संस्मरणः तीन आदमियों से बना एक आदमी

पंकज बिष्ट पर संस्मरण लिखते हुए डरता हूं क्योंकि वह केवल एक आदमी पर नहीं होगा। पंकज बिष्ट कई आदमियों को मिलाकर बनाए गए हैं। पहला आदमी है प्रताप सिंह बिष्ट। दूसरा आदमी है पीएस बिष्ट। तीसरा है पंकज बिष्ट। जो आदमी तीन आदमियों को मिलाकर बनाया गया हो उसके बारे में लिखना कितना मुश्किल है, आप समझ सकते हैं, लेकिन लिखना चाहता हूं। डरते-डरते लिखूंगा। 

सबसे पहले प्रताप सिंह बिष्ट के बारे में लिखना चाहता हूं। वे कुमाऊं क्षेत्र के दबंग ठाकुर हैं। उनके अंदर दबंगई के सभी गुण हैं। जान चली जाए पर बात न जाए। अच्छे-खासे धाकड़ हैं। अच्छी-खासी अकड़ है। कोई बात अच्छी नहीं लगी तो आस्तीनें चढ़ा लेते हैं। आत्म-सम्मान इतना आगे बढ़ा हुआ है कि अहंकार की सीमाओं को छू लेता है। अपनी ताकत पर कुछ ज़्यादा भरोसा भी है। साहस और नैतिक बल गज़ब का है। कला विहार सोसाइटी के कुछ दबंगों से मोर्चा लेना सबके बस की बात नहीं थी। पुरानी घटना है। सोसायटी के एक दबंग ने सिक्योरिटी गार्ड को मारा-पीटा था। प्रताप सिंह बिष्ट जी को जब यह पता चला था तो उन्हें इतना गुस्सा आ गया था कि दबंग से भिड़ गए थे।

उनके अंदर न्याय के प्रति एक बलवती प्रवृत्ति है। वह अन्याय और अत्याचार को सहन नहीं कर सकते और जवानी की बात छोड़ दीजिए, प्रताप सिंह बिष्ट बुढ़ापे में भी चोर-उचक्के को पानी पिला देते हैं। अभी दो ही चार साल पुरानी बात है। प्रताप सिंह बिष्ट अपने गांव से लौट रहे थे। रात का समय था। टैक्सी से वापस आ रहे थे। हल्द्वानी के आगे रामपुर से पहले कुछ बदमाशों ने गाड़ी रुकवाने की कोशिश की। उनका इरादा लूटपाट करना था, लेकिन उन्हें नहीं मालूम था कि टैक्सी में प्रताप सिंह बिष्ट मौजूद हैं। बस फिर जो होना था वही हुआ। बदमाशों को मुंह की खानी पड़ी। अन्याय और अत्याचार का विरोध प्रताप सिंह बिष्ट में कूट-कूट कर भरा हुआ है। प्रताप सिंह दोस्ती और दुश्मनी को बहुत अच्छी तरह समझते हैं, इसलिए उनके दोस्त दोस्त हैं और दुश्मन दुश्मन। बीच की कोई बात नहीं है, इसलिए कभी-कभी लोगों को संदेह हो जाता है कि वे बहुत अड़ियल हैं।

पीएस बिष्ट राजपत्रित अधिकारी हैं। मतलब गैज़ेटेड ऑफिसर हैं। उन्हें वे सब अधिकार हैं जो किसी भी राजपत्रित अधिकारी को होते हैं। मिसाल के तौर पर कभी कोई कागज़ अटेस्ट कराने आ जाता है, पीएस बिष्ट उसे अटेस्ट कर देते हैं। पीएस बिष्ट समय पर ऑफिस जाते हैं। समय पर अपना काम पूरा करते हैं। समय पर वेतन लेते हैं। सारी जिम्मेदारियां निभाते हैं। अपने से ऊंचे अधिकारियों के आदेश स्वीकार करते हैं और अपने मातहत काम करने वाले लोगों को आदेश देते हैं। पीएस बिष्ट की पदोन्नति भी होती है। ट्रांसफर भी होता है। उनके पास कई सूट हैं। वह कभी-कभी सूट पहनकर टाई लगाकर ऑफिस आते हैं और शाम को कॉफी हाउस आते हैं— तब वे पीएस बिष्ट नहीं रहते, पंकज बिष्ट हो जाते हैं।

बहुत पुरानी बात है। लगभग सन सत्तर के आसपास, मैं पंकज बिष्ट से मिला था। किसने मिलवाया था? कब मिला था? यह सब याद नहीं है। शायद ऐसा हुआ था कि कॉफी हाउस वाले ग्रुप में मैं भी शामिल था और वे भी आते थे। यह कॉफी हाउस का वह दौर था जब हम सब बहुत रेडिकल हुआ करते थे। अधिकतर लोग तो नक्सलवादी थे, लेकिन दो-चार ऐसे भी थे जो केवल वामपंथी थे। पंकज बिष्ट स्वतंत्र वामपंथी थे और मेरे विचार से आज भी स्वतंत्र वामपंथी हैं। मैं भी वामपंथी था और थोड़ा बहुत आज भी हूं। 

बहरहाल यह जमाना बहुत मज़ेदार था। कुछ दोस्तों के पास नौकरियां थीं और कुछ के पास नहीं थी। पंकज बिष्ट के पास नौकरी थी। इसलिए वे अक्सर उन दोस्तों की कॉफी का पैसा दे दिया करते थे जिनके पास पैसे न होते थे। कॉफी हाउस का महत्त्व हमारी जिंदगी में घर से अधिक था। कॉफी हाउस हमारी जिंदगी का एक ऐसा हिस्सा था, जिसे हम अलग करने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। मतलब हमारी जिंदगी बिना कॉफी हाउस के पूरी ही नहीं होती थी। अगर किसी दिन कोई कॉफी हाउस न आ पाता था तो सबके लिए यह चिंता का विषय बन जाता था। 

वामपंथी राजनीति और साहित्य तथा समाज के बाद फिल्में हमारे लिए आकर्षण का बहुत बड़ा विषय थीं। हम सब छड़े थे। हम सब अकेले थे। मतलब शादी किसी की न हुई थी और लड़कियां केवल हमारे सपनों या कल्पना में आया करती थीं। मतलब यह कि उस समय हम सब लड़कियों के नितांत अभाव में थे। लड़कियों के बारे में सोचना—यह बात हमें बहुत पसंद थीं। ऐसे हालात में पंकज बिष्ट की एक गर्लफ्रेंड हुआ करती थी। किसी की गर्लफ्रेंड होना हमारे लिए इतनी बड़ी बात थी कि हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे। पंकज बिष्ट की गर्लफ्रेंड जब कॉफी हाउस आती थी तब वे उनके साथ फैमिली सेक्शन में चले जाते थे और हम लोग उनको केवल आते-जाते देखते थे। मित्र मंडली में यह भी पता चला था कि पंकज बिष्ट की प्रेमिका गुजराती है। गुजराती है और डॉक्टरी की पढ़ाई कर रही है—ये दोनों तथ्य भी हम लोगों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण थे। 

उस जमाने में और आजकल भी पंकज बिष्ट बहुत स्मार्ट और आकर्षक व्यक्ति हैं। वह अपना ध्यान भी रखा करते थे। जवानी के जमाने में उन्हें अच्छे कपड़े, सुरुचिपूर्ण कपड़े पहनने और ढंग से रहने का शौक था। उनके अपने दर्जी थे। कुछ दुकानें भी तय थीं। उनके इस शौक के कारण उनका व्यक्तित्व और अधिक निखर जाता था। लड़कियां ही नहीं लड़के भी उन्हें पसंद करते थे। हम लोगों के एक समलैंगिक मित्र पंकज बिष्ट पर आशिक हो गए थे। पंकज जी ने घबराते हुए पूरा किस्सा मुझे सुनाया था। बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचा कर भागे थे। बहरहाल कहने का मतलब यह है कि वे एक बहुत आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी थे और हैं। इसी के साथ-साथ यह जान लेना भी बहुत आवश्यक है कि पंकज बिष्ट एक बहुत नैतिकतावादी और सिद्धांतवादी आदमी हैं। वह बहुत संतुलित जीवन बिताते हैं। शादी करने के बाद मुझे नहीं लगता है कि उन्होंने हम लोगों की तरह कहीं इधर-उधर ताका-झांका हो।

कॉफी हाउस के ज़माने में मैं काफी समय तक बेकार रहा। कोई नौकरी नहीं थी। फ्री-लांसिंग करता था। उस ज़माने में पंकज बिष्ट ने मेरा साथ दिया। ‘आजकल’ पत्रिका में यदा-कदा छाप कर मेरी मदद की और दूसरी पत्रिकाओं में लिखने के लिए भी प्रेरित किया। सन् 1971 में मुझे जामिया में नौकरी मिल गई थी और उसके बाद स्थिति कुछ सामान्य हो गई थी। कॉफी हाउस से संपर्क लगातार बना हुआ था। पंकज बिष्ट के ऑफिस भी आना-जाना कायम था। पंकज बिष्ट ‘आजकल’ के लिए किताबों की समीक्षाएं कराते थे और कभी-कभी मेरी रचनाएं भी छाप देते थे। मेरी एक चर्चित कहानी ‘केक’ उन्होंने आजकल में छापी थी। पंकज बिष्ट ‘आजकल’ में नौकरी तो करते थे लेकिन खुश नहीं थे। उन्हें लगातार यह लगता था कि जो करना चाहिए वह काम नहीं कर रहे। सरकारी दफ्तरों की उठापटक और छल प्रपंच से वह दुखी रहते थे। कार्यालय की घटिया राजनीति में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं थी, लेकिन वह उससे प्रभावित ज़रूर होते थे। यदा-कदा ऐसी जगहों पर भी तबादला किया गया था जहां उनकी रचनात्मकता का कोई काम ना था।

ऑफिस के हालात से दुखी होने के कारण पंकज बिष्ट अक्सर कहा करते थे कि वह 20 साल की नौकरी पूरी हो जाने पर रिटायरमेंट ले लेंगे और स्वयं अपनी पत्रिका निकालेंगे। हम सब यह सुनते थे और किसी को यह विश्वास न था कि पंकज बिष्ट जो कह रहे हैं वह करके दिखा देंगे।

इमरजेंसी के जमाने की बात है। हम कुछ दोस्तों के दिमाग में यह खयाल आया कि हमें एक कहानी संकलन छपाना चाहिए। योजना बनी कि पंकज बिष्ट, मंगलेश डबराल, मोहन थपलियाल तथा मेरी कहानियों का एक संकलन बनाया जाए। एक नए मित्र प्रकाशन का काम शुरू करने वाले थे। उन्होंने हमारी किताब छापने का आश्वासन दिया, लेकिन यह बात भी तय हो गई कि सभी लोग दो-दो सौ रुपए देंगे तब किताब छप पाएगी। योजना आगे बढ़ती रही। धीरे-धीरे मंगलेश डबराल और मोहन थपलियाल इस योजना से अलग होते चले गए। मैं और पंकज बिष्ट रह गए। यह संकलन ‘अंधेरे से’ के नाम से प्रकाशित हुआ था। संकलन का उम्मीद से अधिक स्वागत किया गया था। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने ‘दिनमान’ में इसकी समीक्षा की थी जो उन दिनों बड़ी बात थी।

धीरे-धीरे मेरी और पंकज बिष्ट की दोस्ती एक मिसाल बन गई। साहित्य के सर्किल में समझा जाने लगा कि मैं और पंकज बिष्ट एक सिक्के के दो पहलू हैं। इस दोस्ती से कुछ लोगों को ईर्ष्या होने लगी और ऐसा करने वालों में सबसे प्रमुख थे राजेंद्र यादव। उन्होंने मुझसे साफ-साफ कहा था कि यार मैंने बहुत कोशिश की, कि तुम्हारी और पंकज बिष्ट की लड़ाई हो जाए लेकिन नहीं करा सका। पता नहीं और किस-किस ने यह कोशिश की होगी लेकिन मुझे केवल राजेंद्र यादव की याद है। वैसे राजेंद्र यादव हमारे बुजुर्ग और बुजुर्ग लेखक और बड़े संपादक थे। बहुत अच्छे इंसान और बहुत अच्छे दोस्त थे, लेकिन उन्हें लड़ाइयां लगाने में मज़ा आता था। उन्होंने पंकज बिष्ट से तो नहीं लेकिन पंकज सिंह से मेरी लड़ाई ज़रूर करा दी थी।

हक, इंसान, सच्चाई, ईमानदारी के लिए पंकज बिष्ट का ‘कमिटमेंट’ बड़ा पक्का है। इसकी दो मिसालें दी जा सकती हैं। कोई पच्चीस-तीस साल पहले की बात है, हिंदी के कवि मान बहादुर सिंह की बड़ी निर्मम हत्या उनके ही इलाके के एक बाहुबलि नेता ने कर दी थी। लेखक संगठन इस अपराध पर केवल बयान देकर खामोश हो गए थे। हत्यारा छुट्टा घूम रहा था। पुलिस सब कुछ जानते हुए भी अनजान बनी हुई थी। यह स्थिति पंकज बिष्ट के लिए असहनीय बन गई थी। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा कि ये लेखक संगठन कुछ न करेंगे। लेखकों को आगे आना पड़ेगा। बातचीत के बाद तय किया गया कि लेखक मान बहादुर सिंह के गांव जाकर प्रतिरोध सभा करें। पुलिस पर दबाव बनाएं कि हत्यारे को गिरफ्तार किया जाए। पंकज बिष्ट की सक्रियता में और लोग भी जुड़ गए। सबने अपना-अपना किराया दिया। साधारण ढंग से यात्रा की और गांव के आसपास के इलाके में ठहरे। गांव में बहुत बड़ी सभा हुई। निशांत ग्रुप ने नाटक किए। इस प्रदर्शन का प्रभाव यह पड़ा कि पुलिस ने अपराधी को गिरफ्तार किया। यह सब पंकज बिष्ट के सुझाव और प्रयास का नतीजा था।

दूसरा प्रसंग भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। यह घटना उस समय की है जब अमेरिका इराक पर झूठे आरोप लगा कर हमला करना चाहता था। अखबारों में रोज़ अमेरिका के झूठे इराक-विरोधी समाचार और लेख छपते रहते थे। इनको पढ़-पढ़ कर हम सबको गुस्सा आता था, लेकिन कर क्या सकते थे। हमारे पास केवल लघु-पत्रिकाएं थीं, छोटे-मोटे अखबार थे जिन पर हम अपनी बात छपवा भी देते तो वह कुछ सौ लोगों तक ही पहुंच पाती। सोचा गया कि ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में लेखकों की ओर से एक टिप्पणी/बयान छपवाया जाए। बयान तैयार हो गया पर अखबार वाले उसे छापने पर तैयार न थे। तब तय पाया कि उसे विज्ञापन के रूप में छपवाया जाए। यह आइडिया पंकज बिष्ट का ही था। उस ज़माने में वह बयान विज्ञापन के रूप में छपवाने का खर्च तीस हज़ार रुपये आ रहा था। उस ज़माने में यह बड़ी रकम थी लेकिन पंकज बिष्ट ने हिम्मत नहीं हारी थी। सब के साथ मिलकर उन्होंने चंदा करके तीस हज़ार रुपये जमा किए थे और विज्ञापन के रूप में बयान ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में छपा था। 

पंकज बिष्ट शायद 1965-66 से कहानियां लिख रहे हैं। उनकी कहानियों में सामाजिक जीवन की विसंगतियों के मार्मिक चित्र उभरते हैं। ‘अंधेरे से’ की कहानियों के बाद उनकी रचनाओं में एक नया मोड़ आया था। उनकी कहानियां अधिक प्रौढ़ हो गई थीं। इसी दौरान उनका उपन्यास ‘लेकिन दरवाज़ा’ छपा। इस उपन्यास का हिंदी साहित्य में बड़ा स्वागत हुआ, लेकिन मेरा मानना है कि यह उपन्यास पंकज ने केवल उपन्यास के तौर पर लिखा था। बातचीत में वे यह कहा भी करते थे, उन्हें यह आशा नहीं थी कि इस उपन्यास का इतना स्वागत किया जाएगा। मतलब यह कि वे ‘लेकिन दरवाज़ा’ को अपनी श्रेष्ठ रचना नहीं मानते थे।

इसी दौरान हिंदी में ‘जादुई यथार्थवाद’ का डंका बजने लगा था। लगता था अगर कुछ है तो जादुई यथार्थवाद है। पंकज बिष्ट जादुई यथार्थवाद से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने एक खास तरह की कहानियां लिखना शुरू कर दिया, लेकिन अपने पहले उपन्यास की सफलता ने उन्हें दूसरा उपन्यास लिखने की प्रेरणा दी और ‘उस चिड़िया का नाम’ से उनका एक और उपन्यास सामने आया। यह उनका एक प्रौढ़ उपन्यास है। पंकज बिष्ट के सैद्धांतिकी के प्रति अतिरिक्त मोह ने उपन्यास को थोड़ा बोझिल ज़रूर बना दिया, पर यह वास्तव में उनका सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है।

अपने आप से किए गए वायदे कम ही लोग निभाते हैं पर पंकज बिष्ट ने निभाया—मतलब बीस साल की नौकरी के बाद जब उनके कैरियर का स्वर्णिम युग शुरू होने वाला था, तब उन्होंने स्वैच्छिक रिटायरमेंट ले लिया और अपनी पत्रिका ‘समयांतर’ निकालना शुरू किया। यह काम वे बड़ी लगन और मेहनत से करते रहे और आज भी कर रहे हैं। लगभग अकेले दम पर ऐसी पत्रिका निकालना सरल नहीं है। पर वे दशकों से जमे हुए हैं। ‘समयांतर’ ने हिंदी जगत और विशेष रूप से बौद्धिक जगत में अपना एक स्थान बनाया है। कुछ लोग उनके विचारों से सहमत न होंगे, पर सब लोग पत्रिका के प्रति उनके समर्पण से सहमत हैं।

पंकज बिष्ट से लोग डरते हैं। उनका गुस्सा कब फट पड़ेगा इसका अंदाज़ा लगाना कठिन है। पंकज का परिवार, उनके कुछ दोस्त, उनके परिचित सदा मनाया करते हैं कि पंकज जी को गुस्सा न आए। रिटायरमेंट लेने के बाद पंकज जी घर पर ज़्यादा रहने लगे थे और नतीजे में टोका-टोकी, डांट-डपट बढ़ गई थी। फिर कुछ समय बाद ‘समयांतर’ शुरू हुई और पंकज जी उसमें पूरी तरह व्यस्त हो गए। दिन-दिन भर घर से गायब रहने लगे। घर का वातावरण सहज होने लगा। यह अनुभव किया जाने लगा कि पंकज जी एक और पत्रिका भी निकालें तो बुरा न होगा। 

एक बार पंकज के साथ ‘त्रिवेणी कला संगम’ गया। किसी चित्रकार की प्रदर्शनी लगी हुई थी। हम लोग चित्र देख ही रहे थे कि मोहन नाम का एक नवयुवक दिखाई दिया। मैं उसे सरसरी तौर पर जानता था। वह रानीखेत (कुमाऊं) के आसपास किसी गांव से नौकरी/रोज़गार की तलाश में दिल्ली आया था और साहित्य तथा कलाओं में उसकी रुचि थी। उसे देखते ही पंकज जी उस पर शेर की तरफ झपट पड़े और उसे डांटने-डपटने लगे। पंकज जी ने उसे बहुत सख्त-सख्त कहा। बस कान उमेठते-उमेठते रह गए। मैं बड़ा हैरान था, क्योंकि मेरे खयाल से मोहन ने ऐसा कुछ न किया था जिस पर पंकज जी को इतना गुस्सा आता। डांट-फटकार सुनकर मोहन चला गया तो मैंने पंकज जी से पूछा, ”यार क्यों डांट रहे थे? क्या गलती कर दी है उसने?’’ पंकज जी ने कहा, ”तुम नहीं जानते इसे… गांव में इसकी बूढ़ी मां और तीन छोटी बहनें हैं। पिता गुज़र गए हैं। इसकी मां ने किसी तरह उधार वगैरह लेकर इसे दिल्ली भेजा है कि कोई नौकरी वगैरह करे, रोज़गार से लगे। लेकिन इसे दिल्ली में कला का चस्का लग गया है। काम करने या नौकरी ढूंढने के बजाय ये कला और संगीत में मस्त रहने लगा है।’’

बहुत भयानक रूप से नैतिकतावादी पंकज जी की दोस्ती मुझसे, राजेन्द्र यादव और रामशरण जोशी से है। बल्कि राजेन्द्र यादव के न रहने पर पंकज जी के अब एकमात्र घनिष्ठ दोस्तों में रामशरण जोशी ही हैं। अन्य के बारे में मैं नहीं जानता। मुझसे अब पंकज जी की दोस्ती क्या और कैसी है, यह एक लंबा विषय है। पर यह तो सच है कि दोस्ती अभी है। उसको नितांत औपचारिक नहीं कह सकते पर अनौपचारिक भी नहीं है। लेखन के क्षेत्र में पंकज जी मुझे छोड़ कर आगे बढ़ गए हैं। ‘उस चिड़िया का नाम’ के बाद उनका जो छपा वह नहीं पढ़ सका। पंकज जी ने भी मेरा बाद का लिखा न पढ़ा होगा। अब चूंकि वे संपादक हैं और उनकी पत्रिका में पुस्तक समीक्षा का भी कॉलम होता है इसलिए शायद मजबूरी में मेरी एकाध किताब उन्होंने पढ़ ली होगी। मेरी उपन्यास त्रयी का पहला भाग ‘कैसी आगी लगाई’ जब छपा था तो बिष्ट जी ने अपनी पत्रिका में उसकी समीक्षा छापी थी जिसका शीर्षक था—’चिंगारी है बुझ जाएगी।’ मैंने इस संबंध में उनसे कोई बात नहीं की थी। करना भी नहीं चाहिए थी, क्योंकि ऐसा छपने पर प्राय: संपादक यह कहते हैं कि वे—’समीक्षाकार को पूरी स्वतंत्रता देते हैं।’ पर जब उनसे पूछा जाता है कि क्या उन्होंने किताब पढ़ी है तो कहते हैं कि अभी नहीं पढ़ी।

पंकज जी के एक और पुराने मित्र हैं, इब्बार रब्बी। कितने पुराने हैं इसका पता पुरातत्व विभाग वालों को भी नहीं है। दोनों में समानता यही है कि दोनों एक-दूसरे के उलट हैं। पूरब और पश्चिम में जो समानता है वही इन दोनों में है। पंकज जी जितने संतुलित हैं रब्बी जी उतने ही मनमौजी। पंकज जी जितने नियम, कायदे, उसूल, सिद्धांत, मर्यादा के मानने वाले हैं रब्बी उतने ही नहीं हैं। रब्बी विचार से वामपंथी और व्यवहार से अकवितावादी हैं पर दोनों की पटती है। साथ-साथ गुजरात की यात्रा पर भी गए थे जिसकी सुखद यादें बिष्ट जी के पास हैं।

बिष्ट गुजराती पहाड़ी हैं या पहाड़ी गुजराती हैं यह भी विवाद का विषय है। वे कुमाऊं के हैं जिसे दिल्ली में ‘पहाड़ी’ कहा जाता है। उनकी पत्नी गुजरात की हैं। बिष्ट पत्नी से बड़ा प्रेम करते हैं। ज़ाहिर है प्रेम-विवाह किया है। इसलिए उन्होंने पत्नी को ही नहीं, गुजरात को भी अपनाया है। उनका पहाड़ प्रेम पहाड़ी लेखक मित्रों या पहाड़ से आए बेरोज़गार युवकों की सहायता करने से ज़ाहिर होता है। गुजरात प्रेम का सबसे बड़ा उदाहरण उनका शादी के बाद शाकाहारी हो जाना है। 

इसमें कोई संदेह नहीं कि बिष्ट जी ने अपना पूरा जीवन और लेखकीय कैरियर ‘समयांतर’ में झोंक दिया है। उन्होंने एक उदाहरण पेश किया है जो आज़ादी के बाद बहुत कम लेखक कर पाए हैं। ध्यान दें, लेखकों ने साहित्यिक पत्रिकाएं निकाल अच्छा काम किया है, लेकिन साहित्य के मैदान में अपनी छवि का विस्तार भी किया है। जबकि ‘समयांतर’ कोई साहित्यिक पत्रिका नहीं है। इस पत्रिका ने बड़े पैमाने पर हिंदी क्षेत्र के पाठकों की समझ को साफ किया है। बिष्ट का यह योगदान याद किया जाता रहेगा।

असगर वजाहत
(लेखक हिंदी के चर्चित साहित्यकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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