्यों है? मगर, आप बताएं कि अगर इनकी पार्टी महाराष्ट्र में इस घटना की निन्दा कर रही है, सरकार में है, जांच की प्रक्रिया से जुड़ी हुई है तो ये चुप कहां हुए? महाराष्ट्र की कांग्रेस का मुखर होना क्या कांग्रेस की चुप्पी है? राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस जरूर मुखर नहीं दिखी है। लेकिन, ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि उन्हें इसमें राष्ट्रीय मुद्दा नजर नहीं आया है। यह भी समझें कि राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने भी ऐसे मामलों पर कब चुप्पी तोड़ी है? जबकि, उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे सुप्रीम कोर्ट के गाइलाइंस के आधार पर मॉब लिंचिंग की घटनाओं को रोकने की पहल करें। फिर भी वे अपेक्षाओं का जवाब नहीं देते। निश्चित रूप से कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष को ऐसा लगता है कि यह मुद्दा महाराष्ट्र के स्तर पर निबट जाना चाहिए। देश में गलत उदाहरण बनकर इस तरह की घटनाओं का फैलाव नहीं होना चाहिए। लिहाजा वे राष्ट्रीय स्तर पर मुखर नहीं हैं।

सही मायने में देखें तो देश का बुद्धिजीवी वर्ग साधु-संतों की मॉबलिंचिंग की घटना पर चुप नहीं है। वह प्रतिक्रिया को लेकर सतर्क है कि कहीं स्थानीय प्रकृति की मॉबलिंचिंग को समझने में गलती न हो जाए और बेवजह यह मामला इस कदर तूल न पकड़ ले कि देश के सांप्रदायिक सौहार्द को नुकसान हो। राजनीतिक पार्टियां भी यही चाहती हैं कि महाराष्ट्र के स्तर पर ही यह मुद्दा सुलझ जाए। दोषियों को सजा मिले ताकि ऐसी घटनाएं दोबारा फिर ना हो। मगर, जब राजनीति का रंग इन घटनाओं में घुस जाता है तो वाजिब तरीके से सोचने के बजाए दूसरों पर इल्जाम थोपा जाने लगता है। मीडिया जैसी ताकत का दुरुपयोग होने लग जाता है। इन दिनों यही हो रहा है। दोष बुद्धिजीवियों को न दें कि वे चुप हैं। दोष उन लोगों का है जो उन्हें गलत तरीके से बोलते हुए देखना चाहते हैं।

(प्रेम कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल विभिन्न न्यूज़ चैनलों के पैनलों में उन्हें बहस करते देखा जा सकता है।)

प्रेम कुमार
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