संघ-भाजपा की गुटीय लड़ाइयों से नहीं, जन-संघर्षों की धार से होगा फासीवादी शासन का अंत

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अरुंधति रॉय के खिलाफ यूएपीए (UAPA) के तहत मुकदमा चलाने के लिये दिल्ली के उप-राज्यपाल की मंजूरी (sanction) जैसे सनक भरे कदमों से मोदी-शाह भले अकड़ दिखाएं और बोल्ड फेस बनाने तथा नागरिक समाज और विपक्ष को डराने की कोशिश करें, ( यह डायवर्सन की भी कोशिश थी कश्मीर के ताजा हालात और NEET पर युवाओं तथा उनके अभिभावकों के बीच भारी उबाल से), लेकिन यह वही कहानी है कि रस्सी जल गई, ऐंठन नहीं गयी।

लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद सच्चाई यह है कि देश मे सामाजिक शक्तियों का बैलेंस अंदर से बदल चुका है। भले ओडिशा, आंध्र जैसे नए इलाकों में वहां की लंबे समय से कायम सरकारों के खिलाफ संचित एन्टी-इनकम्बेंसी का फायदा उठाकर वे गठबंधन दलों की मदद से दिल्ली में सरकार बनाने में सफल हो गए हों, सच्चाई यह है कि कुछ अपवादों को छोड़कर देश के बड़े हिस्से में जनभावना और जनाकांक्षा इनके खिलाफ हो चुकी है और इनका राजनीतिक ग्राफ ढलान की ओर है।

इसके अनेक संकेत हैं। कुछेक नए राज्यों को छोड़कर देश के लगभग सभी इलाकों में इनके मत प्रतिशत में गिरावट हुई है। ठीक इसी तरह जनता के लगभग हर तबके में इनसे अलगाव बढ़ा है और मत प्रतिशत कम हुए हैं।

सूत्रों के अनुसार भाजपा में चल रही समीक्षा में यह पाया गया है कि कैडर में उत्साह नहीं था। दरअसल कार्यकर्ताओं का अनुत्साह सांगठनिक अंतर्विरोध की बजाय आम भाजपा समर्थकों के अनुत्साह का प्रतिबिंब था। शहरी क्षेत्र जो भाजपा के stronghold माने जाते थे। वहां वोट में कुल 18% ड्राप हुआ है। फलस्वरूप भाजपा इलाहाबाद जैसी अनेक शहरी सीटें या तो हार गयी या मोदी के वाराणसी, राजनाथ सिंह के लखनऊ जैसी सीटों पर उसके वोटों में भारी गिरावट हुई। ठीक इसी तरह सवर्ण जातियों के बीच जो भाजपा की सबसे लॉयल समर्थक मानी जाती हैं, वहां भी NDA के मत में 1% की थोड़ी ही सही कमी और इंडिया गठबन्धन के पक्ष में 3% की वृद्धि दर्ज की गई। (NDA के 60% की तुलना में इंडिया को भी इस वर्ग में 21% मत मिला।)

CSDS के आंकड़ों के अनुसार यूपी में भले ही सवर्ण power-groups की आज भी पसंदीदा पार्टी भाजपा है, लेकिन अबकी बार इसमें जगह जगह fissures देखे गए। जगह-जगह सवर्ण मतदाता स्वजातीय इंडिया उम्मीदवार के पक्ष में जाते पाए गए क्योंकि अब उनके अंदर भाजपा मोदी योगी को लेकर ऐसा कोई आकर्षण नहीं बचा है कि हर हाल में वे उसी के लिए वोट करें। इंडिया गठबन्धन को भी सवर्णों का 16% मत मिला।

युवाओं के अंदर मोदी योगी राज की भयावह बेरोजगारी, अग्निवीर, पेपर लीक आदि को लेकर व्यापक असंतोष था, लेकिन उसका बहुत छोटा हिस्सा ही राजनीतिक तौर पर उनके खिलाफ इंडिया के पक्ष में लामबंद किया जा सका। ऐसी भी ग्राउंड रिपोर्ट है कि सवर्ण युवाओं का एक छोटा हिस्सा जो भाजपा को झटका देना चाहता था लेकिन पूर्वाग्रह वश सपा/इंडिया को भी वोट नहीं देना चाहता था, उसने नोटा का बटन दबाया !

हिंदुत्व की लहर कमजोर पड़ने के फलस्वरूप इस चुनाव में सवर्ण पावर ग्रुप्स (जाट बनाम राजपूत, राजपूत बनाम ब्राह्मण आदि) के बीच आपसी अंतर्विरोध और बरतरी की लड़ाई भी उभरती दिखी। हालांकि अभी वह बड़े पैमाने पर विपक्षी गठबन्धन के पक्ष में नहीं की जा सकी, लेकिन भविष्य में इसकी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।

राष्ट्रीय स्तर पर ओबीसी में जहां एनडीए के मत में 4% की गिरावट हुई, वहीं इण्डिया के मत में 11% की वृद्द्धि हुई। इसी तरह अतिपिछड़ों में जहां एनडीए का मत स्थिर रहा, वहीं इंडिया का मत 7% बढ़ा। उत्तर प्रदेश में यादव समुदाय में तो 82 % ने सपा-कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया ही, उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इस बार 34% कुर्मी-कोयरी समुदाय तथा 34% अन्य ओबीसी ने भी उनके पक्ष में मतदान किया, जो पिछले 10 वर्षों से भाजपा के लिए ही बड़े पैमाने पर वोट कर रहे थे। दरअसल इस चुनाव में भाजपा की हार सर्वांगीण ( comprehensive ) है।

झारखंड की आदिवासी बहुल सभी 5 आरक्षित सीटें भाजपा बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा जैसे नेताओं के बावजूद हार गई। मुख्यमंत्री बिरेन सिंह के आपराधिक शासन के बावजूद मैतेई बहुल Inner मणिपुर समेत वहां की दोनों सीटें भाजपा हार गई, ईसाई बहुल नागालैंड मेघालय में वह पराजित हुई। अब अपने वक्तव्य में अनायास ही मोदी जी को ईसाई भाई बहनों की याद नहीं आ रही।

कश्मीर की 3 सीटों पर भाजपा चुनाव लड़ने की ही हिम्मत नहीं जुटा पाई। अयोध्या समेत घाघरा के दक्षिण की लखनऊ से लेकर पटना के बीच की सारी की सारी, लगभग 30 सीटें-सलेमपुर, बलिया, आरा, काराकाट, पाटलिपुत्र से अमेठी, रायबरेली, मोहनलाल गंज तक (बस वाराणसी, मिर्जापुर और फूलपुर के अपवाद को छोड़कर) भाजपा हार गयी। अनायास ही संघ-प्रमुख मोहन भागवत अचानक गोरखपुर पहुंच कर योगी के साथ मीटिंग पर मीटिंग नहीं कर रहे हैं।

इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार भाजपा की अंदरूनी समीक्षा में यह स्वीकार किया गया है कि जाट, दलित, मुस्लिम consolidation के कारण हरियाणा, राजस्थान और यूपी में भाजपा को 45 सीट का नुकसान हो गया-उसे 62 से घटकर 33 सीटें यूपी में, 25 से घटकर 14 राजस्थान में, 10 की जगह 5 सीटें ही हरियाणा में मिलीं। जाहिर है किसान आंदोलन, अग्निवीर तथा महिला पहलवानों के आंदोलन के प्रति सरकार के रुख से हरियाणा, राजस्थान, प. यूपी की किसान बेल्ट, मुख्यतः जाट किसानों के बीच भारी नाराजगी थी। जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा।

पश्चिमी यूपी में जयंत चौधरी को अपने साथ लेकर भाजपा ने बड़ी सफलता की उम्मीद की थी। लेकिन बमुश्किल वह डैमेज कंट्रोल कर सकी। पिछली बार उन्हें 19 सीट में अकेले 12 सीटें मिलीं थी, इस बार उन्हें 10 सीटें मिलीं और 2 रालोद को। उनके सबसे कद्दावर जाट नेता, मंत्री रहे संजीव बालियान 24 हजार से अधिक वोटों से हार गए। अब वहां बालियान और संगीत सोम के बीच जूतम-पैजार चल रही है, जिसमें चुनाव के समय से ही चल रही भाजपा में जाट वर्चस्व के खिलाफ़ राजपूत पॉवर ग्रुप्स की बरतरी की लड़ाई की छाया देखी जा सकती है। अम्बाला, सिरसा, हिसार, रोहतक, सोनीपत जैसी हरियाणा की सारी जाट बहुल सीटें भाजपा इस बार हार गई।

यह मिथक भी टूट गया कि लोकसभा चुनाव में मोदी के नाम पर 10% वोट अपने आप बढ़ जाता है। राजस्थान में तो अभी 6 महीने पहले ही भाजपा ने सरकार बनाई थी। विधानसभा चुनाव की तरह ध्रुवीकरण की कोशिश भी इस बार परवान नहीं चढ़ी। यहां तक कि जिस बांसवाड़ा और बनासकांठा में मोदी ने हेट स्पीच दिया था, वे सीटें भी भाजपा नहीं जीत सकी। सटीक गठबन्धन बनाकर, पिछली सरकार की लोकप्रिय कल्याणकारी योजनाओं के बल पर विपक्ष ने भाजपा को जबरदस्त झटका दे दिया।

दलित मतदाताओं ने बाजी पलटी

वैसे तो महंगाई, बेरोजगारी से बदहाल मेहनतकश जनता के तमाम हिस्सों ने, विशेषकर वंचित हाशिये के तबकों ने पहले की तुलना में बड़ी संख्या में विपक्ष के लिए मतदान किया। अल्पसंख्यक समुदाय जो फासीवादी आक्रामकता के सीधा निशाने पर 10 साल रहा, उसने 2022 की तरह फिर अभूतपूर्व आकुलता के साथ इंडिया गठबन्धन के पक्ष में वोट किया ही ( 92% इण्डिया, 5% बसपा, 2% NDA ), इस चुनाव की जो नई बात थी, जो चुनाव का turning point बनी, वह दलितों का संविधान के सवाल पर इंडिया के पक्ष में खड़ा होना था।

शायद यह महज संयोग नहीं, वरन एक historical necessity है कि समाज के सबसे आखिरी पायदान की मेहनतकश जनता ने संविधान को बचाने का बीड़ा उठाया। डॉ. आंबेडकर ने जिस हिन्दू राष्ट्र को सबसे बड़ी विपदा बताया था, उसके आसन्न खतरे को रोक देने और बाबा साहब के बनाये संविधान-आरक्षण को बचाने के लिए दलित मूल के बुद्धिजीवी-कर्मचारी, युवा और गरीब खेत मजदूर-किसान अपनी पुरानी पार्टियों और नेताओं को छोड़कर बड़े पैमाने पर इंडिया गठबन्धन के पीछे चट्टान की तरह खड़े हो गए। यह कमोबेश एक राष्ट्रीय पैटर्न जैसा दिखता है।

दलितों के लिए आरक्षित 84 सीटों पर भाजपा 46 से घटकर 30 रह गयी, जबकि कांग्रेस 6 से बढक़र 20 पर पहुंच गई। आदिवासियों के लिए आरक्षित 47 सीटों में भाजपा 31 से घटकर 25 रह गयी जबकि कांग्रेस 4 से बढ़कर 12 पर पहुंच गई।

यूपी में बसपा के कोर वोटर जाटव मतदाताओं के 25 % ने और गैर जाटव मतदाताओं के 56% ने इंडिया गठबन्धन के लिए मतदान किया। दरअसल जाटव मतदाता पहले लगभग शत प्रतिशत बसपा के लिये मतदान करते थे, भाजपा राज में उनके एक हिस्से में आवास अनाज आदि से प्रभावित होकर भाजपा की ओर शिफ्टिंग देखी जा रही थी और सपा से दुराव देखा जा रहा था, लेकिन इस बार उनके एक चौथाई हिस्से ने संविधान की रक्षा के लिए सब कुछ भूलकर, बहन जी को छोड़कर इंडिया गठबंधन को वोट किया।

गैर-जाटव दलित मतदाता हाल के वर्षों में बसपा से दूर, बड़े पैमाने पर भाजपा के साथ चले गए थे। लेकिन इस बार संविधान की रक्षा तथा भाजपा राज की बदहाली के खिलाफ उनके 56% ने इंडिया के लिए वोट किया। इसमें सपा द्वारा सभी समुदायों के लोगों को बड़े पैमाने पर समावेशी ढंग से टिकट वितरण की भी बड़ी भूमिका रही। दलित पासी मूल से आने वाले नेता अवधेश प्रसाद के हाथों स्वयं अयोध्या-फैज़ाबाद में भाजपा नेता लल्लू सिंह की पराजय विभाजनकारी हिंदुत्व पर संविधान की रक्षा के लिए गरीब-मेहनतकश जनता के संकल्प का सबसे बड़ा प्रतीक बन गयी।

दलित राजनीति के व्यापक प्रभाव वाले दूसरे बड़े राज्य महाराष्ट्र में भी दलित वोट का यही पैटर्न रहा। वहां 46% दलित मतदाताओं ने कांग्रेस और MVA को वोट दिया, जबकि 35 % ने बीजेपी और सहयोगियों को, प्रकाश अंबेडकर जैसे नेताओं को दलितों ने punish किया। उन्हें कोई सीट तो नहीं ही मिली, उनकी वंचित विकास अघाड़ी (VBA ) सहित अन्य को मात्र 19% मत मिला। VBA को 2019 के कुल 8% से घटकर इस बार मात्र 2% मत मिला। प्रकाश अंबेडकर स्वयं 3 लाख वोट पाने के बावजूद तीसरे स्थान पर रहे।

बिहार में भले ही इंडिया को अपेक्षित सफलता न मिली हो, लेकिन वहां भी दलित दुसाध/ पासी समुदाय में इंडिया का वोट 28% बढ़कर 35 %पर पहुंच गया जबकि NDA का वोट 19% गिर गया। ठीक इसी तरह अन्य दलितों में इंडिया का वोट 38 % बढ़कर 42 % पहुंच गया जबकि NDA का मत 18% घट गया।

यहां तक कि MP में जहां कांग्रेस अपनी कमजोरियों के कारण एक भी सीट नहीं पा सकी, वहां भी दलितों में उसका वोट प्रतिशत उसके औसत वोटों से अधिक है। कांग्रेस को जहां भाजपा जे 59% की तुलना में 32% वोट मिला, वहीं दलितों में उसे 36% और भाजपा को 53% मिला।

जाहिर है, दलितों के इस नए रुख के कारण बसपा को इस चुनाव में बड़ा झटका लगा है। पिछली बार 10 सीट जीतने वाली बसपा इस बार कोई सीट नहीं जीत सकी। उसका वोट 2014 के 19.77% तथा 2019 के 19.42% से घटकर इस बार 9.39% हो गया। जाहिर है बसपा अपने अतीत की बस छाया मात्र रह गयी है।

लेकिन उसे भविष्य के लिए खारिज करना भारी भूल होगी। गलत राजनीतिक दिशा के कारण अकेले लड़ते हुए polarised चुनाव में वह कोई सीट जीतने में नाकाम रही, इसके बावजूद अभी भी उसे प्रदेश में 9% वोट मिले है। इसमें बड़ा हिस्सा उनके कोर सामाजिक आधार जाटव समाज का वोट है। जाटव समाज मे इण्डिया गठबन्धन को 25%, NDA बको 24% तथा बसपा को 44% वोट मिला है। साफ है कि जाटव समाज के बड़े हिस्से ने अभी बसपा को नहीं छोड़ा है, शायद उन्हें अभी बहन जी के फिर ताकत बन कर उठ खड़े होने की उम्मीद शेष है। बहरहाल सब कुछ मायावती जी समेत तमाम किरदारों की भविष्य की राजनीतिक दिशा पर निर्भर है।

वहीं गैर-जाटव दलित मतों में, जिसका बड़ा हिस्सा पहले बसपा की मिलता था, इस बार 56% इंडिया को, 29% NDA को तथा मात्र 15% बसपा को मिला है। इसी तरह मुस्लिम समुदाय में, जहां एक समय मुस्लिम प्रत्याशी उतार कर बसपा को अच्छा-खासा वोट मिलता था, इस बार 92% इंडिया को तथा 2% NDA और मात्र 5% बसपा को मिला है।

देश के दो सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदायों के बीच भाजपा को मिले मत सबूत हैं कि उनका विश्वास ( trust ) किस कदर भाजपा-राज के प्रति खत्म होता जा रहा है। विपक्षी इंडिया गठबन्धन के पक्ष में मुस्लिम वोट इस बार राष्ट्रीय स्तर पर 20% बढ़कर 65% पर पहुंच गया, वहीं नीतीश और नायडू जैसे सहयोगियों समेत NDA को मात्र 10% मत मिला।

ठीक इसी तरह सिखों के बीच सहयोगियों समेत भाजपा के मत में 20% की भारी गिरावट हुई। आज सत्ताधारी दल का संसद में न एक भी मुस्लिम सदस्य है न सरकार में एक भी मंत्री। देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय के साथ यह बर्ताव शर्मनाक है। अल्पसंख्यकों का यह बढ़ता trust-deficit देश में इंसाफ, अमन और सामाजिक स्थिरता के लिए खतरनाक है।

यह साफ है कि इस चुनाव में भाजपा की हार सर्वांगीण ( comrehensive ) है। इसने दिखा दिया कि पूरे देश में और समाज के सभी तबकों में हवा का रुख अब इनके खिलाफ हो चला है। आने वाले चंद महीनों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव तथा जुलाई में UP की 10 विधानसभा सीटों के उपचुनाव संघ-भाजपा के लिए किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं हैं।

10 साल बाद मोदी/भाजपा को अहंकारी बताकर, हार का ठीकरा उनके सर फोड़ आरएसएस अपनी चमड़ी बचाने की चाहे जितनी कोशिश कर ले और विरोध को प्रतिपक्ष जैसी संज्ञा देकर या consensus की बात करके उदार दिखने की चाहे जितनी कवायद कर ले, सच्चाई यह है कि न संघ बदलेगा, न भाजपा बदलेगी, न उनकी जुगलबन्दी कम होगी। वे नाभिनालबद्ध और अन्योन्याश्रित हैं।

वृहत्तर संघ परिवार के अंदर गुटीय लड़ाइयां उनके जीवन का स्वाभाविक हिस्सा ( part of life ) हैं। उनसे कोई उम्मीद पाले बिना विपक्ष को चुनाव के दौरान अपने पक्ष में बने political momentum को आने वाले दिनों में जनसंघर्षों की धार पर और तेज करना होगा। यही लोकसभा चुनाव के भाजपा-विरोधी अधूरे जनादेश को उसकी तार्किक परिणति तक पहुंचाएगा और संघ-भाजपा के फासीवादी शासन का अंत करेगा।

(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं)

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