महिलाओं से फिर-फिर हैवानियत: पितृसत्ता की जड़ें उखाड़े बिना त्राण नहीं

देश के 75वें स्वतंत्रता दिवस को अभी कुल मिलाकर पखवाड़ा भर ही बीता है। इसलिए पाठकों को याद होगा: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उस दिन लालकिले की प्राचीर से अपने लम्बे सम्बोधन में स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं के योगदान की सराहना करते हुए देशवासियों से अपनी महिलाविरोधी मानसिकता में बदलाव लाने की अपील की थी। यह स्वीकारते हुए कि  ‘किसी न किसी वजह से हमारे अंदर यह सोच आ गई है कि हम अपनी वाणी से, अपने व्यवहार से, अपने कुछ शब्दों से महिलाओं का अनादर करते हैं’, उन्होंने देश के लोगों से रोजमर्रा की जिंदगी में ऐसी हर चीज से छुटकारा पाने का संकल्प लेने का आग्रह भी किया था, जो महिलाओं के लिए अपमानकारक हो।  

लेकिन झारखंड के दुमका शहर में एक सिरफिरे द्वारा 12वीं में पढ़ रही युवती को तथाकथित प्यार को ठुकराने की सजा के तौर पर जिंदा जला देने की नृशंस घटना हो या उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में अलग-अलग धर्मों के युवक-युवती के प्यार को धर्म व नाक की नोक पर रखकर दोनों को निर्दयतापूर्वक मार देने की, सब की सब यही बताती हैं कि प्रधानमंत्री की अपील का कहीं कोई असर नहीं हो रहा। हो रहा होता तो दुमका के सिरफिरे की मानसिकता कुछ तो बदली होती, जो उक्त युवती को 15 अगस्त के अरसा पहले से धमकाता आ रहा था कि अगर उसने उसके ‘प्यार’ को ठुकराने की जुर्रत की तो उसे मार डालेगा। 

लेकिन प्रधानमंत्री की अपील के बावजूद वह यह समझने में सर्वथा नाकाम रहा कि जैसे उसे वैसे उस युवती को भी अपनी मर्जी से अपना प्यार या कि जीवन साथी चुनने का अधिकार है। फिर तो एकतरफा तौर पर युवती पर अपनी मर्जी थोपने की कोशिश में उसकी जान से खेल जाने में भी उसे कुछ गलत नहीं लगा। अब झारखंड के सत्ताधीश भी सोते से ‘जाग’ गये हैं, समाज भी और देश के चारों ओर से उक्त सिरफिरे को कड़ी से कड़ी सजा देने की मांग उठ रही है। कहा जा रहा है कि ऐसे कृत्यों से ‘मोहब्बत के जज्बे को बदनाम करने वाले’ नरांधों को सबक सिखाने के लिए उसे सूली पर लटकाना जरूरी है। लेकिन जब वह युवती पर अपनी मर्जी थोपने की कोशिश में सता-सता कर उसका जीना दूभर किये हुए था तो युवती उसके विरुद्ध अपने संघर्ष में सर्वथा अकेली थी और सारा ताना-बाना युवक के पक्ष में था। 

निस्संदेह, इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि वह पुरुष है और पितृसत्तात्मक धर्म, समाज व सत्ता व्यवस्थाओं ने इक्कीसवीं शताब्दी के बाईसवें साल में भी सारी सहूलियतें उसके समुदाय के नाम कर रखी हैं। आखिरकार इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि जो पितृसत्तात्मक समाज संरचना आजादी के 75 साल बाद भी देश में लैंगिक समानता की संवैधानिक गारंटी को मुंह चिढ़ाती रहने को आजाद है और कई मायनों में हम चाहकर भी उसका बाल तक बांका नहीं कर पाते, उसने इस देश के ज्यादातर पुरुषों को अभी भी स्त्री-पुरुष समानता का पाठ पढ़ने से रोक रखा है। इतना ही नहीं, वह उनके दिलोदिमाग में लगातार भरती रहती है कि उनके मुकाबले महिलाओं का दर्जा दोयम है।

इसलिए न उन्हें महिलाओं पर तिरस्कारजनित अत्याचारों में कोई अपराधबोध सताता है, न ही तथाकथित  प्यार के जाये। अन्यथा सोचिये जरा कि क्या एकतरफा प्यार जैसी भी कोई चीज हो सकती है? उसे प्यार की संज्ञा इसलिए तो प्राप्त है कि पितृसत्ता का मानना है कि प्यार के मामले में भी वैसा ही बरतना महिलाओं का फर्ज है, जैसा पुरुष चाहें और उसकी इस मान्यता को इस तथ्य से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसने अभी तक ज्यादातर पुरुषों को महिलाओं से सभ्य ढंग से पेश आने की तमीज तक से महरूम कर रखा है। अकारण नहीं कि दुमका जैसी नृशंसता न पहली बार सामने आई है और न उसके आखिरी होने को लेकर आश्वस्त हुआ जा सकता है। 

दूसरे पहलू पर जायें तो यह एक खुला हुआ तथ्य है कि शातिर पितृसत्ता द्वारा महिलाओं के खिलाफ ऐसी नृशंसताओं को प्रायः ‘एकतरफा प्यार’ या ‘सिरफिरे आशिक की सनक’ बताकर सीमित व दरकिनार कर दिया जाता है। इससे मामला महज सिरफिरे तक सीमित हो जाता और पितृसत्ता को उससे जुड़े अनेक अप्रिय व असुविधाजनक सवालों से साफ बच निकलने की सहूलियत हासिल हो जाती है। मिसाल के तौर पर, तब कोई उससे इस सवाल का जवाब नहीं मांगता कि किसी पुरुष को यह हक क्योंकर दिया जा सकता है कि वह किसी महिला की मर्जी के खिलाफ उस पर हक जताये, उसके अपनी होने का दावा करे और दावा न मानने पर उसकी जान ले ले? 

हम जानते हैं कि महिलाओं के अधिकारों से जुड़े सवालों के जवाब देने में पितृसत्ता की अकड़ व असुविधाओं का इतिहास बहुत पुराना है। यही कारण है कि अतीत में उन्हें मताधिकार से लेकर चुनाव लड़ने के अधिकार तक और पैतृक संपत्ति में बराबरी की हिस्सेदारी से लेकर समान वेतन के अधिकार तक के लिए लम्बे-लम्बे संघर्ष करने पड़े हैं। लेकिन विडंबना यह कि अब जब भी ऐसे संघर्षों का जिक्र होता है, अपने को कहने वालों की ओर से भी महिलाओं से यही कहा जाता है कि अब तो उन्हें पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ने के अवसर दिये जा रहे हैं। मानो ऐसे अवसर उनका संवैधानिक अधिकार न होकर, उन पर किया जा रहा कोई एहसान हो। 

जहां तक दुमका की नृशंसता की बात है, कई कट्टरवादी संगठन उससे सामाजिक समस्या की तरह निपटने के बजाय उसका सांप्रदायिक एंगल ढूंढ़ लाये और उसी रंग में रंगने के फेर में हैं। इन संगठनों में, और तो और, प्रधानमंत्री की जमात के तथाकथित हिन्दूवादी संगठन भी शामिल हैं और इस ‘सुविधा’ का लाभ उठा रहे हैं कि पीड़ित युवती का नाम अंकिता और सिरफिरे का नाम शाहरुख है। वे इसे ‘हिंदू लड़की और मुस्लिम लड़के’ का मामला बनाकर तथाकथित लवजेहाद से जोड़ना और दुर्भावनाएं फैलाकर चुनावी लाभ उठाना चाहते हैं। 

यह मानने के कारण हैं कि उनका खेल बहुत बड़ा है और वे अंकिता के मामले को ‘हिंदू युवती पर अत्याचार’ प्रचारित कर ‘मुस्लिम’ बिलकिस बानो पर अत्याचार के मामले से अलग करना चाहते हैं, जिनके दोषसिद्ध गुनहगारों पर उनकी शुभचिन्तक गुजरात सरकार की हालिया नजर-ए-इनायत के बाद उनका महिलाद्वेषी होना सिद्ध करने के लिए किसी अन्य तथ्य की जरूरत ही नहीं रह जाती। वे जानते हैं कि पीड़ित महिलाओं को जातियों व धर्मों में विभाजित नहीं रख पाये तो वे परिवर्तन की ऐसी आंधी का आगाज कर डालेंगी, जो पितृसत्ता के सारे मंसूबों को उड़ा ले जायेगी। 

गौरतलब है कि उनका यह खेल महिलाओं के अपमान की उस मानसिकता से ही जुड़ा हुआ है, प्रधानमंत्री ने जिसका जिक्र अपने लाल किले के सम्बोधन में किया और बदलने की जरूरत जताई थी। सवाल स्वाभाविक है कि जब इन संगठनों को ही उनकी बात मानना गवारा नहीं है, इसलिए कि वे उस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार का हिस्सा हैं, जिसमें पितृसत्ता की तूती बोलती है और महिलाओं का प्रवेश तक निषिद्ध है, तो अन्य पितृसत्ता परस्तों से इसकी उम्मीद क्यों की जा सकती है? उन पितृसत्ता परस्तों का धार्मिक कट्टरता से ओत-प्रोत बड़ा हिस्सा तो ‘आंख के बदले आंख’ वाले अंधे इंसाफ के पक्ष में जा खड़ा हुआ है और समझना नहीं चाहता कि ऐसा इंसाफ एक तो इंसाफ नहीं बदला होगा और दूसरे पूरी दुनिया को ऐसे अंधत्व की ओर ले जायेगा, जिसमें महिलाएं और असुरक्षित हो लगेंगी।

एक विश्लेषक ने ठीक ही लिखा है कि अंकिता हों या बिलकिस दोनों की पीड़ाओं की जड़ें एक ही हैं और पितृसत्ता की जाई पुरुष श्रेष्ठता की जमीन में गहरे तक धंसी हुई हैं। इसलिए उनकी पीड़ा का समाधान भी एक ही है: इन जड़ों के साथ पितृसत्ता को उखाड़ फेंकना।

(कृष्ण प्रताप सिंह जनमोर्चा के संपादक हैं। और आजकल फैजाबाद रहते हैं।)

कृष्ण प्रताप सिंह
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