धर्म पर सवाल करने से परहेज क्यों

अच्छा बनने के लिए धार्मिक बनने की जरूरत नहीं। नेक बनने के लिए बस उन बातों को देखने, समझने और खत्म करने की दरकार है जो हमें अच्छा बनने से रोक रही हैं। अच्छा सिर्फ सामाजिक, व्यवहारिक अर्थ में नहीं, बल्कि बहुत ही गहरे, सार्थक स्तर पर। अच्छा का अर्थ है ऐसा इंसान जो तार्किक हो, जीवन के प्रति वैज्ञानिक नज़रिया रखता हो, नेकदिल हो, आम तौर पर सबके प्रति मैत्रीपूर्ण और उदार सोच रखता हो। वैसा ही आचरण भी करता हो। दुनिया का कोई भगवान, खुदा या गॉड, या कोई धार्मिक किताब हमें बेहतर नहीं बना सकती। इसकी जरूरत खुद को ही महसूस होनी चाहिए।जब ज़रूरत महसूस होगी, तो इस दिशा में काम भी होगा।

धर्मों ने हमेशा प्राइमरी स्कूल के मास्साब की तरह काम करने की कोशिश की है। ‘गलती’ करने पर डंडे का ‘नरक’। सही करने पर अच्छे नम्बर का ‘स्वर्ग’। इस तरह डर और ईनाम, कैरट एंड स्टिक वाली नीति जो पशुओं को ट्रेन करने के लिए इस्तेमाल हुई, उसका धर्म ने भी यूज़ किया। इस उम्मीद से कि लगातार बिगड़ते जा रहे इंसान में कहीं से कोई बदलाव तो आए। पर हम बेहतर नहीं बने। नीति विफल रही। स्वर्ग का लालच, दोजख का डर हमें कहीं से भी बदल नहीं पाया। आने वाले समय में यह तरीका और अधिक विफल होगा। धार्मिक बातों को इतना तोड़ मरोड़ दिया गया है कि जिन बातों से दुनिया नरक में तब्दील होती जा रही है, उन्हीं बातों को जी कर स्वर्ग दिलाने के वादे कर दिए गए हैं। इस तरह धर्म ने वास्तविक, ठोस सच्चाई, हमारे खुद के उत्पात से नष्ट होती दुनिया की तरफ से मुंह मोड़ कर हमें किसी काल्पनिक सुख का झांसा दिया, उसकी प्राप्ति के प्रयासों में बझा दिया।

मासूम से दिखने वाले धार्मिक कृत्यों के भीतर भी एक ऐसा भ्रम छिपा हुआ है जो विष की तरह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में फैलता जाता है। भ्रम यह है कि एक काल्पनिक स्थान है, एक ऐसी अवस्था है जहाँ सब कुछ ठीक है। आखिरकार वह नेक काम करने वालों को नसीब होगी। किसी सुदूर, अजन्मे भविष्य में। बौद्ध धर्म के अलावा सभी संगठित धर्म किसी न किसी पारलौकिक शक्ति की बात करते हैं। बस बुद्ध कहते हैं कि तमाम अटकलबाजियों से ज्यादा ज़रूरी है कि दुःख, जो कि समूची मानवता के हिस्से में आया है, को समझा जाए। यदि इसे समझ लिया जाए, तो तथाकथित धर्म के अधिकांश प्रश्न अपने आप ही मुरझा जायेंगे। गौरतलब है कि सभी धर्म शान्तिप्रिय हैं, अमन और सुकून की बातें करते हैं। फिर भी धरती पर इतने अधिक शांतिप्रिय लोगों के रहने के बावजूद शायद ही कोई ऐसा दिन जाता हो जब दुनिया में कहीं न कहीं, किसी ‘शांतिप्रिय’ धार्मिक समुदाय के लोगों ने किसी का खून न बहाया हो।

क्या हम खुद को और अपने बच्चों को सवाल करना भर सिखा सकते हैं? मसीहा, देवी-देवता, पीर-पैगम्बर, उनकी बातों को आखिरी सच न मान कर फिर से क्या उन पर सवाल कर सकते हैं? क्या इस धरती पर जीवन के अलावा वास्तव में ऐसा कुछ है भी जो ‘पावन’ है? क्या कोई भी आलोचना से परे है? ये सवाल ही, अन्वेषण का वैज्ञानिक तरीका ही हमें शायद थोड़ा बचा ले जाए। यही तय करेगा कि हम मूढ़, पर खतरनाक भेड़ों के झुंड में बने रहना चाहते हैं या फिर एक स्वस्थ, वैज्ञानिक सोच वाले समाज को गढ़ना चाहते हैं।

जिनके पास ताकत है, धन की और राजनीति की, या संगठित धर्म से मिली ताकत, वे कभी प्रश्नों को प्रोत्साहित नहीं करेंगे। प्रश्नों से वे हमेशा दूर भागते हैं जिन्हें प्रश्न न पूछने वाले समाज ने बहुत अधिक ताकत दे रखी है। जब धर्म पर सवाल किये जाते हैं, तो दूसरों के धर्म पर सवाल किये जाते हैं। खुद के नहीं। यह सही नहीं। हर धर्मावलंबी की जिम्मेदारी है कि वह अपने धर्म की खामियों पर बात चीत करे। इस स्वस्थ संवाद के अभाव में ही धर्म जीवन को सुंदर बनाने की बजाय नरक का द्वार खोलने लगते हैं। एक दूसरे के लिए। भारत जैसे देश में तो लगातार धर्म पर संवाद होना चाहिए। मेरे या आपके धर्म पर ही नहीं, धर्म पर भी। संवाद का अर्थ विवाद या बहस नहीं। यह दूसरों की खामियां निकाल कर खुद की बेवकूफियों को छिपाना नहीं। यह स्वस्थ, समझदार, जानकार, संवेदनशील लोगों के बीच अंतर्दृष्टियों का विनिमय है जो अंततः सभी के लिए कल्याणकारी साबित हों।

हिंदुत्व के बारे में बातें करते समय ज़्यादातर लोग उपनिषदों का उल्लेख नहीं करते। आदि शंकराचार्य का भी ज़िक्र कम लोग करते हैं। कितनों ने ‘निर्वाण षट्कम’ पढ़ा होगा? यहां तक कि विवेकानंद की भी सुधारवादी बातें करने से परहेज करते हैं। सूफियों को तो भूल ही जाएं। हिंदुत्व की बातें करते समय अब लोग हिंदुत्व की बातें कम, मुसलमानों या इस्लाम की बातें अधिक करते हैं। यही बात इस्लाम को मानने वालों पर लागू होती है।अपने मजहब के बारे में मामूली से सवाल भी उनको नाराज कर देते हैं। सभी धार्मिक झगडे़ सत्य पर एकाधिकार के दावे को लेकर होते हैं। तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोग धर्म का उपयोग करते हैं, अपनी सत्ता को हासिल करने और बचाए रखने के लिए।

दार्शनिक सेनेका ने करीब दो हज़ार साल पहले कहा था कि धर्म को आम आदमी सच, समझदार इंसान मिथ्या और शासक उपयोगी मानते हैं। क्या कोई नास्तिक या संशयवादी हुए बगैर सच्चे अर्थ में धर्म निरपेक्ष हो भी सकता है? यह एक ज़रूरी सवाल है आज के भारतीय के लिए। धर्म की आड़ में आदमी ने लगातार क्रूरता और मूढ़ता का प्रदर्शन किया है। हिरोशिमा पर बम गिराने वाले ने कहा था कि गॉड उसका सह-चालक है। संगठित धर्म ने इंसान को क्रूर नहीं बनाया। बल्कि पहले से क्रूरता में लिपटे इंसान की अधिक शातिर, क्रूर और हिंसक बनने में मदद की। इस काम के लिए उसे शस्त्र और शास्त्र उपलब्ध कराए जिनके पीछे वह अपनी रक्तपिपासु लंपटता को ढंकने के लिए।

जो ज़्यादा सूक्ष्म और सतही तौर पर नम्र हैं, उन्होंने संगठित धर्म के विस्तृत भोज में आध्यात्मिकता की मिठाई उठाई। इस तथाकथित आध्यात्मिकता में भी गहरे भ्रम और कुटिल कारोबार के महीन खेल छिपे हुए हैं। इसे हल्का सा कुरेद कर देखें तो भरभरा कर हिंसा का ज़हर फूट पड़ेगा। रेशनल, उदार, नेकदिल और प्रखर मस्तिष्क वालों को न धर्म चाहिए और न ही आध्यात्मिकता। ये जीवन को सरल, सहज बनाने की बजाय बहुत जटिल और कठिन बनाते हैं।

आप ने गौर किया होगा कि त्यौहार जब कई लोग मनाते हैं, तो जो शुरुआत में ना-नुकुर करते हैं, वे भी आखिरकार जश्न मनाने लगते हैं। इसे कहते हैं सामूहिक चेतना का असर। व्यक्तिगत चेतना इसके असर में आ ही जाती है, जब तक वह बिल्कुल स्पष्ट और मजबूत न हो। यही बात नफरत पर लागू होती है। हमें नफरत, क्रोध, द्वेष न मनाने के लिए बिल्कुल स्पष्ट और मजबूत इरादे रखने पड़ेंगे। नहीं तो सामूहिक चेतना का प्रबल वेग व्यक्ति को लील जाएगा। भेड़ शब्द सामूहिक चेतना के हिसाब से चलने वालों के लिए ही बना है। भेड़चाल में आगे वाली भेड़ अपने रास्ते पर चलती है, बाकी सर झुका कर पीछे चलती चली जाती हैं।

यदि हमारी सामूहिक चेतना में प्रेम और सद्भाव के फूल खिल जाएं, तो हर इंसान के भीतर इसकी खुशबू फैल जाए। पर यह प्रेम की यात्रा चेतना के स्तर पर उल्टी चलती है शायद। कुछ इंसानों में इसकी लौ पहले जलनी चाहिए। वहीं से वह फैलेगी बाकी लोगों में। व्यक्तिगत से सामूहिक में। व्यक्ति से समष्टि में। बुद्ध, क्राइस्ट, गांधी, विवेकानंद, और जिद्दू कृष्णमूर्ति जैसे लोगों ने भी पहले चंद लोगों के बदलने की जरूरत पर ज़ोर दिया। इसलिए हर धर्म में भले थोड़े ही लोग हों, जो सही तरीके से सोचें, और अपनी बातें लोगों के साथ साझा करें। हर उस मंच पर जो उन्हें उपलब्ध हो। प्रेम और सर्वसमावेशी विचारों से ही परिवर्तन संभव है। एक दूसरे के धर्मों में खामियां निकालना उचित नहीं। हर धर्म के अपने सुधारक हों। हर धर्म से कुछ लोग आगे आयें, सही प्रश्न पूछें और अपने सहधर्मियों को प्रोत्साहित करें जिससे वे रूढ़िवादी सोच और अंधविश्वासों से खुद को और आने वाली पीढ़ियों को दूर रख सकें।

वर्ना तबाही के रास्ते पर तो हम पहले से चल ही रहे हैं। यह रास्ता तो हमें हमेशा से प्रिय रहा है। इससे कोई परहेज नहीं रहा। कभी भी।  

(चैतन्य नागर पत्रकार, लेखक और अनुवादक हैं। आप आजकल प्रयागराज में रहते हैं।)  

चैतन्य नागर
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