बे-बर्फ गुलमर्ग, हसदेव के कटते जंगल और लक्षद्वीप पर देश में बरपता शोर

नई दिल्ली। पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लक्षद्वीप की यात्रा की। वहां के एक तट पर चहलकदमी किया, डुबकी लगाई और समुद्र की अथाह शांति भरे किनारों पर बैठकर नजारों का मजा लिया। ये सारे फोटो सोशल मीडिया से लेकर अखबारों तक के पन्नों पर भर गये। अयोध्या में राम की आस्था में खुद को रमे हुए दिखाने के बाद उन्होंने रोड-शो किया और फिर लक्षद्वीप की यात्रा पर निकल गये। एक सफल जिंदगी का यह मॉडल मध्य और उच्चवर्ग को निश्चित ही लुभा गया होगा। और, देखते ही देखते लक्षद्वीप पर्यटन के चर्चित स्थल में शुमार हो गया।

मालदीव सरकार के कुछ मंत्रियों ने मोदी पर नागवार गुजरने वाली टिप्पणियां कर दीं। फिर क्या था, पर्यटन का लुत्फ उठाने वाले और इसके व्यापार में सिर तक डूबी कंपनियों ने आसमान सर पर उठा लिया। इस मसले को दो देशों के बीच के राजनयिकों के बीच रहना चाहिए था, उसे घसीटकर, खासकर फिल्म से जुड़े कलाकारों ने देशभक्ति के मैदान में उतार लिया। हालांकि, उनके बयानों से कतई पता नहीं चल रहा कि वे लक्षद्वीप के समुद्री तट का पक्ष ले रहे हैं या नरेंद्र मोदी का, लेकिन उनके बयान मालदीव को सबक सीखा देने के इशारों से भरे जरूर थे।

जिस समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लक्षद्वीप के समुद्री तट पर फोटो उतारा जा रहा था उसी समय भारत के सबसे घने जंगलों में से एक हसदेव के हजारों पेड़ों को काटा जा रहा था। विरोध कर रहे आदिवासी समुदाय और कार्यकर्ताओं को पुलिस बल से एक किनारे किया जा रहा था। उनके प्रदर्शन पर बल प्रयोग किया जा रहा था। यह दृश्य भी प्रकृति से जुड़ा हुआ था। पेड़ों को काटना, गिराना और उस क्षेत्र को वीरान कर देने का दृश्य भी इस देश के हृदय-स्थल में घट रहा था। लेकिन, ये दृश्य मीडिया से बाहर थे। इसे छापने, दिखाने के लिए कोई तैयार नहीं था।

इसी तरह, एक और दृश्य कश्मीर से आया, गुलमर्ग के नंगे पहाड़ और वीरानियों से भरे रिसोर्ट। यह कुछ अखबारों और डिजिटल मीडिया में छोटी खबर तस्वीर के साथ छपी। लेकिन चर्चा में नहीं आई। अमूमन, दिसम्बर के अंत और जनवरी के पहले हफ्ते तक गुलमर्ग के उठते विशाल मैदान बर्फ की मोटी चादरों से भर उठते हैं। इन उठते मैदानों के छोरों पर बर्फ से भरी विशाल पर्वतीय चोटियां किसी को भी रूमानियत से भर दें। दर्जनों फिल्में इस खूबसूरत नजारे को आज भी अपनी रीलों में भरे हुए हैं। इस बार वहां पर वीरानी छाई हुई है। अभी तक छिटपुट कुछ बर्फ गिरने के अलावा कुछ नहीं हुआ। वहां नंगी वीरानियां हैं।

आप कल्पना करिये, यदि प्रधानमंत्री का एक फोटो इस वीरानियों के साथ होता। या, कुछ ऐसा ही फोटो हसदेव के कटते जंगलों के परिदृश्य में होता, तब क्या पर्यटन को लेकर इसी तरह की बयानबाजियां और देश की खूबसूरती के इतने ही गुणगान होते? तब एक असहज चुप्पी के अलावा और क्या हो सकता है? हमने इस तरह की चुप्पियों को कई और मसलों पर देखा है।

लेकिन, जिस तरह पर्यटन जैसे मसले पर बयानबाजियां हो रही थीं, उसमें गुलमर्ग के नंगे पहाड़ी मैदान और हसदेव की वीरानियां सौंपने वाली कार्रवाइयों के दृश्य ओझल हैं। ऐसा नहीं है कि इन दृश्यों से वे अनभिज्ञ होंगे। कतई नहीं। जाड़ों में गुलमर्ग की सैर कराने वाले पर्यटन उद्योग की कंपनियां खूब जानती होंगी। बस उन्होंने इस पर चुप्पी साध लिया और पर्यटन का ख्वाब देखने वाले निम्न मध्यवर्ग को सस्ता, टिकाऊ लक्षद्वीप का वह तट दिखा दिया जिसके किनारों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बैठे हुए हैं। निश्चित ही इसमें देशभक्ति की चासनी लगा दी गई जिससे पर्यटन, देशसेवा और प्रधानमंत्री के प्रति पक्षधरता भी सिद्ध हो सके।

जिस समुद्र के किनारे प्रधानमंत्री मोदी बैठे हुए फोटो खिंचा रहे थे, वह समुद्र अल नीना के प्रभाव से गर्म है। जिस राज्य से प्रधानमंत्री मोदी आते हैं, उस गुजरात का समुद्र भी गर्म है। इस अल नीना प्रभाव से समुद्र से उठने वाले बादल न तो पश्चिमोत्तर भारत में उतर रहे हैं और न ही दक्षिण के तटीय इलाकों में। जिस समुद्र को इतना शांत दिखाया जा रहा है, वह उतना शांत नहीं है। सुनामी ने इन इलाकों को मौत और तबाही के मंजर में बदल दिया था।

धरती का ताप जितना बढ़ रहा है, समुद्र उतना ही अशांत हो रहा है। उसकी गर्म हवाएं बारिश की संभावना को कम कर रही हैं, चक्रवातों को बढ़ा रही हैं और सूखे का मंजर पैदा कर रही हैं। यह दृश्य पर्यटन के लिए जितना भी उपयुक्त हो, लेकिन इसके नीचे पैदा हो रहे उन विक्षोभों को छुपा ले जा रहा है जिसका खामियाजा सिर्फ अपना देश ही नहीं, एशियाई देश भुगत रहे हैं।

मौसम विभाग ने पश्चिमी विक्षोभ की भयावह कमी के बारे में रिपोर्ट जारी की है जिससे पहाड़ों में सामान्य रूप से न तो बारिश हो रही है और न ही बर्फबारी। पूरे पश्चिमोत्तर भारत में बारिश की कमी से रबी की फसल पर असर पड़ रहा है और किसानों की लागत में बढ़ोत्तरी हो रही है। यही स्थिति भारत के दक्षिणी राज्यों की भी है जहां सामान्य से काफी कम बारिश हो रही है। (विस्तार के लिए यह रिपोर्ट देखें- कड़ाके की ठंड, घना कोहरा और बारिश की कमीः यह जाड़ा किसानों को संकट की ओर ले जा रहा है।)

कॉप-28 में भारत ने विकास को सर्वोपरि रखने की नीति को दुहराया और घोषित किया कि रिन्यूएबल एनर्जी का प्रयोग बढ़ा देगा। इसी दौरान, रिन्यूएबल एनर्जी में और अधिक निवेश बढ़ाने का वादा और दावा अडानी ने भी एनडीटीवी को दिये साक्षात्कार में किया है। जबकि सच्चाई है कि पिछले एक साल में कोयले का उत्पादन पिछले सारे रिकॉर्ड को तोड़ते हुए 38 प्रतिशत की दर से आगे जा रहा है। कुछ अन्य रिपोर्ट में इसमें 48 प्रतिशत तक की वृद्धि दिखाई गई है। कोयला उत्पादन में यह बढ़ोत्तरी जंगलों के कटान और जमीन के क्षरण को बढ़ाने में लगी हुई है।

इसी दौरान कोयला उत्पादन को और अधिक गति देने के लिए हसदेव के जंगलों की कटाई और एक और खदान शुरू करने को हरी झंडी देना था। कई सारे कानूनी प्रावधानों और पर्यावरण की चिंताओं को किनारे कर वहां पेड़ों को काटने, बसावटों को हटाने का काम शुरू हो गया। हसदेव जंगल सिर्फ अपने विस्तार और पेड़ों की सघनता, जीवों और मनुष्यों के आवास के लिए ही नहीं जाना जाता है। इस जंगल की अपनी जलक्षमता और स्रोतों की निर्माण व्यवस्था है। इसके जलस्रोत छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा बनाते हैं। यह देश के मध्य में स्थित विशाल दायरा लिए हुए है। इसकी कटाई का अर्थ है देश के हृदय स्थल को वीरान बना देना।

हमने प्रकृति के तीन दृश्यों के बारे में बात की। इन तीनों दृश्य एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इनकी घनिष्टता सिर्फ देश की प्रकृति, खेती और हमारे आम जीवनचर्या से ही नहीं जुड़ी हुई है। यह हमारी धरती के स्वास्थ्य से जुड़ी हुई है। 2023 दुनिया और भारत के लिए भी सबसे गर्म साल रहा। धरती का ताप बढ़ रहा है। समुद्र में उठती हुई गर्मी सिर्फ तटों तक नहीं रहती है, वह पहाड़ों की बर्फीली चोटियों को प्रभावित करती है। बर्फ से भरी चोटियां मैदानी इलाकों में उतरते हुए समुद्र तक पहुंचने वाली नदियों को प्रभावित करती हैं।

धरती का ताप और सूखा हमारे जंगलों को प्रभावित करता है और बार-बार उन्हें आग के हवाले करता है। मुनाफे की हवस, विकास के दावे सिर्फ धरती के ताप को ही नहीं बढ़ा रहे हैं, वे जंगलों, नदियों और पहाड़ों को नष्ट कर रहे हैं और इसका सीधा असर मैदानी इलाकों पर भी पड़ रहा है। विकास की जीडीपी दर देश की कुल संपदा में वृद्धि को दर्ज करती है, लेकिन इसके वितरण को नहीं बताती।

आंकड़ें बता रहे हैं कि संपदा के स्तर पर न तो रोजगार है और न ही आम संपन्नता। विकास का ट्रिकल डाउन सिद्धांत भी अब काम नहीं कर रहा है जबकि प्रकृति की विपन्नता तेजी से बढ़ रही है। और, वह अब दिख रहा है। जरूरत है विकास के चल रहे मॉडल को समझने और वैकल्पिक मॉडलों के बारे में बात करने की। एक नागरिक के तौर पर आर्थिक विकास के बारे में सोचना और उपयुक्त रास्ते की तलाश एक जरूरी कदम है।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)

अंजनी कुमार
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