जयंती पर विशेष: हाशिये की महिलाओं की जुबान थीं इस्मत चुगताई

उर्दू और हिंदी की दुनिया में ‘इस्मत आपा’ के नाम से मशहूर इस्मत चुगताई की पैदाइश उत्तर प्रदेश के बदायूं शहर की है। अलबत्ता उनका बचपन और जवानी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के कई शहरों में गुजरा। बाद में वे बंबई पहुंची, तो वहीं की होकर रह गईं।

इस्मत चुगताई की जिंदगी पर शुरुआत से गौर करें, तो उन्हें बचपन से ही पढ़ने का बहुत शौक था। हिजाब इम्तियाज अली, मौलवी नजीर अहमद, अल्लामा राशिदुल-खैरी, हार्डी, ब्रांटी सिस्टर्ज से शुरू करके वे जार्ज बर्नार्ड शा तक पहुंचीं। चार्ल्स डिकेंस को पढ़ा, डेविड कॉपरफील्ड, ओलिवर ट्विस्ट, टोनो बंगे आदि सभी पढ़ डाले। मगर उन्हें सबसे ज्यादा मुतास्सिर रूसी अदीबों ने किया।

अपनी पढ़ाई के दौरान उन्होंने दुनिया भर के प्रसिद्ध लेखक गोर्की, एमिली जोला, गोगोल, टॉलस्टाय, दोस्तोयेव्स्की, मोपासां, बाल्जक, माम, आर्नेस्ट हेमिंग्वे वगैरह की रचनाएं खोज-खोजकर पढ़ीं। खास तौर पर वे चेखव से काफी प्रभावित थीं। जब वे किसी कहानी पर अटक जातीं, या वह कहानी जैसा वह चाह रहीं हैं, नहीं बन पा रही होती, तो वे कहानी को छोड़कर चेखव की कहानियां पढ़ने लगतीं।

जाहिर है इसके बाद उनकी कहानी अपनी राह पर आ जाती। लिखने में वे हमेशा पढ़ने का लुत्फ महसूस करती थीं। यही वजह है कि उनकी कहानियों में पाठकों को भी लुत्फ आता है। एक बार जो कोई उनकी कहानी उठाता है, तो मजाल है कि वह अधूरी छूट जाए।

जहां तक इस्मत चुगताई की कहानियों की भाषा का सवाल है, तो वे अपनी कहानियों में अरबी, फारसी के कठिन अल्फाजों के इस्तेमाल से बचती थीं। घरों में बोली जाने वाली जबान, उनकी कहानियों की भाषा है, जिसमें उर्दू जबान भी है और हिंदी भी। उनके सारे अदब को उठाकर देख लीजिए, उसमें ठेठ मुहावरेदार और गंगा-जमुनी जबान ही मिलेगी।

उनकी भाषा को हिंदी-उर्दू की हदों में कैद नहीं किया जा सकता। उनकी भाषा प्रवाह शानदार है। फिर वह किरदारों की जबान हो या फिर नेरेशन की भाषा। अपनी रचनाओं में वे कई जगह व्यंग्य करने और चुटकी लेने से भी बाज नहीं आतीं। व्यंग्य करने और चुटकी लेने का उनका अंदाज कुछ-कुछ मंटों की तरह है।

अफसानानिगार कृश्न चंदर, इस्मत के कहानी संग्रह ‘चोटें’ के आमुख में लिखते हैं, ‘‘सम्मत को छुपाने में, पढ़ने वाले को हैरतो इज्तिराब में गम कर देने में, और फिर यकायक आखिर में उस इज्तिराबो-हैरत को मसर्रत में मुबद्दल कर देने की सिफ्त में इस्मत और मंटो एक दूसरे के बहुत करीब हैं और इस फन में उर्दू के बहुत कम अफसानानिगार उनके हरीफ हैं।’’ बयान में अल्फाज को बकद्रे किफायत इस्तेमाल करना इस्मत चुगताई की नुमायां खासियत रही है। उनके किसी भी अफसाने को उठाकर देख लीजिए, वे जिन अल्फाजों को इस्तेमाल करती हैं, पूरी तरह से सोच-समझकर करती हैं।

इस्मत चुगताई किस तरह से अपना लेखन करती थीं, इसके बारे में मंटो लिखते हैं, ‘‘इस्मत पर लिखने के दौरे पड़ते हैं। न लिखें तो महीनों गुजर जाते हैं, पर जब दौरा पड़े तो सैंकड़ों सफ्हे उसके कलम के नीचे से निकल जाते हैं। खाने-पीने, नहाने-धोने का कोई होश नहीं रहता। बस हर वक्त चारपाई पर कोहनियों के बल पर औंधी अपने टेड़े-मेढ़े आराब और इमला से बेनियाज खत में कागजों पर अपने ख्यालात मुंतकिल करती रहती हैं। ‘टेढ़ी लकीर’ जैसा तूल-तवील नाविल, मेरा ख्याल है, इस्मत ने सात-आठ निशस्तों में खत्म किया था।’’ (सआदत हसन मंटो-दस्तावेज 5, पेज 65)

इस्मत चुगताई के एक और समकालीन कृश्न चंदर, इस्मत के बयान की रफ्तार के मुताल्लिक लिखते हैं, ‘‘अफसानों के मुतालों से एक और बात जो जहन में आती है, वह है घुड़दौड़। यानि रफ्तार, हरकत, सुबुक खरामी और तेज गामी। न सिर्फ अफसाना दौड़ता हुआ मालूम होता है, बल्कि फिक्रे, किनाए और इशारे और आवाजें और किरदार और जज्बात और अहसासात, एक तूफान की सी बलाखेजी के साथ चलते और आगे बढ़ते नजर आते हैं।’’

इन सब बातों से इतर इस्मत चुगताई खुद अपनी लेखन कला के बारे में कहती थीं, ‘‘लिखते हुए मुझे ऐेसा लगता है, जैसे पढ़ने वाले मेरे सामने बैठे हैं, उनसे बातें कर रही हूं और वो सुन रहे हैं। कुछ मेरे हमख्याल हैं, कुछ मोतरिज हैं, कुछ मुस्करा रहे हैं, कुछ गुस्सा हो रहे हैं। कुछ का वाकई जी जल रहा है। अब भी मैं लिखती हूं तो यही एहसास छाया रहता है कि बातें कर रही हूं।’’

इस्मत चुगताई हद दर्जे की बातूनी थीं। सच बात तो यह है कि कहानी कहने का हुनर उन्होंने लोगों की बातों से ही सीखा था। वे हर शख्स से बात कर सकती थीं और महज पांच मिनिट में उसकी जिंदगी का बहुत कुछ जान लेती थीं। वे जब अलीगढ़ में थीं, तो उनके घर एक धोबी आता था, वे उससे घंटों गप्पे मारा करतीं।

उस धोबी से उन्होंने न सिर्फ बहुत सारे किस्से-कहानी सुने, बल्कि निम्न वर्ग का तबका किस तरह की जबान बोलता है, वह भी सीखी। जाहिर है कि जिंदगी के यही तजुर्बात बाद में उनकी बहुत सी कहानियों में काम आए। इस्मत चुगताई की कहानी, उपन्यासों के ज्यादातर किरदार, उन्होंने अपने आस-पास से ही उठाए हैं।

कहानी ‘बच्छू फूफी’ की अहम किरदार बच्छू फूफी और ‘लिहाफ’ कहानी की बेगमजान और रब्बो को वे अच्छी तरह से जानती थीं। यही वजह है कि ये किरदार इतने प्रभावी और जानदार बन पड़े हैं। कहानी ‘दोजखी’ भी उनके बड़े भाई अजीम चुगताई के ऊपर है। परंपरावादियों ने इस कहानी की बड़ी आलोचना की, लेकिन यह कहानी अपने प्यारे भाई को याद करने का उनका अपना एक अलग तरीका था। ‘दोजखी’ की तारीफ में मंटो लिखते हैं, ‘‘दोजखी’ इस्मत की मुहब्बत का निहायत ही लतीफ और हसीन इशारा है, वह जन्नत जो उस मजमून में आबाद है, उन्वान उसका इश्तिहार नहीं देता।’’ (सआदत हसन मंटो-दस्तावेज 5, पेज 65)

इस्मत की कहानियों में एक अजीबो-गरीब जिद या इंकार आम बात है। ये जिद इसलिए भी दिखाई देती है, क्योंकि उनके मिजाज में भी बला की जिद थी। वे जो बात ठान लेतीं, उसे पूरा करके ही दम लेतीं थीं।

इस्मत चुगताई, तरक्कीपसंद तहरीक से जुड़ी रहीं एक और बड़ी अफसानानिगार रशीद जहां से बचपन से ही बहुत ज्यादा प्रभावित थीं। किशोरावस्था में ही उन्होंने चोरी-छिपे कहानी संग्रह ‘अंगारे’ जिसमें रशीदजहां की भी कहानी थी, पढ़ ली थी। अलीगढ़ में उनकी पढ़ाई के दौरान जब ‘अंगारे’ का विरोध हुआ, तो वे तमाम तरक्कीपसंदों के साथ इस किताब के हक में खड़ी हो गईं। उन्होंने किताब के हक में एक बड़ा मजमून, जो बेहद जज्बाती था लिखा, और उसे ‘अलीगढ़ गजट’ में छपने के लिए भेज दिया। मजमून छपा और पसंद भी किया गया।

अपनी आत्मकथा ‘कागजी है पैरहन’ में वे खुद इस बात को मंजूर करती हैं, ‘‘रशीदजहां ने मुझे कमसिनी में ही बहुत मुतास्सिर किया था। मैंने उनसे साफगोई और खुद्दारी सीखने की कोशिश की।’’ रशीदजहां ने ही चुगताई के अंदर आत्मविश्वास पैदा किया। लिखने में उनका मार्गदर्शन किया और ऐसी कई महत्वपूर्ण किताबों से उनका तआरुफ कराया, जिन्हें एक लेखक को पढ़ना बेहद जरूरी था।

इस्मत चुगताई के बड़े भाई अजीम चुगताई भी एक अच्छे अफसानानिगार थे, उन्होंने कहानी बयां करने का हुनर उनसे भी सीखा। अपनी आत्मकथा ‘कागजी है पैरहन’ में वे इसके मुतआल्लिक लिखती हैं, ‘‘उनसे मैंने सीखा कि अगर कुछ कहना है तो कहानियों, किस्सों में लपेटकर कहो, कम गालियां मिलेंगी। ज्यादा लोग पढ़ेंगे और मुतास्सिर होंगे। कहानियां लिखने से पहले मैंने कई मजामीन लिखे जो छपे भी, मगर किसी ने तवज्जोह न दी। दो-चार कहानियां लिखी थीं कि ले-दे शुरू हो गई। जैसे टेलीफोन पर आप जो चाहे कह दीजिए, कोई थप्पड़ नहीं मार सकता। वैसे ही कहानियां में कुछ भी लिख मारिए, कोई हाथ आपके गले तक नहीं पहुंचेगा।’’ (इस्मत चुगताई-कागजी है पैरहन, पेज-17)

अलबत्ता यह बात अलग है कि बाद में वे अजीम भाई की कहानियों की आलोचक हो गईं। उनकी कहानियों के बारे में चुगताई का कहना था कि ‘‘उनमें उनकी जिंदगी के कर्ब (पीड़ा) का कोई शायबा (अंश) न था।’’ (इस्मत चुगताई-कागजी है पैरहन, पेज-40) 

कहानियों को मिली तारीफ के बाद इस्मत चुगताई ने आलेख लिखना छोड़ दिया और पूरी तरह से कहानी के मैदान में आ गईं। उन्होंने अपनी पहली कहानी ‘बचपन’ शीर्षक से लिखी और उसे पत्रिका ‘तहजीबे-निस्बां’ में छपने के लिए भेज दिया। कुछ दिन के बाद कहानी वापस आ गई और साथ ही ‘तहजीबे-निस्बां’ के एडीटर मुमताज अली का डांट-फटकार का खत भी, जिसमें उन्होंने इस कहानी में किरअत के मजाक उड़ाने पर चुगताई की निंदा की थी और उनकी इस हरकत को अधार्मिकता एवं गुनाह बतलाया था। बहरहाल बाद में जब इस्मत चुगताई की कहानियां सब जगह छपने और तारीफ बटोरने लगीं, तो यह कहानी पत्रिका ‘साकी’ में छपी और पाठकों द्वारा बहुत पसंद भी की गई।

इस्मत चुगताई का पहला नाटक ‘फसादी’ और शुरुआती कहानियां ‘नीरा’, ‘लिहाफ’, ‘गेंदा’ वगैरह ‘साकी’ में ही प्रमुखता से प्रकाशित हुए हैं। कहानी ‘लिहाफ’ के अलावा इस्मत चुगताई ने और भी कई अच्छी कहानियां लिखीं, जिनकी उतनी चर्चा नहीं हुई, जितनी की ‘लिहाफ’ की। कहानी ‘चौथी का जोड़ा’ और ‘मुगल बच्चा’ उनकी बेमिसाल कहानियां हैं। इन कहानियां को पढ़कर लगता है कि इस्मत चुगताई क्यों अजीम अफसानानिगार हैं।

इस्मत चुगताई की कई कहानियों पर वामपंथी विचारधारा का असर है। उस दौर के तमाम रचनाकारों की तरह वे भी अपनी कहानियों के जरिए समाजवाद का पैगाम देती हैं। ‘कच्चे धागे’, ‘दो हाथ’ और ‘अजनबी’ उनकी ऐसी ही कहानियां हैं। इस्मत चुगताई इंसान-इंसान के बीच समानता की घोर पक्षधर थीं। औरत और मर्द के बीच में भी असमानता देखकर, वह हमलावर हो जाती थीं।

‘‘मसावात (समानता) का फुकदान (अभाव) अमीर-गरीब के मामले में ही नहीं, औरत और मर्द के मुकाबले में तो और भी ज्यादा है। मेरे वालिद तो रोशनख्याल थे। उसूलन भी लड़कों से लड़कियों के हुकूक का ज्यादा ख्याल रखते थे, मगर वही बात थी जैसे हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई। लड़का-लड़की बराबर। चंद नारे थे जिनकी लेप-पोत निहायत जरूरी समझी जाती थी।’’ (इस्मत चुगताई-कागजी है पैरहन, पेज-13)

‘कागजी है पैरहन’ कहने को इस्मत चुगताई की आत्मकथा है, लेकिन एक लिहाज से देखा जाए, तो इस किताब में जगह-जगह स्त्री विमर्श के नुकते बिखरे पड़े हैं। अपनी बातों और विचारों से वे कई जगह पितृसत्तात्मक मुस्लिम समाज की बखिया उधेड़ती हैं। किताब का हर एक अध्याय, मुकम्मल अफसाना है। मसलन ‘उन ब्याहताओं के नाम’ अध्याय में उन्होंने ‘लिहाफ’ कहानी पर लाहौर में चले मुकदमे और उसके बारे में तफ्सील से बात की है, तो ‘अलीगढ़’ अध्याय में उन्होंने कहानी संग्रह ‘अंगारे’ के प्रसंग का जिक्र किया है।

‘उलटे बांस बरेली’ अध्याय, इस्मत चुगताई का बरेली के दिनों का यादनामा है, जिसमें उन्होंने उस दौरान बिताई अपनी जिंदगी की जद्दोजहद, तजुर्बात और सोच के बेशुमार खाके खींचे हैं। वहीं ‘नन्हे मुन्ने’ अध्याय में उन्होंने अपने भाईयों की शख्सियत का शानदार खाका खींचा है।

इस्मत चुगताई ने कई नाटक भी लिखे, लेकिन उन्हें वह शोहरत नहीं मिली जो उनकी कहानियों को हासिल है। इस्मत के ड्रामों पर सआदत हसन मंटो लिखते हैं, ‘‘इस्मत के ड्रामें कमजोर हैं। जगह-जगह उनमें झोल है। इस्मत प्लाट को मनाजिर में तकसीम करती हैं, तो नापकर कैंची से नहीं कतरती, यूं हीं दांतों से चीर-फाड़कर चीथड़े बना डालती है।’’ (सआदत हसन मंटो-दस्तावेज 5, पेज 73)

कहानीकार शबनम रिजवी ने इस्मत चुगताई की दर्जनों कहानियों और उपन्यास ‘टेड़ी लकीर’ का हिंदी में शानदार अनुवाद किया है। इस्मत चुगताई के पति शाहिद लतीफ अपने जमाने के मशहूर फिल्म लेखक और निर्देशक थे। इस्मत भी फिल्मों से जुड़ी रहीं। उनकी कई कहानियों पर फिल्में बनीं। इसके अलावा उन्होंने अनेक फिल्मों की पटकथा भी लिखी। फिल्म ‘जुगनू’ में अभिनय किया। निर्देशक एमएस सथ्यू की मशहूर फिल्म ‘गर्म हवा’, इस्मत चुगताई की कहानी पर ही बनी थी, जिसके लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ कहानी का फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला।

जन्म: 21 अगस्त, 1915             
निधन: 24 अक्टूबर, 1991
इस्मत चुगताई के प्रमुख कहानी संग्रह: ‘चोटें’, ‘छुईमुई’, ‘एक बात’, ‘कलियां, ‘एक रात’, ‘दो हाथ’, ‘दोज़ख़ी’, ‘शैतान’।
उपन्यास: ‘जिद्दी’, ‘टेढ़ी लकीर’, ‘एक कतरा ए खून’, ‘दिल की दुनिया’, ‘मासूमा’, ‘बहरूप नगर’, ‘सैदाई’, ‘जंगली कबूतर’, ‘अजीब आदमी’, ‘बांदी’।
सम्मान: ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’, ‘ग़ालिब अवार्ड’, ‘इकबाल सम्मान’, ‘मख़दूम अवार्ड’ आदि।

ज़ाहिद खान
Published by
ज़ाहिद खान