पुण्यतिथि: रूह पर चले बंटवारे के नश्तर का नतीजा था मंटो का ‘टोबा टेकसिंह’

सआदत हसन मंटो, हिंद उपमहाद्वीप के बेमिसाल अफसानानिगार थे। प्रेमचंद के बाद मंटो ही ऐसे दूसरे रचनाकार हैं, जिनकी रचनाएं आज भी पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचती हैं। क्या आम, क्या खास वे सबके हर दिल अजीज हैं। सच बात तो यह है कि मंटो की मौत के आधी सदी से ज्यादा गुजर जाने के बाद भी, उर्दू में उन जैसा कोई दूसरा अफसानानिगार पैदा नहीं हुआ। 43 साल की छोटी सी जिंदगानी में उन्होंने जी भरकर लिखा।

गोया कि अपनी उम्र के बीस-बाईस साल उन्होंने लिखने में ही गुजार दिए। लिखना उनका जुनून था और जीने का सहारा भी। मंटो एक जगह खुद लिखते हैं, ‘‘मैं अफसाना नहीं लिखता, हकीकत यह है कि अफसाना मुझे लिखता है।’’ इसके बिना वे जिंदा रह भी नहीं सकते थे। उन्होंने जो भी लिखा, वह आज उर्दू अदब का नायाब सरमाया है। मंटो का लिखा उनकी मौत के इतने साल बाद भी भारतीय उपमहाद्वीप के करोड़ों-करोड़ लोगों के जेहन में जिंदा है। अफसोस! उन्हें लंबी जिंदगी नहीं मिली। लंबी जिंदगी मिलती, तो उनकी कलम से न जाने कितने और शाहकार अफसाने निकलते।

अपनी छोटी सी जिंदगानी में सआदत हसन मंटो ने डेढ़ सौ से ज्यादा कहानियां लिखीं, व्यक्ति चित्र, संस्मरण, फिल्मों की स्क्रिप्ट और डायलॉग, रेडियो के लिए ढेरों नाटक और एकांकी, पत्र, कई पत्र-पत्रिकाओं में कॉलम लिखे, पत्रकारिता की। मंटो के कई अफसाने आज भी मील का पत्थर हैं। उनकी कलम से कई शाहकार अफसाने निकले। मसलन-ठंडा गोश्त, खोल दो, यजीद, शाहदोले का चूहा, बापू गोपीनाथ, नया कानून, टिटवाल का कुत्ता और टोबा टेकसिंह। हिंदुस्तान के बंटवारे पर मंटो ने कई यादगार कहानियां, लघु कथाएं लिखीं, लेकिन उनकी कहानी ‘टोबा टेकसिंह’ का कोई दूसरा जवाब नहीं।

‘टोबा टेकसिंह’ में मंटो ने बंटवारे की जो त्रासदी बतलाई है, वह अकल्पनीय है। बंटवारे का ऐसा रूपक, हिंदी-उर्दू के किसी दूसरे अफसाने में बमुश्किल ही हमें देखने को मिलता है। ‘टोबा टेकसिंह’ मंटो का मास्टर पीस है। ऐसे अफसाने बरसों में एकाध बार ही लिखे जाते हैं। मंटो ने यदि इतना साहित्य न लिखा होता, सिर्फ ‘टोबा टेकसिंह’ अफसाना ही लिखा होता, तो वे इस अफसाने के बिना पर ही हिंदी-उर्दू साहित्य में हमेशा के लिए जिंदा रहते। उन्हें ‘टोबा टेकसिंह’ के लिए ही याद किया जाता।

‘टोबा टेकसिंह’ किरदार को मंटो ने दिल से लिखा है। अपने खूने जिगर से। दरअसल, बंटवारे से मंटो खुद भी प्रभावित हुए थे। वे भारत छोड़कर, पाकिस्तान नहीं जाना चाहते थे, लेकिन हालात कुछ ऐसे बने कि उन्हें भारत छोड़ना पड़ा। वे पाकिस्तान चले गए, पर उनका दिल हिन्दुस्तान में ही रहा।

अमरीकी राष्ट्रपति ‘चचा सैम’ के नाम लिखे, अपने पहले खत में मंटो अपने दिल का दर्द कुछ इस तरह बयां करते हैं, ‘‘मेरा मुल्क कटकर आजाद हुआ, उसी तरह मैं कटकर आजाद हुआ और चचाजान, यह बात तो आप जैसे हमादान आलिम (सर्वगुण संपन्न) से छिपी हुई नहीं होना चाहिए कि जिस परिंदे को पर काटकर आजाद किया जाएगा, उसकी आजादी कैसी होगी?’’ (पेज-319, पहला खत, सआदत हसन मंटो-दस्तावेज 4) पाकिस्तान जाने के बाद, मंटो सिर्फ सात साल और जिंदा रहे। 18 जनवरी, 1955 को लाहौर में उनकी मौत हो गई। मंटो जिस्मानी तौर पर भले ही पाकिस्तान चले गए, मगर उनकी रूह हिंदुस्तान के ही फिल्मी और साहित्यिक हल्के में भटकती रही।

मंटो ने कहानी ‘टोबा टेकसिंह’ का कालक्रम बंटवारे के दो-तीन साल बाद यानी, 1949-50 का बतलाया है। कहानी की शुरुआत कुछ इस तरह होती है, ‘बंटवारे के दो-तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान की सरकारों को ख्याल आया कि साधारण कैदियों की तरह पागलों का भी तबादला होना चाहिए। यानी जो मुसलमान पागल हिन्दुस्तान के पागलखानों में हैं, उन्हें पाकिस्तान पहुंचा दिया जाए और जो हिंदू और सिख पाकिस्तान के पागलखानों में हैं, उन्हें हिंदुस्तान के हवाले कर दिया जाए।’

कहानी का ये प्रस्थान बिंदु है और यहीं से कथानक विस्तार लेता है। मंटो लाहौर के एक पागलखाने और उसमें बंद पागलों की मानसिक दशा का वर्णन करते हुए, अपनी कहानी के अहम किरदार बिशन सिंह उर्फ टोबा टेकसिंह पर पहुंचते हैं। टोबा टेकसिंह बीते पंद्रह साल से इस पागलखाने में कैद है। उसकी मानसिक अवस्था अजब है। वह ज्यादा कुछ बोलता नहीं। ‘हर समय उसकी जबान से अजीब-गरीब शब्द सुनने में आते थे, ‘ओ पड़ दी गिड़-गिड़ दी एक्स दी बेध्याना दी मूंग दी दाल आफ दी लालटेन।’

बिशन सिंह उर्फ टोबा टेकसिंह की मानसिक हालत भले ही ठीक न हो, लेकिन जब उसे ये मालूम चलता है कि उसे अपने मुल्क यानी टोबा टेकसिंह, जिस जगह वह पला-बढ़ा, से दूर कर दिया जाएगा, तो वह जाने से इंकार कर देता है। बंटवारे का यह ख्याल उसे अजीब लगता है। टोबा टेकसिंह को ही नहीं, पागलखाने में कैद दीगर पागलों को भी यह बात जरा भी समझ में नहीं आती कि ‘वे पाकिस्तान में हैं या हिन्दुस्तान में। अगर हिंदुस्तान में हैं तो पाकिस्तान कहां है, और अगर वे पाकिस्तान में हैं तो यह कैसे हो सकता है कि वे कुछ अर्सा पहले यहां रहते हुए भी हिंदुस्तान में थे।’

‘किसी को भी मालूम नहीं था कि वह पाकिस्तान में हैं या हिंदुस्तान में। जो बताने की कोशिश करते थे, खुद इस उलझन में फंस जाते थे कि स्यालकोट पहले हिंदुस्तान में होता था, पर अब सुना है कि पाकिस्तान में है। क्या पता कि लाहौर जो अब पाकिस्तान में है, कल हिंदुस्तान में चला जाएगा या सारा हिंदुस्तान ही पाकिस्तान बन जाएगा और यह भी कौन सीने पर हाथ रखकर कह सकता है कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों किसी दिन सिरे से गायब न हो जाएंगे।’

पागलखाने में यह ऊहापोह की स्थिति सिर्फ पागलों के दिमाग में ही नहीं चल रही थी, बल्कि उस वक्त यह मानसिक दशा उन लाखों-लाख लोगों की थी, जो देखते-देखते अपनी जड़ों से दूर कर दिए गए थे। मजहब की बुनियाद पर कुछ लोग जबरन पाकिस्तान खदेड़ दिए गए, तो कुछ लोग हिंदुस्तान। बंटवारे का दर्द कुछ ऐसा, कि अपने ही मुल्क में पराए हो गए। पागलखाने में बंद पागल भी यह बात मानने को बिल्कुल तैयार नहीं कि उनके मुल्क का बंटवारा हो गया है।

मंटो ने बंटवारे का दर्द खुद सहा था। वे जानते थे कि बंटवारे के जख्म कैसे होते हैं? लिहाजा उनकी इस कहानी में बंटवारे का दर्द पूरी शिद्दत के साथ आया है। मंटो मुल्क के बंटवारे से इत्तेफाक नहीं रखते थे। वे इसके खिलाफ थे, लेकिन किस्मत के आगे मजबूर। मंटो और उनके जैसे करोड़ों-करोड़ लोगों की नियति का फैसला, चंद लोगों ने मिलकर रातों-रात कर दिया था, और वे इस फैसले को मानने को मजबूर थे। बंटवारे के खिलाफ उनका गुस्सा कहानी के कई प्रसंगों में देखा जा सकता है।

कई मार्मिक प्रसंगों और छोटे-छोटे संवादों के जरिए मंटो कहानी में बंटवारे और उसके बाद की स्थितियों का पूरा खाका खींच कर रख देते हैं। कहानी में घट रही, हर बात और संवाद का एक अलग अर्थ है। बंटवारे से सारी इंसानियत लहू-लुहान है, लेकिन हुकूमतों को इसकी जरा सी भी परवाह नहीं। वे संवेदनहीन बनी हुई हैं। इस हद तक कि साधारण कैदियों की तरह वे पागलों का भी तबादला करना चाहती है। सत्ता का अमानवीय चेहरा, जो पागलों का भी बंटवारा करना चाहती है।

हिंदू पागल हिन्दुस्तान जाएं और मुसलमान पागल पाकिस्तान। हुकूमतों के इस तुगलकी फरमान को पागलों को भी मानना होगा। टोबा टेकसिंह को यह बात मंजूर नहीं। वह नहीं चाहता कि उसे अपने मुल्क टोबा टेकसिंह से दूर कर दिया जाए। उसके लिए हिंदुस्तान-पाकिस्तान का कोई मायने नहीं। उसकी जन्मभूमि और कर्मभूमि ही उसका मुल्क है। वह ऐसे किसी भी बंटवारे के खिलाफ है, जिसमें उसे अपनी जमीन से बेदखल होना पड़े। टोबा टेकसिंह को जब यह मालूम चलता है कि उसे जबर्दस्ती उसके गांव टोबा टेकसिंह से दूर हिंदुस्तान भेजा जा रहा है, तो वह जाने से इंकार कर देता है।

मंटो ने कहानी का जो अंत किया, वह अविस्मरणीय है। एक दम क्लासिक। अपने अंत से कहानी ऐसे कई सवाल छोड़ जाती है, जो अब भी अनुत्तरित हैं। टोबा टेकसिंह आज भी हमारे नीति नियंताओं, हुक्मरानों से यह सवाल पूछ रहा है कि बंटवारे से आखिर उन्हें क्या हासिल हुआ? सत्ता की हवस में उन्होंने जो फैसला किया, वह सही था या गलत? ‘देखो, टोबा टेकसिंह अब हिंदुस्तान में चला गया है… यदि नहीं गया है तो उसे तुरंत ही भेज दिया जाएगा।’

किंतु वह न माना। जब जबरदस्ती दूसरी ओर ले जाने की कोशिश की गई तो वह बीच में एक स्थान पर इस प्रकार अपनी सूजी हुई टांगों पर खड़ा हो गया, जैसे अब कोई ताकत उसे वहां से नहीं हटा सकेगी, क्योंकि आदमी बेजरर था, इसलिए उसके साथ जबरदस्ती नहीं की गई, उसको वहीं खड़ा रहने दिया गया और शेष काम होता रहा। सूरज निकलने से पहले स्तब्ध खड़े हुए बिशन सिंह के गले से एक गगनभेदी चीख निकली। इधर-उधर से कई अफसर दौड़े आए और देखा कि वह आदमी, जो पंद्रह वर्ष तक दिन-रात अपनी टांगों पर खड़ा रहा था, औंधें मुंह लेटा था। इधर कांटेदार तारों के पीछे हिंदुस्तान था- उधर वैसे कांटेदार तारों के पीछे पाकिस्तान। बीच में जमीन के उस टुकड़े पर, जिसका कोई नाम नहीं था, टोबा टेकसिंह पड़ा था।’

ज़ाहिद खान
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