क्यों चूक जा रही हैं वामपंथी ताक़तें?

वाम ताकतें क्या अब सिर्फ झाड़ू बुहारने के ही काम आने वाली हैं?

यह मैं नहीं लिखता। लेकिन सुबह ही देहरादून से एक जुझारू साथी का फोन आया है। आप दशकों से लेखन और पत्र पत्रिकाओं के सम्पादन का काम कर रहे हैं।

आपसे पता चला कि कांग्रेस की ओर से दिल्ली से फोन आ रहे हैं कि वाम बुद्धिजीवियों और छात्र नेताओं का एक धड़ा कांग्रेस नेतृत्व की नीतियों को प्रभावित करने में सक्षम है और उसमें रहकर ही फासीवाद से मुकम्मल लड़ाई लड़ सकते हैं। आज की यह फौरी जरूरत है।

मुझसे सुझाव मांगा गया या कहें कि आश्वस्त होना चाहा गया, क्योंकि वे ऐसा कुछ करने जा रहे थे, ऐसा बिल्कुल नहीं होने जाने वाला था। लेकिन इस विचार से ही एक बात स्पष्ट समझ आ रही है।

कांग्रेस ने 50 के दशक से ही यह काम लगातार किया है, सिवाय शायद 80 के दशक को छोड़कर।

मेरी जो थोड़ी बहुत कांग्रेस को लेकर समझ थी उनसे साझा की, जो कुछ इस प्रकार है।

भारत में बड़ी पूंजी और सामाजिक संतुलन को बना पाने और निर्बाध विकास को जारी रखने के लिए कांग्रेस से बेहतर दल दूसरा 80 के दशक तक उपलब्ध नहीं हो सका था।

देश में जैसे-जैसे आर्थिक और सामाजिक स्थितियां बदलीं, कांग्रेस ने उनके मुताबिक़ खुद को लगातार रूपांतरित करने का काम किया है। 70 के दशक में राष्ट्र के तौर पर भारत का जागरण हुआ, जिसे अब मोदी पूरी तरह से भुना रहे हैं। तब यह इन्दिरा ही भारत के तौर पर सामने आया था।

इस बीच जब एक हद तक पूंजी अपने शैशवावस्था से उठकर बलिष्ठ सांड़ बन गयी तो भारतीय राज्य ने भी नव-उदारीकरण के लिए पहले के निर्मित ढांचे में खुद ही तोड़ फोड़ करनी शुरू कर दी थी।

80 के दशक से ही राज्य द्वारा अपने संसाधनों को समेटने और अधिकाधिक निजी और विदेशी पूंजी के जरिये देश के अंदर के नव धनाड्यों के लिए मिल जुलकर लूटने के द्वार खोलने का काम शुरू हो चुका था।

फिर सरकारी नौकरियों में कमी की शुरुआत के साथ सामाजिक रूप से पिछड़ी जातियों के उठान और राजनैतिक रूप से कांग्रेस के अधिकाधिक टूटन को देखा जा रहा था।

जहां एक ओर आर्थिक उदारीकरण (अमीरों के लिए और कुछ हद तक नए मध्य वर्ग के लिए) का रस्ता साफ़ किया जा रहा था, वहीं समाज में प्रतिगामी मूल्यों पर जकड़ बंदी को बढ़ाने का काम अपनी ओर से राज्य ने करना शुरू कर दिया, ताकि उसे अपना काम धाम करने में आसानी हो।

शाह बानो मामले से इसकी शुरुआत हुई, जिसे रामजन्मभूमि बाबरी विवाद और मंडल कमीशन के रूप में एक ऐसा नया सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक सूत्रीकरण हाथ लग गया, जिसने भारत के अगले 30 वर्षों को इन्हीं मुद्दों पर घेर कर सीमित कर दिया, इसने रोजगार, किसान, मजदूर या कहें बहुसंख्यक आबादी के मूल मुद्दों पर कभी भी प्रमुखता से आवाज बनने ही नहीं दी। जबकि दूसरी और नेहरु के समाजवादी भारत के सपने सिर्फ संविधान के अनुच्छेद बनकर रह गए, उसके मूल की ही धज्जियाँ उड़ाई जाने लगीं, यह काम उन्हीं लोगों के द्वारा किया जा रहा था जो उसकी दुहाई देते थे।

अब कुल मिलाकर कहें तो यहीं पर एजेंडा वाम, सेंटर से खिसककर दक्षिणपंथ की ओर चला गया। खेलने के लिए इसके खिलाड़ी पहले से थे, और कुछ उसी की तर्ज पर क्षेत्रीय पार्टियों के उदय से जिसमें सपा, बसपा, आरजेडी, जेडीयू, एनसीपी, तृणमूल, बीजद सहित तेलगु देशम आदि-आदि पनपने लगे।

ये कहीं न कहीं क्षेत्रीय आकांक्षाओं, नए उभर रहे जातीय अस्मिता की लहरों पर सवार दल थे, जिनका आधार क्षेत्रीय था।

लेकिन इन सबके बीच जिस खेल को कांग्रेस आगे पीछे करके धीमे-धीमे खेल रही थी। आरएसएस के नए दल बीजेपी ने उसे खुलकर खेलना शुरू कर दिया। दरअसल वह बनी ही इसके लिए थी।

साथ ही उसके पास नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को लागू करने को लेकर कोई हिचक भी नहीं थी, कांग्रेस के पास तो समाजवाद का बैगेज भी था।

आज कुल मिलाकर बड़ी पूंजी, वैश्विक पूंजी और खासकर देश के अंदर के क्रोनी कैपिटल और बीजेपी की साठ-गांठ के बारे में सबको पता है। एक हाथ से बे मुरव्वत इस एजेंडा को आगे बढ़ाने और दूसरे हाथ देश को लगातार धार्मिक आधार पर दो फाड़ करने के लिए उद्धत इस दल से बेहतर विकल्प राज्य के लिए कोई नहीं हो सकता था।

कांग्रेस के हिसाब से अब राज्य व्यवस्था की जरूरतें बिल्कुल मेल नहीं खातीं। कांग्रेस को उसके अनुरूप ढलना है ना कि उसे। लेकिन पोस्चरिंग में कांग्रेस खुद को आम जन किसान मजदूर का हितैषी बताने से नहीं चूकती, लेकिन जहां कहीं थोड़े बहुत अन्तर से वह विक्षुब्ध जनता द्वारा जिता भी दी गई हो, वहां पर आये दिन गुट बाजी या आया राम गया राम के किस्से आम हैं। और सारी नदियाँ बीजेपी में ही समाहित होती नजर आती हैं।

तो क्या यह कहा जाये कि कांग्रेस को जिताने का मतलब है बीजेपी को ही मजबूत करना? अब हूबहू तो इसे नहीं कहा जा सकता लेकिन कमोबेश कांग्रेस के लिए यूपीए वाली हालत में लौटना तक सम्भव नहीं रहा।

वामपंथ के खेमे से क्यों आस लगाई जाती है?

इसका प्रमुख कारण है कि वामपंथ के पास अपना कोई एजेंडा है ही नहीं। वाम दलों की भीड़ में एक भी दल ऐसा नहीं है जो अपने ही रणनीति और कार्यक्रम को आज लागू कराने के बारे में कभी गंभीरता से विचार कर रहा हो। इक्का-दुक्का मजदूर किसान मुद्दों पर वार्षिक सभा की रस्म अदायगी के अतिरिक्त उसके पास यदि कुछ ठोस एजेंडा है तो कुछ के लिए किसी भी तरकी से केरल बचाकर रखने, तो किसी अन्य के लिए एक नए पढ़े लिखे लड़के के लच्छेदार भाषण के पीछे मंच पर खुद को एक बार टिकाने से अधिक की चाहत नहीं बची।

कुछ अन्य के लिए हर मुद्दे पर JNU शैली में धरने प्रदर्शन की रूटीन औपचारिकता से आगे बढ़कर सोचने की फुर्सत नहीं। बाकी अन्य वाम दलों के पास अभी भी भारतीय समाज के चरित्र चित्रण और सेमिनार गोष्ठियों के आयोजन से आगे बढ़ने का सवाल ही सामने नहीं आ रहा है।

जबकि हकीकत यह है कि देश में पहली बार 75 के बाद लोगों का इस तरह का जुझारू संघर्ष देखने को मिला है। गांधी, आजादी की विरासत, सेक्युलरिज्म, संविधान को बचाने और कहीं न कहीं समाजवादी मूल्यों के प्रति आदर की भावना को देश के मुस्लिम समुदाय, सिख समुदाय और सभी प्रमुख शिक्षण संस्थाओं ने दिखाई है।

इन्हें अपनी थाती बनाकर यदि एक भी दल सुविचारित तौर पर एक वैकल्पिक मॉडल को सिर्फ अमेरिका के बर्नी सैंडर्स की तरह ही रख दें, तो वह एक ऐसे नैरेटिव को जन्म दे सकता है, जिसके इर्द-गिर्द धीरे-धीरे उसे कांग्रेस, आप या तृणमूल जैसे खोखले विकल्पों की ओर देखने और भागने की जरूरत न पड़े। लेकिन हकीकत तो ये है कि सबके खोल बड़े आरामदायक हैं, मार्क्सवाद पर भरोसा खुद ही कमजोर हुआ जाता है, और मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो अपनी कमजोरियों से आखिर प्यार भी तो है।

(रविंद्र सिंह पटवाल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

रविंद्र पटवाल
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