सपा क्यों ले रही है, एक नई वैचारिक-राजनीतिक दिशा

समाजवादी पार्टी इन दिनों बदली-बदली सी नज़र आ रही है। रामचरित मानस और जातिगत जनगणना पर पार्टी का स्टैंड हो, या फिर पार्टी के भीतर उन चेहरों पर भरोसा जो पिछड़ों की राजनीति के चेहरे रहे हैं।

हाल ही में दिखा स्वामी प्रसाद मौर्य का बेख़ौफ अंदाज हो या फिर पार्टी का इस पर चुप रह जाना। कई बातें पार्टी में पहली बार हो रही हैं और वो इस बात का संकेत भी दे रही हैं कि पार्टी अपनी राजनीतिक दिशा बदलने की कोशिश में है।

माना जा रहा है कि  खुद को यूपी में 2024 में भाजपा के एकमात्र राजनीतिक विकल्प के रूप में पेश करने की तैयारी कर रही है? कैसे आइये, समझने की कोशिश करते हैं  

मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में 4 अक्टूबर 1992 को सपा के गठन के बाद भले ही उसका मुख्य राजनीतिक आधार पिछड़ी जातियां और मुस्लिम रहे हों, लेकिन  सपा ने सचेत तौर पर कोई ऐसा क्लियर स्टैंड कभी नहीं लिया जिसमें सवर्णों के नाराज़ होने की कोई संभावना दिखी हो।

बात ज्यादा पुरानी नहीं है,  2022 के विधान सभा चुनावों से पहले सपा ने सवर्णों को रिझाने के लिए तरह-तरह के जतन किए। जिसमें परशुराम की मूर्तियां लगाने और विष्णु का भव्य मंदिर बनाने का वादा भी शामिल था, चुनाव से पहले सपा और बसपा के बीच सवर्णों और विशेषकर ब्राह्मणों को खुश करने और उनका वोट पाने के लिए होड़ मची हुई थी।

अखिलेश यादव की नज़र हिंदू वोटों पर कुछ इस तरह थी कि उन्होंने मुसलमानों के खिलाफ योगी सरकार की असंवैधानिक आक्रामक कार्रवाई का भी कोई पुरजोर विरोध नहीं किया। उन्होंने आजम खां के खिलाफ योगी सरकार की बदले की कार्रवाई के खिलाफ़ भी कोई कारगर राजनीतिक कदम नहीं उठाया।  मोदी सरकार की जन- विरोधी आर्थिक नीतियों और अडानी-अंबानी के गठजोड़ के खिलाफ भी  खुलकर खड़े नहीं हुए।

लेकिन हाल के कुछ समय में सपा अपनी राजनीतिक दिशा बदलती दिख रही है। पिछले दिनों स्वामी प्रसाद मौर्य ने रामचरित मानस की कुछ चौपाइयों को दलित-पिछ़डा विरोधी बताकर प्रतिबंध लगाने और उन्हें रामचरित मानस से निकालने की मांग की। लोगों को लगा कि इस बयान के बाद सपा अध्यक्ष स्वामी प्रसाद मौर्य के खिलाफ कोई न कोई कार्रवाई करेंगे, उन्हें बयान वापस लेने को कहा जाएगा या उन्हें कहा जाएगा कि वे भविष्य में कोई ऐसा बयान न दें। कुछ लोगों को तो यहां तक लगा कि शायद उन्हें निकाल भी दिया जाएगा।

लेकिन इन सारी अटकलों के विपरीत अखिलेश यादव ने उन्हें राष्ट्रीय महासचिव बना दिया और उन्हें जाति जनगणना के सवाल पर पूरे प्रदेश में अभियान चलाने की जिम्मेदारी सौंप दी। स्वामी प्रसाद मौर्य लगातार चैनलों पर प्रेस कॉन्फ्रेंस  करके रामचरित मानस की चौपाइयों के खिलाफ बयान दे रहें हैं । उन्हें दलितों-पिछ़डों को अपमानित करने वाला बता रहे हैं। 97 प्रतिशत बनाम 3 प्रतिशत की बात कर रहे हैं।

इससे सवर्णों के बीच सपा के प्रति आक्रोश बढ़ रहा है, फिर भी पार्टी इससे ज्यादा चिंतित नहीं दिख रही है। यहां तक पार्टी के भीतर के सवर्ण नेता भी मुखर होकर स्वामी प्रसाद मौर्य के बयान का विरोध कर रहे हैं और उसे सनातन धर्म और ब्राह्मणों का अपमान करने वाला बता रहे हैं।

इस सब के बावजूद भी स्वामी प्रसाद मौर्य लगातार रामचरित मानस के प्रश्न पर आक्रामक रूख अख्तियार किए हुए हैं। सच ये भी है कि ये सब कुछ वो पार्टी अध्यक्ष की सहमति और इशारे के बिना नहीं कर सकते हैं।

इस सब से आगे बढ़कर अखिलेश ने एक प्रेस कांफ्रेंस में खुद को ‘शूद्र’ पहचान के साथ जोड़ते हुए इन चौपाइयों को शूद्रों के खिलाफ बताते हुए, तीखा आक्रोश प्रकट किया था। ये सपा के इतिहास में पहली बार है जब किसी शीर्ष नेता ने खुद को शूद्र पहचान के साथ जोड़ा है।

रामचरित मानस विवाद पर सपा का यह स्टैंड उसकी ऐतिहासिक वैचारिक स्थिति से विपरीत दिशा में है। सामाजिक समूह के तौर पर सपा का आधार भले ही पिछड़े रहे हों, लेकिन सपा ने कभी भी खुद को बहुजन वैचारिकी के साथ नहीं जोड़ा। उसने अपने नायकों के रूप में कभी ज्योति राव फुले, शाहू जी, पेरियार और आंबेडकर आदि को  नहीं स्वीकारा।

उसने हिंदी पट्टी के पेरियार ललई सिंह यादव, रामस्वरूप वर्मा, जगदेव प्रसाद और रामस्वरूप वर्मा  जैसे चिंतकों-नेताओं को अपने नायक के रूप मे स्वीकार नहीं किया और न ही उनकी वैचारिकी को अपना आदर्श माना। सपा लोहिया के विचारों पर चलने का दावा करती रही है और उन्हीं के विचारों को अपना मार्ग दर्शक सिद्धांत मानती रही है।

हिंदुओं के धर्मग्रंथों के खिलाफ पहली बार सपा के  किसी बड़े  नेता ने मुंह खोला और उस नेता को पार्टी का समर्थन मिलता भी दिख रहा है। यह सपा की पुरानी परिपाटी से अलग दिशा है। ध्यान रहे 2022 के विधान सभा चुनाव से पहले राम के अस्तित्व पर सवाल उठाते ही, लोटन राम निषाद को तो तुरंत ही सपा के पिछड़े वर्ग के प्रकोष्ठ के प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटा दिया गया था।

इसके साथ ही  सपा ने  जाति जनगणना के सवाल पर भी आक्रामक रूख अख्तियार किया है। जाति जनगणना हिंदी पट्टी के दलितों-पिछड़ों की अहम मांग रही है। इसके पक्ष में ये समुदाय लगातार अभियान चला रहे हैं। उनका कहना है कि  मोदी सरकार आरएसएस और सवर्णों के दबाव में यह गणना नहीं करा रही है, क्योंकि इससे यह पता चल जाएगा कि कैसे मुट्टीभर सवर्णों ने देश अधिकांश संसाधनों और सपत्ति पर कब्जा कर रखा है।

अखिलेश यादव गाहे-बगाहे जाति जनगणना के पक्ष में बोलते रहे हैं, लेकिन कभी उन्होंने गंभीरता से यह सवाल नहीं उठाया। इस बार पार्टी ने इस व्यापक अभियान चलाने का निर्णय लिया है। इस अभियान का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी भी उन्होंने स्वामी प्रसाद मौर्या को सौंपी है। जाति जनगणना का प्रश्न हिंदी पट्टी के बहुजनों के दिल-दिमाग को छूने वाला बड़ा प्रश्न हैं। जाति जनगणना की मांग को लेकर ओबीसी संगठन लगातार अभियान चला रहे हैं।

दलित-बहुजनों के वैचारिक-राजनीतिक प्रश्नों पर निर्णायक स्टैंड लेने की दिशा में बढ़ती हुई सपा पूरे देश और विशेषकर उत्तर प्रदेश में पूरी तरह अलग-थलग कर दिए गए मुसलमानों के साथ मुखर होकर खड़ी होती दिख रही है। गोमांस जैसे संवेदनशील सवाल पर भी पिछले दिनों स्वामी प्रसाद मौर्य ने बयान दिया।

उनका यह बयान राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरकार्यवाहक दत्तात्रेय होसबोले के बयान के बाद आया, जिन्होंने जयपुर में आयोजित एक कार्यक्रम में कहा था कि भारत में रहने वाले सभी लोग हिंदू हैं, क्योंकि उनके पूर्वज हिंदू थे। उन्होंने कहा, ‘उनकी पूजा के तरीके अलग हो सकते हैं, लेकिन उन सभी का डीएनए एक ही है.’

दत्तात्रेय ने अपने बयान को यहीं नहीं खत्म किया. उन्होंने घर वापसी को लेकर भी बात कही। वो बोले कि हम मजबूरी में बीफ खाने वालों के लिए दरवाजे बंद नहीं कर सकते।”  इसके जवाब में स्वामी प्रसाद मौर्य ने कहा, “देश की समस्त महिलाएं और शूद्र समाज यानि आदिवासी, दलित, पिछड़े, जो सभी हिंदू धर्मावलंबी ही हैं तथा जिनकी कुल आबादी 97% है, को तो अपमानित किया ही जा रहा है। गोमांस खाने वालों को हिंदू बनाकर उन्हें भी अपमानित करने का इरादा है क्या? बोलो, बोलो हसबोले जी।” 

आम तौर सपा कार्पोरेट घरानों के खिलाफ नहीं बोलती रही है या नरम रूख अख्तियार करती है, लेकिन अडानी के धोखाधड़ी प्रकरण पर अखिलेश यादव ने आक्रामक रूख अख्तियार किया है। उन्होंने 4 फरवरी को मुरादाबाद की अपनी प्रेस वर्ता में अडानी के साथ धोखाधड़ी में शामिल एलआईसी और स्टेट बैंक के अधिकारियों के जेल भेजने की बात की।

उन्होंने कहा, “ “मैं भारतीय जनता पार्टी के लोगों से पूछना चाहता हूं। एलआईसी, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया और ना जाने कितनी संस्थाओं का पैसा अपने सबसे प्रिय उद्योगपति को दे दिया। आज कई लाख करोड़ रुपए का घाटा हो गया है। क्या अधिकारियों को जेल भेजा जाएगा? आम लोगों का पैसा चला गया और सरकार कहती है कि हम निवेश लाएंगे।”  

जहां एक ओर सपा रामचरित मानस और जाति जनगणना के सवाल पर आक्रामक रूख अख्तियार कर पिछड़े-दलितों के सचेत हिस्से को अपने साथ लामबंद करने की कोशिश करती हुई दिख रही है, तो दूसरी ओर अडानी के सवाल पर मुखर होकर अडानी-मोदी गठजोड़ विरोधी मतदाताओं को भी अपने साथ करने का प्रयास करती लग रही है। मुस्लिम वोट भी खिसकने न पाए इसके लिए भी जोर लगा रही है।

सपा की नई राष्ट्रीय कार्यकारिणी का स्वरूप हो या फिर प्रदेश अध्यक्षों के नाम, जो एक पैटर्न दिख रहा है वो ये है कि पार्टी पिछड़ों,दलितों और मुसलमानों का एक गठजोड़ बनाना चाह रही है।  इस के ज़रिये वो सिर्फ सत्ताधारी भाजपा को ही नहीं, बल्कि विपक्ष के अपने राजनीति प्रतिद्वन्द्वियों को  राजनतिक प्रतियोगिता से बाहर करना चाह रही है। इसके साथ सपा जो वैचारिक-राजनीतिक स्टैंड ले रही है और जैसा सांगठनिक ढांचा उसने हाल में बनाया है, उससे साफ लग रहा है कि उसको अब यह उम्मीद नहीं रह गई है कि उत्तर प्रदेश के सवर्ण मतदाता उसे बड़े पैमाने पर वोट देंगे।

29 जनवरी को रविवार को ही समाजवादी पार्टी ने 64 सदस्यों वाली राष्ट्रीय कार्यकारिणी का एलान किया। जिसमें 10 यादव, 9 मुस्लिम, 5 कुर्मी, 4 ब्राह्मण, 7 दलित, 16 अतिपिछड़े वर्ग के नेताओं को रखा गया। एक सप्ताह बाद  एक संशोधित सूची ज़ारी करके इसमें पांच नये राष्ट्रीय  सचिवों को शामिल किया गया है इससे राष्ट्रीय कार्यकारिणी में अब 68 सदस्य हो गये हैं। ओम प्रकाश सिंह,अरविंद सिंह गोप,अभिषेक मिश्र,अनु टंडन,तारकेश्वर मिश्र को जगह दी गई है।

स्वामी प्रसाद मौर्या व शिवपाल यादव को महासचिव बनाया गया है। सुंदीप रंजन को राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष, किरनमय नन्दा को राष्ट्रीय उपाध्ययक्ष। कुल 15 नेताओं को पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया है। इसमें एक भी ब्राह्मण ठाकुर नहीं है। दो दर्जन लोगों को राष्ट्रीय सचिव बनाया गया है। जबकि दो दिन पहले तीन प्रकोष्ठ के प्रदेश अध्यक्षों की घोषणा की है। रीबू श्रीवास्तव को महिला सभा, डॉ. राज्यपाल कश्यप को पिछड़ा वर्गऔर व्यास गौड़ को अनुसूचित जनजाति प्रकोष्ठ का अध्यक्ष बनाया है। जबकि अल्पसंख्यक सभा का राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना इकबाल कादरी को बनाया है।  

प्रश्न यह आखिर क्यों सपा को नया वैचारिक-राजनीतिक स्टैंड लेना पड़ रहा है। आखिर क्यों वो ऐसा सांगठनिक ढांचा खड़ा कर रहा  है, जिससे यह साफ संदेश मिलता दिख रहा है कि खुद पिछड़े, दलितों और अल्पसंख्यकों की पार्टी के रूप में पुरजोर तरीके से पेश करना चाह रही है और सवर्णों से वैचारिक दूरी बनाती दिख रही है?

2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों और 2017 और 2022 के विधानसभा चुनावों में सपा की हार कुछ जगजाहिर निष्कर्ष निकलते हैं। पहला यह कि उत्तर प्रदेश के सवर्ण मतदाता किसी स्थिति में भाजपा को छोड़कर सपा को वोट देने वाले नहीं हैं। इसका सबसे हालिया सबूत 2022 के विधान सभा चुनावों में मिला। इस विधान सभा चुनाव में सपा-बसपा को लग रहा था कि ब्राह्मण भाजपा, विशेष तौर पर योगी आदित्यनाथ से सख्त नाराज हैं और वे भाजपा को वोट नहीं देंगे।

ब्राह्मणों का वोट पाने के लिए  सपा-बसपा ने भी खूब कोशिश की। इस प्रक्रिया में परशुराम को भी गले लगाने की होड़ हुई। लेकिन यह सब कुछ बेकार गया। 89 प्रतिशत ब्राह्मणों ने भाजपा को वोट दिया। उसे इस तथ्य का भी अहसास हुआ होगा कि उत्तर प्रदेश में सवर्ण मतदाता सपा को तभी वोट दिए जब उन्हें बसपा को हराना था। यही बात बसपा के बारे में भी लागू होती है।

सवर्ण मतदाताओं ने तभी बसपा को वोट दिया,जब उन्हें सपा को हराना था। जब सवर्ण मतदाताओं के सामने किसी सवर्ण नेतृत्व वाली पार्टी का सपा या बसपा मजबूत विकल्प रही है, तो उन्होंने सपा या बसपा को वोट नहीं दिया है।

दूसरा सपा सिर्फ और सिर्फ यादव और मुस्लिम मतदाताओं को मुख्य आधार बनाकर भाजपा को शिकस्त नहीं दे सकती है,क्योंकि भाजपा का वोट प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है, उसे 2022 के विधान सभा चुनावों में 41.76 प्रतिशत मत मिले, जबकि सपा को सिर्फ 32.02 प्रतिशत मत मिले। दोनों के बीच करीब 10 प्रतिशत मतों का अंतर था। इसके बावजूद भी सपा ने कई सारी छोटी-छोटी पार्टियों से गठजोड़ किया था।

तीसरा सपा ने 2017 में कांग्रेस और 2019 में बसपा के साथ गठजोड़ करके देख लिया है कि कांग्रेस या बसपा के साथ गठजोड़ से कोई निर्णायक बढ़त हासिल नहीं होने वाली है। 2022 में छोटी-छोटी पार्टियों के गठजोड़ करके भी देख चुकी है कि इन आधारों पर भाजपा को शिकस्त नहीं दे सकती है।

चौथा सपा को यह आशंका भी सता रही है कि यदि वह भाजपा को शिकस्त नहीं दे पाती है,तो ज्यादा दिनों तक वह मुसलमानों का वोट  उसे नहीं मिलने वाला है। उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के वोट पर बसपा, कांग्रेस और ओवैसी की निगाहें हैं।

ये शक्तियां कभी भी उससे मुस्लिम वोटों का बड़ा हिस्सा खींच सकती हैं,क्योंकि उत्तर प्रदेश में सपा मुसलमानों के सामने एकमात्र विकल्प नहीं है। आजमगढ़ के उपचुनाव में बसपा को मिले मुसलमानों के वोट और भाजपा की जीत ने उसके सामने एक बानगी भी प्रस्तुत किया है।

अतीत में मुसलानों का बड़ा हिस्सा सपा को छोड़कर बसपा के साथ खड़ा हो चुका है और लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को एक विकल्प के रूप में अपना चुका है। 2024 के लोक सभा चुनावों में राहुल गांधी उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के सामने कांग्रेस को एक मजबूत विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं। 

अतीत के इन सबकों के अलावा सपा को अपने विस्तार की कुछ सकारात्मक संभावनाएं भी दिखाई दे रही हैं। सबके अधिक उसकी निगाह बसपा के वोट बैंक पर है। 2022 के विधान सभा चुनाव के समय से सपा की निगाह बसपा के वोट बैंक पर है।

मायावती के नेतृत्व में बसपा का वोट बैंक लगातार सिकुड़ रहा है। कांशीराम ने उत्तर प्रदेश दलित राजनीति को बहुजन राजनीति तक विस्तारित किया था। उन्होंने दलितों के साथ पिछड़ों, विशेषकर अति पिछड़ों को मजबूत के साथ जोड़ा। पिछड़ों के अगड़े हिस्से के कुछ लोग भी बसपा के साथ जुड़े थे।

2007 मायावती के नेतृत्व में बसपा ने  दलितों, अति पिछड़ों, मुस्लिम और ब्राह्मण गठजोड़ के आधार पर उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। यह बसपा के इतिहास की सबसे बड़ी सफलता थी। उसके बाद बसपा लगातार सिकुड़ती गई है। अब वह सिर्फ जाटवों की पार्टी बनकर रह गई है। गैर-जाटव दलित भी धीरे-धीरे एक-एक करके उसका साथ छोड़ चुके हैं।

2022 के विधान सभा चुनाव में बसपा सिर्फ एक सीट जीत पाई और उसका वोट प्रतिशत 12.9 तक सिमट गया, जबकि 2017 के विधान सभा चुनावों में उसे 22.23 फीसदी वोट और 19 सीटें  मिली थीं। जबकि सपा को 2017 में 21.82 प्रतिशत वोट मिले और उसने 2022 में उसे 32.02 प्रतिशत वोट मिले। सपा और बसपा के वोट प्रतिशत यह बताते हैं कि बसपा के वोटों में जितनी प्रतिशत की गिरावट हुई, करीब उतने ही अधिक वोट सपा को अधिक मिले। ध्यान रहे कि सपा ने जब 2012 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी, तब उसे सिर्फ 29.13 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि 2022 में विधान सभा चुनाव में हार के बाद भी सपा को 32.02 प्रतिशत वोट मिला।

भाजपा के वोट लगातार बढ़ते वोट प्रतिशत ने उत्तर में जीत-हार के वोट प्रतिशत के समीकरण को बदल दिया। पहले यह समीकरण 30 प्रतिशत से थोड़ा ज्यादा या कम था, लेकिन भाजपा ने इसे 40 प्रतिशत से ऊपर पहुंचा दिया है। 

सपा यदि भाजपा को हराना चाहती है, तो उसे  भाजपा के वोटों में सेंध लगाने के साथ अपने वोट प्रतिशत को भी बढ़ाना होगा। सवर्ण मतदाता तो भाजपा का साथ छोड़ने से रहे, ऐसे में सपा अपने वोटों में अपनी हिस्सेदारी का प्रतिशत सिर्फ और सिर्फ पिछड़ों और दलितों में विस्तार करके ही बढ़ा सकती है।

इसके लिए सबसे पहली जरूरत यह थी कि सपा खुद को एक ऐसी पार्टी के रूप में प्रस्तुत करे, जिसकी वैचारिकी दलितों-पिछड़ों खींचने वाली हो। दलित ( विशेषकर जाटव) और सवर्ण ऐसे सामाजिक समूह हैं, जिनकी सबसे अधिक वैचारिक प्रतिबद्धता है। जहां सवर्ण ब्राह्मणवादी-मनुवादी वैचारिकी के साथ मजबूती से खड़ें, वहीं दलितों के अंदर सबसे अधिक ब्राह्मणवादी-मनुवादी वैचारिकी के खिलाफ घृणा है।

यदि सपा दलितों और दलितों के बौद्धिक हिस्से को अपने साथ करना चाहती है, तो उसे मनुवादी-ब्राह्मणवादी वैचारिकी के खिलाफ  खड़ा होना होगा। रामचरित मानस प्रकरण ने उसके लिए एक अवसर उपलब्ध कराया है। जहां बसपा इस मुद्दें पर चुप्प है या भाजपा-सपा से समान दूरी बनाते हुए बीच का रास्ता ले रही हैं, वहीं सपा इस मुद्दें पर आक्रामक है, भले इसके लिए स्वामी प्रसाद मौर्य के कंधे का इस्तेमाल किया जा रहा है।

इस मुद्दे पर सपा ने बसपा से बढ़त हासिल कर ली है और वैचारिक तौर पर सचेत दलित इस मुद्दे पर सपा की तरफ झुकें हुए दिख रहें हैं। दलितों का एक सचेत मुखर हिस्सा 2022 के चुनावों पहले ही सपा की तरफ झुका था।

इसकी सबसे बड़ी वजह बसपा का भाजपा के प्रति नरम रूख और मनुवाद-ब्राह्मणवाद के विरोध से किनारा करना था। उत्तर प्रदेश में जहां करीब-करीब सभी मुसलमान भाजपा के विरोध में हैं, वहीं दलितों का बड़ा हिस्सा भी आरएसएस-भाजपा को संविधान और डॉ. आंबेडकर की वैचारिकी के लिए सबसे बड़ा खतरा मानता है। पिछड़ों का भी एक हिस्सा आरएसएस-भाजपा को बहुजनों का सबसे बड़ा शत्रु मानता हैं।

उत्तर प्रदेश में जो लोग भी आरएसए-भाजपा के खिलाफ हैं, उन्हें विकल्प रूप में बसपा कहीं नहीं दिख रही है, क्योंकि बसपा भाजपा को खुले तौर पर चुनौती देती नहीं दिख रही है। कांग्रेस सांगठनिक तौर उत्तर प्रदेश में बहुत कमजोर स्थिति में है। अपने वैचारिक-राजनीतिक दिशा और संगठन की सामाजिक बनावट को बदल करक सपा भाजपा विरोधी सभी लोगों को अपने साथ कर लेना चाहती है। इसके कुछ संकेत 2022 के विधान सभा चुनावों में भी मिले थे। इसी का नतीजा था कि सपा  के वोटों में करीब 10 प्रतिशत की वृद्धि हुई और उसकी सीटें भी 54 से बढ़कर 125  हो गईं।

ऐसा लग रहा है कि सपा अपनी नए वैचारिक, राजनीतिक और सांगठनिक स्टैंड के माध्यम से उत्तर प्रदेश के दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों की एकमात्र पार्टी के रूप में प्रस्तुत करना चाहती है और यह भी साबित करना चाहती है कि उत्तर प्रदेश में योगी-मोदी को सिर्फ वही वैचारिक-राजनीतिक शिकस्त दे सकती है।

( सिद्धार्थ )

डॉ. सिद्धार्थ
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