कोरोना काल में सुषुप्तावस्था में पहुँच गयी हैं न्यायपालिका और विधायिका

पूरा देश कोरोना संकट की विभीषिका झेल रहा है। लॉक डाउन के नाम पर लगभग पूरी आबादी खुली जेल की बैरकों में बंद है और अनिश्चितता में जीने को विवश है। देश की चुनी सरकार के नियंता अभी तक कोरोना से प्रभावी तौर पर निपटने का कोई रोडमैप देश के सामने नहीं प्रस्तुत कर सके हैं। कोरोना संकट में लोकतंत्र के चारों स्तम्भों की हालत दयनीय है। विधायिका अपनी जान बचाने के लिए बिना बहस बजट पास करके लुटियन जोन के अपने बंगलों में कैद हो गयी। न्यायपालिका होली के बाद से ही मैदान छोड़कर पलायित हो गयी। कार्यपालिका मनमाने ढंग से निरंकुश  शासन चलाने में तल्लीन है। चौथा स्तम्भ प्रेस तो पहले से ही राग दरबारी में व्यस्त है।

वरिष्ठ अधिवक्ता एवं सुप्रीम कोर्ट बार के अध्यक्ष दुष्यंत दवे ने इस स्थिति पर बहुत तीखी टिप्पणी करते हुए कहा है कि संविधान के निर्माताओं ने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन, राज्य के तीन अंगों में से दो विधायिका और न्यायपालिका, वस्तुतः कार्य करना बंद कर देंगे। लेकिन आज भारत में ठीक वैसा ही हो रहा है। केवल कार्यपालिका ही अपना कार्य करने का प्रयास कर रही है। संसद में अवकाश है। न्यायपालिका कोमा की स्थिति में है। नतीजतन, कार्यपालिका को फ्रीहैण्ड मिल गया है चाहे सुशासन से देश चलाये या कुशासन से।
दुष्यंत दवे ने सवाल उठाया है कि ऐसा क्यों है कि लोकतंत्र के दो शक्तिशाली स्तम्भ , संसद और न्यायपालिका, ने लाखों नागरिकों की वर्तमान पीड़ा पर पूरी तरह से चुप्पी साध रखी है? ऐसा क्यों है कि श्रमिकों, गरीबों और दलितों और किसानों को पूरी तरह से लावारिस छोड़ दिया गया है?

इंडियन एक्सप्रेस में लिखे एक लेख में दुष्यंत दवे ने कहा है कि कोई भी इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि देश या इस मामले में दुनिया, अपने अस्तित्व के लिए सबसे बड़ी चुनौती का सामना कर रही है, यदि भौतिक रूप से नहीं तो कम से कम आर्थिक रूप से। भारत सरकार और प्रधानमंत्री देश के लिए कुछ अच्छा करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन, उनके एक्शन के लिए एक फ़्लिपसाइड भी है, और इस पर बहस करने की ज़रूरत है। कुछ लोगों का तर्क हो सकता है कि संकट के समय में, गंभीर बहस के लिए कोई जगह नहीं है। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि इसके अभाव में बहुत सारी अच्छी चीजें या कार्रवाई छूट जाती हैं, जबकि बहुत सारी बुरी चीजें और कार्रवाई की अनदेखी हो जाती है।
हम यह भूल जाते हैं कि भारत का संविधान एक जीवित दस्तावेज है। इसने इस उद्देश्य के साथ कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका का निर्माण किया कि सरकार के तीनों स्तम्भ एक-दूसरे पर नजर रखने के साथ-साथ उनके बीच संतुलन बनाए रखेंगे। तो  फिर ऐसा क्यों है कि दो शक्तिशाली स्तम्भ, संसद और न्यायपालिका, करोड़ों  नागरिकों की वर्तमान पीड़ा पर पूरी तरह से चुप हैं? ऐसा क्यों है कि एक ओर सरकार खाद्यान्न और अन्य संसाधनों की असीमित आपूर्ति का दावा कर रही है और दूसरी ओर श्रमिकों, गरीबों और दलितों और किसानों को खुद के हाल पर पूरी तरह से छोड़ दिया गया है?

दुष्यंत दवे ने कहा है कि ये लाखों लोगों के संवैधानिक और कानूनी अधिकारों का गंभीर उल्लंघन हैं जो 24 मार्च से प्रतिदिन किया जा रहा है। लेकिन इन दोनों स्तम्भों द्वारा इस पर कोई गंभीर सवाल नहीं उठाया जा रहा है न ही कार्यपालिका को इसके निवारण के लिए बाध्य किया जा रहा है। देश के ये अंग अपनी विफलताओं से खुद को दोषमुक्त नहीं कर सकते हैं, जबकि देश खून के आंसू रो रहा है।

भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक, मुसलमानों की स्थिति को देखें। हमने उनके स्वास्थ्य संबंधी कष्टों का भी अपराधीकरण कर दिया है। वे तेजी से अलग-थलग और सामाजिक रूप से बहिष्कृत किये जा रहे हैं । क्या यह उनकी गलती थी कि एक विदेशी वायरस कोविड-19 को भारत में प्रवेश करने की अनुमति दी गई थी? भारत सरकार ने जनवरी में कोई कदम नहीं उठाया था जब कि उसे उठाना चाहिए था, जब चीन ने 23 जनवरी को वुहान में महामारी की घोषणा की थी। भारत सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए था कि विदेश से भारत में प्रवेश करने वाले भारतीयों को छोड़कर यानी सभी लोगों का प्रवेश पूरी तरह से प्रतिबंधित हो अथवा नागरिकों के साथ घुलमिल जाने से पहले जिसमें दिल्ली में मरकज़ में भाग लेना शामिल है, के पहले अनिवार्य रूप से 14 दिनों के लिए क्वारंटाइन किया जाना चाहिए था।
न्यायपालिका का कर्तव्य है कि वह भी स्वत:संज्ञान लेकर कदम उठाए। स्मरणीय है  कि प्रशासनिक और विधायी कार्यों की न्यायिक समीक्षा संविधान की मूल विशेषता है। जहाँ कमियां छूट गया है उसे भरने  के लिए प्रेस पटैरी का सिद्धांत लागू होता है।न्यायपालिका को फिलहाल सतही लोकप्रियता से बचना चाहिए । संसद को भी फिर से आहूत करना चाहिए, या कम से कम सांसदों को जहां भी वे हैं वहां से संरक्षक के रूप में अपनी भूमिका निभानी चाहिए। सही दिशा की ओर कार्यपालिका का मार्गदर्शन करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं हो सकता। ऐसा करने में विफलता से अव्यवस्था होगी अराजकता फैलेगी ।
इस बीच, वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे को पत्र लिखा है, जिसमें उन्होंने लंबे समय तक अदालतों के बंद रहने पर चिंता जताई है। उन्होंने कहा है लंबे समय के लिए अदालतों को बंद करना एक आत्म विनाशकारी विचार है। न्यायालय मौलिक अधिकारों के प्रहरी हैं। वहां बैकलॉग है। लोगों के महत्वपूर्ण हित जुड़े हुए हैं और मामले क्वारंटाइन में हैं। वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग अदालत को आईसीयू में ऑक्सीजन पर डालने जैसा है।

राकेश द्विवेदी ने पत्र में कहा है कि उच्चतम न्यायालय को बंद रखना या वीडियो कॉन्फ्रेंस मोड में लंबे समय तक रखना राष्ट्रहित में नहीं होगा। उच्चतम न्यायालय के थोड़े से कामकाज में चेक और बैलेंस का अभाव है। महामारी की लड़ाई के बीच उच्चतम न्यायालय को अधिकतम संभव सीमा तक जागृत रहना चाहिए।

लोकसभा ने कोविड-19 के कारण 23 मार्च को वित्त विधेयक 2020 को पास कुछ संशोधनों के साथ ध्वनिमत से पास कर दिया। इसके बाद इस विधेयक को राज्यसभा में भेजा गया जिसने इसे बिना ग़ौर किए वापस कर दिया। इसका मतलब यह हुआ कि यह विधेयक संसद से पास हो गया है। इस विधेयक को पास करने के बाद संसद को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया गया। यानी संसद सुप्तावस्था में चली गयी।

गौरतलब है कि लॉकडाउन के कारण उच्चतम न्यायालय , हाईकोर्ट और यहां तक कि अधीनस्थ कोर्ट भी प्रभावी रूप से बंद हैं और केवल अत्यधिक अर्जेंट मामलों पर इलेक्ट्रॉनिक रूप से सीमित सुनवाई हो रही है। उच्चतम न्यायालय के इतिहास में पहली बार 23 मार्च  को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए सुनवाई हुई। उच्चतम न्यायालय ने केवल वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए जरूरी मामलों की सुनवाई करने का आदेश पारित किया है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय, लखनऊ खंडपीठ  व इसके नियंत्रणाधीन प्रदेश के सभी जिला न्यायालय, अधिकरणों को अगले आदेश तक बंद कर दिया गया था। अब वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए जरूरी मामलों की सीमित सुनवाई हो रही है।

राज्यसभा में मनोनयन के बाद पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने कहा है कि राष्ट्र निर्माण के लिए किसी न किसी बिंदु पर विधायिका और न्यायपालिका को एक साथ काम करना चाहिए। कोरोना काल में न्यायपालिका और विधायिका साथ हैं ,इसमें किसी को कोई शक है!

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल इलाहाबाद में रहते हैं।)

जेपी सिंह
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