दलित और महिला शिक्षा की अलख जगाने वाली सावित्री फुले आखिर क्यों नहीं हैं मिसाल?

‘शिक्षक दिवस’ (5 सितंबर) को डॉ. राधाकृष्णन से जोड़ने का क्या औचित्य है? आखिर शिक्षा के क्षेत्र में उनका योगदान क्या है? या इससे भी बढ़कर समाज के लिए ही उनका क्या योगदान है? आखिर राधाकृष्णन का दर्शन क्या है?

बहुत से दलित और प्रगतिशील संगठन सावित्री बाई फुले के जन्म दिन (4 जनवरी) को ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में मनाते हैं।

राधाकृष्णन का जन्म 5 सितंबर 1888 को आन्ध्र प्रदेश के एक गांव में ब्राहमण परिवार में हुआ था। दर्शन में उच्च शिक्षा लेने के बाद उन्होंने आंध्र, मैसूर और कोलकाता में पढ़ाया। कुछ समय उन्होंने आक्सफोर्ड में भी धर्म और नीतिशास्त्र पढ़ाया। इसके अलावा वे दिल्ली विश्वविद्यालय और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के ‘वाइस चांसलर’ भी रहे। वे भारत के प्रथम उप राष्ट्रपति और द्वितीय राष्ट्रपति रहे। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘नाइटहुड’ की उपाधि से नवाज़ा तो भारत सरकार ने ‘भारत रत्न’ से। उन्होंने कभी भी ‘स्वतंत्रता आंदोलन’ या किसी भी राजनीतिक- सामाजिक आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया।

उनका दर्शन था ‘अद्वैत वेदान्त’ का दर्शन। इस पर उन्होंने कई किताबें लिखी हैं। उनके समर्थकों का कहना है कि उन्होंने अद्वैत वेदान्त की नई व्याख्या करके पश्चिम को अद्वैत वेदान्त दर्शन की ऊंचाइयों से परिचित कराया और इस रूप में भारत का सर ऊंचा उठाया।

शंकराचार्य के समय में अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचा यह दर्शन भारतीय दर्शन के इतिहास में ‘बुद्ध दर्शन’ और ‘चार्वाक’ दर्शन के विरोध में खड़ा एक प्रतिक्रियावादी दर्शन है, जो पूरे ब्रह्मांड की एकता की बात करता है और सभी तरह के अन्तरविरोधों को माया मानता है। डॉ. राधाकृष्णन ने भी इसी से प्रभावित होकर ‘वैश्विक एकता’ (Global oneness) की बात कही और उस समय के प्रगतिशील ‘राष्ट्रवाद’ को ‘वैश्विक एकता’ के मार्ग में एक बाधा के रूप में चिन्हित किया (शायद इसी कारण वे स्वतंत्रता आन्दोलन से दूर रहे)।

इस रूप में समाज के सारे अन्तरविरोध मसलन दलित-सवर्ण का अन्तरविरोध, अमीर-गरीब का अन्तरविरोध, साम्राज्यवाद-राष्ट्रवाद का अन्तरविरोध जैसे अनेक अन्तरविरोध महज माया रह जाते हैं। व्यक्ति का मूल लक्ष्य है एकता के इस ‘परम ज्ञान’ को प्राप्त करना। इस परम ज्ञान को वेदो में ‘ब्राहमण’ कहा गया है। राधाकृष्णन भी इसका इसी रूप में प्रयोग करते हैं।

इस दर्शन की उलटबांसी यह है कि यदि सब कुछ एक है यानी ‘परम ब्रहम’ या ‘ब्राहमण’ है तो इसका ज्ञान प्राप्त करने का क्या मतलब है, क्योंकि ज्ञान प्राप्ति के लिए ‘आब्जेक्ट’ और ‘सब्जेक्ट’ का अलग अलग अस्तित्व जरूरी है, जिससे राधाकृष्णन और अद्वैतवाद दोनों ही इंकार करते हैं। यानी ज्ञान अपने आप में ही माया है।

भारत के बहुसंख्यक दलितों, आदिवासियों, महिलाओं एवं गरीबों के लिए इस दर्शन में क्या है?
चलिए अब हम ‘सावित्रीबाई फुले’ की ओर रुख करते हैं। सावित्रीबाई का जन्म महाराष्ट्र के ‘सतारा’ जिले में 4 जनवरी (कुछ के अनुसार 3 जनवरी) 1831 को एक शूद्र परिवार में हुआ था। अपने पति और साथी ‘ज्योतिबा फुले’ के साथ मिल कर उन्होंने 1847 में दलितों के लिए पहला स्कूल खोला। 1848 में उन्होंने लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला।

उन्होंने अपने जीवन में कुल 18 स्कूल खोले। इनमें से एक स्कूल में अधेड़ उम्र के और बुजुर्ग लोगों को भी शिक्षा दी जाती थी। जाहिर है उस वक्त उन्होंने इसके लिए सवर्णों का काफी विरोध झेला। शुरू में जब उनके स्कूल में दलित और महिलाएं आने से हिचक रहे थे और स्कूल में संख्या काफी कम थी तो सावित्रीबाई ने शिक्षा और सामाजिक आंदोलन के बीच के संबंध को पहचाना और वे ज्योतिबा फुले के साथ विभिन्न मोर्चों पर ‘महिला सम्मान’, ‘महिला अधिकार’ और ‘दलित अधिकारों’ के आंदोलन में अपनी सीधी हिस्सेदारी की और शिक्षा तथा सामाजिक आंदोलन एक दूसरे से गुंथ गए।

सावित्रीबाई ने अपने नेतृत्व में उस वक्त नाइयों को संगठित किया कि वे विधवाओं के बाल न काटें। उस समय प्रथा थी कि पति के मरने के बाद पत्नी को गंजा रहना होगा। उस समय विधवाएं अनेक तरह के यौन उत्पीड़न का शिकार होती थीं। फलतः प्रायः वे गर्भवती हो जाती थीं, लेकिन समाज के डर से उन्हें या तो अपने बच्चे को मारना पड़ता था या फिर उन्हें खुद आत्महत्या करनी पड़ती थी।

इससे निपटने के लिए सावित्रीबाई ने अपने घर पर ही ‘बालहत्या प्रतिबंधक गृह’ की स्थापना की, जहां ऐसी महिलाओं को अपने बच्चे को जन्म देने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था और उन्हें दोबारा से सम्मानजनक जीवन जीने का हौसला दिया जाता था। यहां न सिर्फ दलित महिलाएं बल्कि ब्राहमण विधवा महिलाएं भी आती थीं। ऐसी ही एक ब्राहमण विधवा के पुत्र को सावित्रीबाई ने गोद भी लिया।

इन सब लड़ाइयों और सामाजिक कामों से ही उन्हें शिक्षा का उद्देश्य भी समझ आया जो उनकी कविताओं में बहुत स्पष्ट तरीके से आया है। ऐसी ही एक कविता में वे कहती हैं,
आपको सीखने-पढ़ने का अवसर मिला है
तो सीखो-पढ़ो और जाति के बंधन को काट दो

यानी यहां शिक्षा महज ‘अक्षर ज्ञान’ या ‘पोथी ज्ञान’ नहीं है, बल्कि सामाजिक अन्तरविरोधों को हल करने और समाज को आगे की ओर एक धक्का देने के लिए है। मशहूर पुस्तक ‘उत्पीड़ितों का शिक्षाशास्त्र’ के लेखक ‘पावलो फ्रेरे’ भी शिक्षा को उत्पीड़ितों के ‘चेतना निर्माण’ से जोड़ते हैं, जो उत्पीड़ित को न सिर्फ अपने बंधनों के प्रति सचेत करता है वरन् उसे काटने की चेतना का भी निर्माण करता है।

इसी सन्दर्भ में सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले दोनों ही वेदों को ‘आलसी की कल्पना’ और ‘झूठी चेतना का रूप’ मानते थे जो दलितों-महिलाओं की चेतना पर एक बोझ है। और इसे उतारकर फेंक देना चाहिए।

ज्योतिबा फुले की मृत्यु के समय सावित्रीबाई फुले ने ही उनकी चिता को अग्नि दी थी। यह उस समय के लिए (आज के लिए भी) बहुत ही क्रान्तिकारी कदम था।

महाराष्ट्र में जब ‘प्लेग’ की बीमारी फैली तो सावित्रीबाई फुले जी-जान से प्रभावित लोगों की सेवा में लग गईं और प्लेग से प्रभावित एक बच्चे की सेवा करते हुए ही उन्हें भी प्लेग हो गया और इसी से उनकी 10 मार्च 1897 को मौत हो गई।

अब आप ही तय कीजिए कि हमारा शिक्षक कौन है!

  • मनीष आज़ाद
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