इन तल्ख हकीकतों की नींव पर अपनी लोकलुभावन योजनाएं कैसे खड़ी करेंगे श्रीमान?

नरेन्द्र मोदी सरकार ने पिछले साल किसानों को देश भर में कहीं भी ई-प्लेटफार्मों पर अपनी उपज बेचने की ‘अनुमति’दी तो इसे उनके लिए ‘बेहद बड़ी राहत’बताया था। कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने तो यहां तक कह डाला था कि भारत को भले ही 1947 में ही स्वतंत्रता मिल गई थी, किसानों को तो यह अनुमति दिये जाने के बाद मिली है। हालांकि वे इस अनुमति में यह जोड़ने से भी नहीं चूके थे कि इसके लिए कानूनों का निर्धारण केंद्र सरकार की ओर से किया जाएगा और ऑनलाइन प्लेटफॉर्मों पर फ्रॉड के मामले भी इस सरकार के लेवल पर ही डील किए जाएंगे।

इसी तरह असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों से संबंधित राष्ट्रीय डाटा बेस तैयार करने के उद्देश्य से ई-श्रम पोर्टल लॉन्च किया गया तो कहा गया कि उससे देश के 38 करोड़ असंगठित कामगारों का जीवन बदल जायेगा। क्योंकि उक्त पोर्टल पर पंजीकरण के बाद उनको 12-अंकों की विशिष्ट संख्या वाला एक ई-श्रम कार्ड मिलेगा, जिसके जरिये वे देश में कहीं भी विभिन्न सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के तहत कल्याणकारी लाभ हासिल कर सकेंगे।
इसी कड़ी में अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने डिजिटल हेल्थ मिशन के विस्तार के रूप में फिलहाल, छः केन्द्रशासित प्रदेशों में प्रत्येक नागरिक को डिजिटल स्वास्थ्य आईडी प्रदान करने की योजना लांच की है तो सपना दिखाया जा रहा है कि इसके देशभर में लागू हो जाने के बाद नागरिक कहीं भी रहें, उनको अपनी बीमारियों और उनके इलाज की मोटी-मोटी फाइलें रखने के झंझट से छुटकारा मिल जायेगा। उनसे सम्बन्धित सारा डाटा उनकी डिजिटल स्वास्थ्य आईडी में, जो आाधार जैसी ही यूनीक आई डी होगी, संरक्षित रहेगा और जरूरत के वक्त महज एक क्लिक में सामने आ जायेगा। सम्बन्धित नागरिक की सहमति से उसे देश में कहीं भी, कभी भी और किसी भी डॉक्टर द्वारा देखा जा सकेगा।

ये तीनों बातें सुनने में बहुत भली लगती हैं और इस कारण बहुत लुभाती हैं। इनका एलान करने वालों का उद्देश्य भी शायद यही है कि देशवासी उनके हसीन सपनों में खोये रहकर अपनी वर्तमान दुर्दशाओं को भूले रहें और गुस्साएं नहीं। न ही कर्णधारों से कोई सवाल करें। जब भी राजनीति देश में जनहितकारी परिवर्तनों की विपरीत दिशा में मुड़ जाती है और मतदाताओं को ‘बनाने’ व राजनीतिक लाभ उठाने पर निर्भर करने लग जाती है, ऐसा ही होता है। हो भी रहा है।

इसीलिए अनुमति कहें, पोर्टल कहें या आईडी, इन तीनों ही मामलों में एक चीज कामन हो गई है। यह कि इनमें इनसे जुड़ी जमीनी हकीकतों का कतई ध्यान नहीं रखा गया है। इसलिए इनमें दिखाये गये सपनों को लेकर बस यही कहने का मन होता है कि काश, वे साकार हो पायें। क्योंकि डिजिटल प्रणालियों को विस्तार देने की धुन में मगन सरकार इस सच्चाई से भी रूबरू नहीं होना चाहती कि तकनीक के बल पर क्रांतिकारी बदलावों का कितना भी भ्रम रचा जाये, ऐसे बदलावों को अकेली तकनीक के बूते जमीन पर नहीं उतारा जा सकता। उनके लिए आर्थिक व सामाजिक बदलाव भी करने पड़ते हैं।

इस जमीनी हकीकत का, कि किसान अपनी फसल बेचने के लिए व्यापारी बना नहीं फिर सकता, ध्यान न रखे जाने का ही फल है कि देश भर में उपज बेचने की ‘आजादी’ के बावजूद किसान खुश नहीं बल्कि खफा हैं और दस से ज्यादा महीनों से आन्दोलन पर हैं। इसी तरह असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए ई-श्रम पोर्टल लॉन्च करते हुए इतना भी नहीं सोचा गया है कि अधिकांश असंगठित कामगार ऑनलाइन पंजीकरण करने में ही असमर्थ हैं क्योंकि वे डिजिटल साक्षरता से महरूम हैं। ऐसे ही डिजिटल स्वास्थ्य आईडी की योजना लांच की गई है, तो भुला दिया गया है कि नागरिकों को इसका लाभ तभी मिल सकता है, जब हमारा चिकित्सा तंत्र उसका बोझ उठाने में समर्थ हो।

अभी तो हालत यह है कि वह बीते अप्रैल-मई के महीनों में कोरोना से कोहराम वाले दौर की अपनी लाचारगी से ही नहीं उबर पाया है। हम जानते हैं कि तब इस तंत्र का ढांचा पूरी तरह चरमरा गया था। संक्रमितों को न अस्पतालों में बेड मिल पा रहे थे, न डॉक्टर और इन दोनों के अभाव में वे दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से अपनी जानें गंवा रहे थे। तब जनसंख्या के अनुपात में इनकी उपलब्धता बढ़ाए जाने की सख्त जरूरत महसूस की गई थी।
उस वक्त बहुतों को उम्मीद थी कि हालात सुधरते ही सरकार इस दिशा में प्रयत्न शुरू करेगी। लेकिन अब वह इस उम्मीद को उसके हाल पर छोड़कर डिजिटल स्वास्थ्य आईडी की योजना ले आई है, जबकि इस सवाल का जवाब नदारद है कि पर्याप्त संख्या में डॉक्टरों व अस्पतालों की व्यवस्था किये बगैर नागरिकों को इसका कौन सा लाभ और क्यों कर मिलेगा? डॉक्टर ही उपलब्ध नहीं होंगे तो एक क्लिक में सामने आने वाले नागरिकों के स्वास्थ्य डाटा का विश्लेषण कर उपचार भला कौन उपलब्ध करायेगा? अभी वस्तुस्थिति यह है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार एक हजार लोगों पर एक डॉक्टर होना चाहिए, लेकिन हमारे देश में डेढ़ हजार से अधिक लोगों पर एक डॉक्टर है। तीन सौ लोगों पर एक नर्स होनी चाहिए, जबकि 670 लोगों पर एक है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो हालत इससे भी बुरी है।

ठीक है कि कोरोना और लॉकडाउन के दौरान संचरण की बाधाओं से पार पाने के लिए टेलीमेडिसिन के रास्ते डॉक्टर व मरीज के बीच व्यक्तिगत संपर्क हुए बिना उपचार को बढ़ावा मिला और कई मायनों में उसके अच्छे नतीजे भी सामने आये। लेकिन किसे नहीं मालूम कि स्वास्थ्य क्षेत्र में पर्याप्त ढांचागत सुधार और प्रशिक्षित मानव संसाधन उपलब्ध कराये बगैर देश की बड़ी जनसंख्या को उसका लाभ नहीं दिया जा सकता।
केन्द्र सरकार इस बात को समझती तो पहले देश के हर जिले में एक मेडिकल कालेज व अस्पताल के लक्ष्य को यथासमय हासिल करने में लगती। साथ ही उस डिजिटल डिवाइड को भी दूर करती, जिसके कारण अनेक नागरिक आधुनिक प्रौद्योगिकी आधारित सार्वजनिक सेवाओं का लाभ नहीं उठा पाते। तब वह समग्र दृष्टिकोण के साथ यह योजना लाती तो स्वास्थ्य क्षेत्र को नया जीवन मिलता और बीमारियों के शिकार होने वाले नागरिकों को भी। लेकिन अभी तो डिजिटल स्वास्थ्य आईडी में उनके संवेदनशील स्वास्थ्य डाटा की सुरक्षा को लेकर भी सवाल उठाये जा रहे हैं और उसके दुरुपयोग की आशंका भी जताई जा रही है। यह आशंका भी कि निजी लाभ के लिए देश-विदेश की बड़ी दवा कंपनियां या साइबर अपराधी यह डाटा हासिल न कर लें।

यहां कहने का आशय यह कतई नहीं कि इस तरह की योजनाएं बनाई और चलाई ही न जायें। लेकिन चलाई जायें तो उन्हें खामियों से मुक्त और जमीनी हकीकतों के अनुरूप बनाया जाये। समझा जाये कि इनके अभाव में अच्छी योजनाओं की सफलता भी संदिग्ध हो जाती है और वे अंततः महज मृगमरीचिका सिद्ध होती हैं। हां, सरकार डिजिटल स्वास्थ्य आईडी की मार्फत सचमुच सभी नागरिकों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं देना चाहती है तो उसे इस सवाल का जवाब भी देना चाहिए कि इस बार के बजट में उसने स्वास्थ्य पर खर्च घटाकर 2020-21 के 82,928.30 करोड़ रुपयों के मुकाबले 71269 करोड़ रुपये क्यों कर दिया है?
(कृष्ण प्रताप सिंह जनमोर्चा के संपादक हैं और आजकल फैजाबाद में रहते हैं।)

कृष्ण प्रताप सिंह
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कृष्ण प्रताप सिंह