दुनिया को विनाश की तरफ ले जा रही है धरती पर कब्जे की साम्राज्यवादी मुल्कों की लड़ाई

धरती के कुख्यात और इतिहास के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य एक दूसरे पर चढ़ाई कर रहे हैं। एक खेमे का सिपहसलार जी7 (अमरीका, कनाडा, इटली, जर्मन, फ्रांस, ब्रिटेन और जापान) साम्राज्यवादी समूह हैं। दूसरे खेमे के सेनापति चीन और रूस हैं। अमरीका ने ऐलान कर दिया कि चीन और रूस को पाँच गाँव तो क्या सूई की नोक भर जमीन नहीं देगा। उधर चीन और रूस खुद को दुनिया के भावी सम्राट मानते हैं। वे खामोश कैसे बैठें ? सवाल धरती पर कब्जे का है। लगता है महाभारत टलेगा नहीं। धरती माँ एक बार फिर महाप्रलय देखेंगी। कितनी अभागी है धरती जो बार-बार अपने सीने पर अपने बच्चों की लाशों को ढोती है जिस सीने से दूध पिलाकर उन्हें पालती-पोषती है। उसका क्रंदन, उसका महाविलाप क्या यह विश्व सह पाएगा ? 

जी7 और नाटो के सदस्य देश तथा चीन और रूस अपनी-अपनी बिसात बिछा रहे हैं। लातिन अमरीका, एशिया और अफ्रीका के देश कुरुक्षेत्र की रणभूमि हैं। कुछेक पूर्वी-यूरोप के देश भी इसकी जद में आ जाते हैं। ताकि रूस के मुहाने पर नाटो की फौजी चौकी तैनात की जा सके। यूक्रेन युद्ध उसी का परिणाम है। 

अमरीका ने इस महाभारत में अपनी बिसात बखूबी बिछाई है। उसने “एशिया-प्रशांत महासागरीय आर्थिक सहयोग” का निर्माण किया। जिसमें एशिया, लातिन अमरीका, और उत्तरी अमरीका के सभी देश आ जाते हैं। ये देश विश्व के सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी) का 60 फीसदी तथा विश्व-व्यापार का 48 फीसदी का कारोबार करते हैं। अमरीका ने दक्षिण चीनी सागर में व्यापारिक यातायात पर कब्जा करने के लिए जहां से दुनिया की 70 फीसदी व्यापारिक आवाजाही तथा 3 ट्रिलियन डॉलर का प्रत्येक साल व्यापार होता है वहाँ पर “आयकुस (एयूकेयूएस)” की स्थापना की। आयकुस में अमरीका, आस्ट्रेलिया तथा ब्रिटेन शामिल हैं। ये तीनों देश परमाणु पनडुब्बी की तकनीक और निर्मित पनडुब्बी का लेनदेन करने में सक्षम होंगे जिससे ये  दक्षिण चीनी सागर में चीन की चुनौतियों का सामना कर सकेंगे।

भारत की बहुत चाहत थी कि इसमें शामिल कर लिया जाए। लेकिन अमरीका के हाथ बंधे थे वह एशियाई गुलाम को कैसे परमाणु हथियार और उसकी तकनीक से लैश कर सकता था। खैर छोड़िए भारत ऐसी बातों के गिले-शिकवे नहीं करता। इसके अलावा अमरीका ने “क्वाड (Quad)” बनाया। जिसमें अमरीका, आस्ट्रेलिया, जापान और भारत शामिल हैं। क्वाड का विस्तार करके “समृद्धि के लिए हिन्द-प्रशांत आर्थिक ढांचा” की स्थापना की। जिसमें क्वाड के चारों सदस्यों के अलावा एशियान देशों के 10 में से 7 देशों को भी शामिल किया गया। ये नया मंच उत्तरी-अमरीका, दक्षिण-अमरीका, ओशियान (oceania) देश तथा एशिया और पूर्वी-अफ्रीका के देशों को भी अपने में समेटता है। इसी क्रम में “आई 2 यू 2 (I2 U2 )” का मध्य एशिया में निर्माण किया। जिसमें भारत, इस्राइल, अमरीका और संयुक्त अरब अमीरात शामिल हैं। उपरोक्त सारे समझौते आर्थिक के साथ-साथ राजनीतिक और सैनिक समझौते भी हैं।

चीन ने दक्षिण एशिया के देशों के साथ “क्षेत्रीय व्यापक भागीदारी मंच” का निर्माण किया। जिसमें भारत और अमरीका शामिल नहीं हुए थे। चीन ने अफ्रीकी और एशिया के देशों को मिलाकर “ब्रिक्स (BRICS )” का निर्माण किया था। जिसमें भारत, ब्राज़ील, रूस, चीन और साउथ अफ्रीका मुख्य सदस्य थे तथा उज्बेकिस्तान,कजाकिस्तान आदि देश मेहमान के बतौर शामिल थे। भारत इसमें ट्रोजन हॉर्स की ही भूमिका निभा रहा है। वक्त पड़ने पर अमरीकी हितों की सुरक्षा करता नजर आता है। इसके अलावा चीन ने “एक बेल्ट एक रोड (ONE BELT ONE ROAD )” शुरू किया था जिसमें भारत और अमरीका को छोड़कर ज़्यादातर देश शामिल हैं। चीन ने लातिन अमरीकी देशों के साथ बड़े पैमाने पर व्यापार बढ़ाया है। रूस ने सीरिया का खुलेआम सैनिक हमला करके साथ दिया है। ईरानी न्यूक्लियर मसले पर चीन और रूस खुलेआम ईरान के पक्ष में खड़े रहते हैं।भारत ने अभी ईरान और रूस के साथ रूपये में व्यापार शुरू किया है। लेकिन रूस के उन्हीं बैंकों को अनुमति दी है जो जी7 देशों द्वारा प्रतिबंधित नहीं हैं।

यहाँ संक्षेप में उपनिवेशवाद की विकास प्रक्रिया पर एक नजर डालना उचित होगा। पूंजीवादी यूरोप ने शुरुआत में जिन देशों को अपना उपनिवेश बनाया; उसकी विशेषताएं थीं: राजनीतिक, आर्थिक और सैनिक रूप में उस देश पर काबिज होना। उदाहरण के तौर पर स्पेन, पुर्तगाल, फ्रांस और ब्रिटेन के उत्तरी और दक्षिण अमरीकी उपनिवेश, बाद में अफ्रीका और फिर भारत। इस परिघटना को साधारणत: उपनिवेशवाद की संज्ञा दी गयी। 19 वीं सदी के उत्तरार्ध और 20 वीं सदी के शुरुआत में लातिन अमरीका के ज़्यादातर देश स्पेन और पुर्तगाल से आज़ाद हुए। तुरंत ही संयुक्त राज्य अमरीका ने उनको गुलाम बनाना शुरू किया। लेकिन अब जनमानस की चेतना वहाँ पहुंच चुकी थी कि उनके देश को दुबारा सीधे कब्जा करके गुलाम बनाना आसान नहीं था। अमरीका ने उन देशों पर अपने पिट्ठू राजनीतिक सत्ता में बैठाया; जो उसी देश का उच्च वर्गीय गद्दार होता था।

इस पिट्ठू राजनीतिक सत्ता के द्वारा उस देश के प्राकृतिक संसाधन, मानवीय श्रम और बाजार पर सम्पूर्ण कब्जा अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का होता था। इस परिघटना को नव उपनिवेशवाद कहा गया। जिसको अमरीका ने तख़्ता पलट और तमाम दूसरे कुकृत्यों द्वारा अंजाम दिया। जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भी लातिन अमरीका के साथ-साथ अफ्रीका और एशिया में भी जारी रहा। 1990 में जो परिघटना सामने आई; उसका स्वरूप भिन्न है। 1990 में जी7 साम्राज्यवादियों ने कुछ संस्थान बनाए जिनके द्वारा वित्त और तकनीक के बल पर और तीसरी दुनिया के पूंजीपतियों की रजामंदी से इन देशों को उपनिवेश बनाया। आज के उपनिवेशवाद के लक्ष्ण हैं: वित्त और तकनीक। जिसको हम नव आर्थिक उपनिवेशवाद के रूप में जानते हैं।

इसी विश्व मंच पर आज भारत का शासक और पूंजीपति वर्ग नाट्य मंचन कर रहे हैं। 

हमारा मत है की भारत का शासक-शोषक पूंजीपति वर्ग जी7 साम्राज्यवादी देशों की नीतियां  पूर्णत: स्वीकार कर चुके हैं। जिनको हम नव आर्थिक उपनिवेशवादी नीतियों के तौर पर जानते हैं। ये गुलामी की नीतियां हैं। इस नयी गुलामी और अपने जी7 आकाओं के दम पर देशी पूंजीपति और भाजपा की सरकार अपनी सदियों की कुंठा निकालना चाहते हैं। कुंठा है दक्षिण-पूर्व एशिया पर वर्चस्व की। अपनी पूंजी बढ़ाने की। जी7 देशों के भेड़िये साम्राज्यवादी इस कुंठा और पूंजी के लालच का फायदा उठा रहे हैं। साम्राज्यवादी अपनी सदियों से चली आई लूट और शोषण को परवान चढ़ा रहे हैं। भारत के शासक-शोषक जी7 साम्राज्यवादियों के शत्रु-सहयोगी ( collaborator ) बन गए हैं। अपनी इच्छा से गुलामी का वरण करने वाले। चीनी और रूसी खेमे के साथ भी संबंध एक हद तक कायम रखते हैं और अपनी आजादी बनाए रखते हैं। इस नव आर्थिक उपनिवेशी गुलामी में भारत के शासकों की वर्चस्व की कुंठित इच्छा भी एक हद तक पूरी हुई है और पूंजीपति वर्ग की पूंजी भी बेशक बढ़ी है। 

अमरीका और यूरोपीय संघ की अर्थव्यवस्थाएं असमाधेय संकट से गुजर रही हैं। अमरीका में महँगाई ने पिछले 40 साल का रिकॉर्ड तोड़ दिया है। अमरीकी फेडरल रिजर्व बैंक को ब्याज दर बढ़ानी पड़ी। जिसका असर यूरो सहित सभी देशों की मुद्रा पर पड़ रहा है। ब्रिटेन में मजदूरों कि लम्बी हड़ताल जारी है। बोरिस जॉन्सन को राष्ट्रपति पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा। यूक्रेन युद्ध इसी संकट का परिणाम है। यह असमाधेय संकट इनका अंदरूनी संकट है, पूंजी संचय का संकट है। ऊपर से इस अंदरूनी पूंजी संचय के असमाधेय संकट के दौर में चीन की चुनौती। चीन भी अपनी तकनीक और वित्तीय ताकत के दम पर दुनिया का सिरमौर बनना चाहता है और जी7 साम्राज्यवादियों को टक्कर दे रहा है।  

अमरीका और यूरोपीय संघ दुनिया में अपनी तकनीकी बढ़त बनाये रखना चाहते हैं; जिसके दम पर वे अपनी डूबती अर्थव्यवस्था को पार लगा पायें। ग्रीन ऊर्जा में ये देश अभी चीन से आगे हैं। जिसके लिए डिजिटल अर्थव्यवस्था, खनिज पदार्थ, सेमी कंडक्टर, बैट्री बनाने के उत्पाद, कोबाल्ट आदि की बेहद आवश्यकता है। इसके दम पर ये अपने देशों के मध्यम वर्ग को रोजगार दे सकेंगे और उनको संतुष्ट रख सकेंगे। नहीं तो स्वर्ग में आग लगने का डर है। ये सारे प्राकृतिक उत्पाद दुनिया की धरती पर कब्जा करके, वहाँ से लूटकर लाये जाएंगे। जिसके लिए जरूरी है कि विश्व यातायात के रास्तों पर इन साम्राज्यवादियों का कब्जा हो। 

अमरीका और यूरोपीय संघ ने अपना असमाधेय संकट तीसरी दुनिया के देशों पर लाद दिया। जी20, क्वाड, आई 2 यू 2, आयकुस, एशिया- प्रशांत महासागरीय आर्थिक सहयोग आदि के माध्यम से एक विश्व आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था तैयार कर दी। जिसके पीछे नाटो के सैनिक खड़े हैं। अब पूरी दुनिया की धन-सम्पदा निर्बाध बहती हुई जी7 साम्राज्यवादियों की  तिजौरियों में पहुँच जाएगी। 

जी7, जी20 और क्वाड की विगत सभाओं में मुख्य मुद्दे थे: सौर प्रणाली, इलेक्ट्रॉनिक वाहन, निर्माण केंद्र, वितरण, भंडारण, विश्व व्यापारिक यातायात सुरक्षा। इसके लिए तीसरी दुनिया के देशों की धरती और सस्ते श्रम का प्रयोग तथा जी7 साम्राज्यवादी और दूसरे विकसित देशों की तकनीक और वित्तीय निवेश। इस नयी विश्व आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था को बरकरार रखने के लिए आपसी सैनिक समझौते। 

पिछले दो बार से भारत को जी7 की सभाओं में आमंत्रित किया जाता है। इस बार भी मोदी सहर्ष जी7 की सभा में हिस्सा लेने जर्मनी गए। क्वाड और जी7 की सभाओं के बाद भारत ने अमरीका, जापान, यूरोपीय संघ, आस्ट्रेलिया और दक्षिण कोरिया के साथ ताबड़तोड़ समझौते किए। जिनमें मुख्य हैं: आवश्यक और नयी उभरती तकनीक, नेतृत्वकारी सुरक्षा एजेंसियों के बीच समझौते, एक संयुक्त सैन्य बल में शामिल होना, व्यापार और वित्तीय निवेश, रक्षा संबंधी उत्पादन, शिक्षा, विज्ञान और तकनीक, खेती में शोध और खेल-कूद, समुद्री क्षेत्र के लिए हिन्द-प्रशांत साझेदारी, अन्तरिक्ष आधारित सिविल अर्थ ओब्जर्वेशन डाटा साझा करना, उपग्रह डाटा पोर्टल, क्वाड ऋण प्रबंधन संसाधन पोर्टल, क्वाड साइबर सुरक्षा साझेदारी के तहत क्षमता निर्माण, प्रत्येक क्वाड देश के 25 छात्रों के लिए अमरीका में फेलोशिप तथा 26/11 मुंबई हमले और पठानकोट हमले का खंडन किया।  

भारत जी7 की नीतियों के अनुसार संरचनागत सुधारों को जमीन पर उतार रहा है। ये संरचनागत सुधार अर्थव्यवस्था, राजनीति, सामरिक, मनोवैज्ञानिक और शिक्षा सभी क्षेत्रों में हो रहे हैं। भारत सरकार ने “उद्यमों और सेवा केन्द्र का विकास”, इन्नोवेशन परिसर, आंध्र प्रदेश में टी-हब (केन्द्र ) 2.0 का निर्माण जो दुनिया का विशाल औद्योगिक केन्द्र है। श्रम कानून बदलकर 4 औद्योगिक संबंध कोड बनाना। महिंद्रा और महिंद्रा इलेक्ट्रॉनिक वाहन में 70,000 करोड़ रूपये निवेश करेगी जिसमें 125 करोड़ रूपये ब्रिटिश अंतर्राष्ट्रीय निवेश होगा, जापान की कंपनी रेनेशा और टाटा मोटर्स सेमिकंडक्टर चिप बनाएंगी, नवीनतम और अक्षय ऊर्जा मंत्रालय तथा अंतर्राष्ट्रीय अक्षय ऊर्जा एजेंसी समझौता कर चुके हैं, दक्षिण कोरिया की कंपनी एल जी ऊर्जा सोल्यूशन भारत में 13000 करोड़ रूपये का निवेश करेगी। संयुक्त अरब अमीरात फूड कोर्ट में बिलयनों डॉलर निवेश करेगा तथा अडानी समूह वहाँ की हाफिया बन्दरगाह में निवेश करेगा।

भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार सबके विकास के लिए संरचनागत सुधार जरूरी है। वित्तीय, बैंक, बीमा, शोध और विकास तथा अन्य सेवाओं में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश दूसरे सभी क्षेत्रों से ज्यादा है जिसमें वित्तीय सेवा क्षेत्र 152 समझौतों के तहत 7.3 बिलियन डॉलर है तथा ई-कॉमर्स 101 समझौतों के तहत 4.2 बिलियन डॉलर है। रूपये की कीमत गिरती जा रही है। उत्पादन का वितरण पहले ही अमेज़न और वालमार्ट जैसी कुख्यात कंपनियों के हाथ में जा चुका है तथा संचार के साधनों पर फेसबुक, व्हाट्सएप और ट्विटर का कब्जा है। रक्षा मंत्रालय ने अपनी धरती पर अतिक्रमण रोकने के लिए कृत्रिम इंटेलिजेंस, उपग्रह से फोटो लेना शुरू किया है। जो सूचनाएं अमरीका तथा दूसरे जी7 देशों के साथ साझा की जाएगी। इससे पहले भी रक्षा क्षेत्र में अमरीका के साथ कई महत्त्वपूर्ण समझौते हो चुके हैं। जिनमें बीका (बुनियादी विनिमय और सहयोग), लिमोआ (रसद विनिमय और ज्ञापन) तथा कोमकासा (संचार अनुकूलता और सुरक्षा समझौता)। नीति आयोग ने ग्रीन हाइड्रोजन में शोध और विकास के लिए 1 बिलियन डॉलर के निवेश का एलान कर दिया। शिक्षा में शत्रु-सहयोगी (collaboration) समझौते अमरीका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया आदि देशों के साथ रोज़ हो रहे हैं। खेती में सींगेनता जैसी डिजिटल बहुराष्ट्रीय कंपनी अपने कदम रख चुकी है। 

इन समझौतों से किसको लाभ हुआ ? यह पानी की तरह साफ है कि इन नव उदरवादी नीतियों से सिर्फ और सिर्फ देशी-विदेशी पूंजीपतियों को लाभ हो रहा है। बाकी जनता गुलामी का जीवन जी रही है और जीएगी। इन नीतियों ने आर्थिक, राजनीतिक, सामरिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक और शैक्षणिक तमाम ढांचा बदलकर एकदम नया बना दिया है। जिसमें सब कुछ बाज़ार के लिए है और राज्य-मशीनरी की कम से कम भूमिका है। इंसान की रूह, उसका अंत:करण, उसकी नैतिकता, उसकी संवेदना, उसकी नींद-चैन, औरतों कि अस्मिता, इन्सानों का श्रम, उनके दिल की धड़कन, उनके सपने सब खरीद-बिक्री के लिए बाज़ार में नीलाम हैं।

लातिन अमरीका, अफ्रीका से लेकर एशिया तक पूरी दुनिया को जहन्नुम में तब्दील कर दिया गया। पर्यावरण असंतुलन और परमाणु हथियारों का जखीरा किसी भी मिनट धरती को लील जाने की स्थिति में हैं। भुखमरी, बेरोजगारी, अशिक्षा, अंधविश्वास, घृणा, हिंसा, नशा खोरी, वेश्या वृत्ति, सांप्रदायिकता, जातिवाद, राष्ट्रीयताएं, आदिवासी समस्या। पूंजीवाद ने शासकों और शोषकों को गलीज पतनशील मुनाफाखोर तल छट इंसान में तब्दील कर दिया है और इसके बदले ये पतनशील मुनाफाखोर पूंजीपति पूरे समाज को पतन और तल छट के पारावार में धकेल रहे हैं। 

इस इंसान विरोधी, समाज विरोधी और प्रकृति विरोधी अंजाम के पीछे 1990 की नव उदरवादी नीतियां हैं। जिसका मतलब है: निजीकरण, वैश्वीकरण और उदारीकरण। जिनका जी7 के नेतृत्व में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन संचालन करते हैं। इसको ये ऋण के जरिये, प्रत्यक्ष विदेश निवेश, विदेशी पोर्टफोलियो निवेश, इक्विटी और सिक्योरिटी निवेश आदि के जरिये तीसरी दुनिया पर थोपते हैं। इन्हीं नीतियों पर 1990 में भारतीय  शासक-शोषक पूंजीपतियों ने हस्ताक्षर किए थे। उनको अपने देश और जहाँ तक हो सके दुनिया के दूसरे देशों को लूटने के लिए अब पूंजी और तकनीक चाहिए थी। क्योंकि इंन्होंने आज़ादी के बाद ज़मीन वितरण नहीं किया था। जिससे लोगों की क्रय शक्ति पैदा नहीं हुई और  इनका बाज़ार बहुत संकुचित रह गया तथा पूंजी संचय तथा उसके निवेश का मार्ग अवरुद्ध हो गया था। 

निष्कर्ष के तौर पर, हम कह सकते हैं कि साम्राज्यवादी जी7 और नाटो के सदस्य देश तथा रूस-चीन पूरी धरती पर अपना राज कायम करना चाहते हैं। उसके बेटे-बेटियों को गुलाम बनाने पर आमादा हैं, उनके दिलो-दिमाग, उनके सपनों और हड्डियों का चूरा बनाकर अपनी तिजोरिया भरना चाहते हैं। इसी क्रम में साम्राज्यवादियों ने भारत को नव आर्थिक उपनिवेश में तब्दील कर दिया जिसकी मुख्य विशेषताएं है वित्तीय और तकनीकी निवेश तथा सैनिक ताकत तो हमेशा इसके पीछे खड़ी ही रहती है। हमारे शासक-शोषकों ने अपने कुंठित वर्चस्व कि लालसा और जनता कि लूट और शोषण के लिए इस नव आर्थिक उपनिवेशवाद को अपनी खुशी से स्वीकार किया और समराजयवादियों के शत्रु-सहयोगी बन गए। 

देश के शासक-शोषक पूंजीपति वर्ग नयी साम्राज्यवादी विश्व आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था में अपनी जगह तय कर चुके हैं ; जो उनके हितों के अनुसार है। अब देश की  80 फीसदी अवाम को सोचना है कि उन्हें गुलाम बनकर जीना है या आज़ादी की हवा में सांस लेना  हैं। गुलाम रोज़ तिल-तिलकर मरता है, ज़लालत-बेइज्जती झेलता है। आज़ाद ज़िंदगी में बस एक बार मरता है, जिंदगी भर लड़ता हुआ शान से जीता है तथा अपने पीछे संघर्ष की एक शानदार गाथा छोड़ जाता है। 

हम आज़ादी चाहते हैं, सम्मान से जीना चाहते हैं, अपने परिवार में सुख-चैन चाहते हैं, अपनी प्रकृति से प्यार करते हैं; तो बात साफ है हमको संगठित होकर लड़ना होगा। हर कदम पर लड़ना होगा। शासक-शोषक से लड़ना होगा, अपने बीच के बँटवारों से लड़ना होगा, हमको जाति-धर्म, क्षेत्र, औरत-मर्द से ऊपर उठना होगा और एकता बनानी होगी। तभी हम इस अन्यायपूर्ण, गैरबराबरीपूर्ण, शोषक और लुटेरी विश्व पूंजीवादी अर्थव्यवस्था तथा राजनीतिक व्यवस्था से मुक्ति पा सकते हैं अन्यथा नहीं।  

(राणा हरेंद्र का लेख।)

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