स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने में विफल रहा है सुप्रीम कोर्ट?

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यदि देश की जनता, सिविल सोसायटीज, प्रबुद्ध वर्ग और विपक्ष को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के आयोजन में संदेह हो तो उनके सामने केवल सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाने के अलावा क्या विकल्प है? लेकिन भारत के चुनाव आयोग की स्वतंत्रता पर सवालों के बावजूद, सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव संबंधी मामलों में कार्रवाई करने से लगातार इनकार किया है। क्या चुनावों के संचालन में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका को नजरअंदाज करना आसान है। क्या सुप्रीम कोर्ट को स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए और अधिक प्रयास करना चाहिए था? सुप्रीम कोर्ट ने पिछले छह सप्ताह में चुनाव संबंधी लगभग सभी मामलों में भारत के चुनाव आयोग के अधिकार पर भरोसा करते हुए कोई हस्तक्षेप न करने का रुख अपनाया है। लेकिन क्या इस तथ्य से कोई इनकार कर सकता है कि अधिकांश मामलों में सुप्रीम कोर्ट द्वारा कार्रवाई करने से इनकार करने के कारण चुनाव पर महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं पड़ा?

पिछले साल मार्च में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया में बदलाव किया था ताकि उनकी स्वतंत्रता को सुरक्षित रखा जा सके। कोर्ट ने प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश की सदस्यता वाली एक समिति बनाई थी जो संसद द्वारा इस विषय पर कानून बनाए जाने तक चुनाव आयोग में नियुक्तियां करेगी।

हालांकि, दिसंबर में संसद ने एक कानून पारित किया, जिसके तहत चुनाव आयोग के सदस्यों को नामित करने के लिए एक नई समिति बनाई गई, जिसमें प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और एक केंद्रीय कैबिनेट मंत्री शामिल होंगे – न कि भारत के मुख्य न्यायाधीश, जैसा कि फैसले में प्रावधान किया गया था। विधिक क्षत्रों में यह कानून निर्णय की भावना के विरुद्ध माना गया , क्योंकि यह चुनाव आयुक्तों के चयन के मामले को, जिसे निर्णय में कार्यपालिका के प्रभाव से बचाने का प्रयास किया गया था, पुनः केंद्र के नियंत्रण में ला देता है।

इस कानून को इस साल जनवरी को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी। जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस दीपांकर दत्ता की पीठ ने इस कानून पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था। मार्च में नए कानून के तहत केंद्र सरकार ने दो नए चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की थी। इन नियुक्तियों को फिर से सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट  ने इस आधार पर नियुक्तियों और कानून पर रोक लगाने से इनकार कर दिया कि लोकसभा चुनाव शुरू होने वाले हैं।

फरवरी में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने केंद्र सरकार की चुनावी बॉन्ड योजना को असंवैधानिक करार देते हुए इसे रद्द कर दिया था। हालांकि, इस योजना को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सात साल बाद फैसला सुनाया गया। पीठ ने पिछले साल अक्टूबर और नवंबर में ही इस मामले में ठोस सुनवाई की थी। सुप्रीम कोर्ट ने 2021 में इस योजना पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था।

मामले की सुनवाई में अदालत की देरी के परिणामस्वरूप, यह असंवैधानिक योजना 2018 से ही चल रही थी। केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी भारतीय जनता पार्टी इस योजना की सबसे बड़ी लाभार्थी थी और इस योजना से प्राप्त धन का उपयोग वर्तमान चुनाव के साथ-साथ पिछले आम चुनाव और 2018 के बाद से सभी विधानसभा चुनावों में कर सकती थी।

15 अप्रैल को, सुप्रीम कोर्ट ने उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें चुनाव आयोग से यह मांग की गई थी कि मणिपुर के आंतरिक रूप से विस्थापित लोग, जो राज्य से बाहर बस गए हैं, उन राज्यों में विशेष मतदान केन्द्र स्थापित करके चुनाव में अपना वोट डाल सकें।

26 अप्रैल को जस्टिस  संजीव खन्ना और जस्टिस दीपांकर दत्ता की पीठ  ने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों के माध्यम से डाले गए मतों को सत्यापित करने के लिए सभी मतदाता सत्यापित पेपर ऑडिट ट्रेल पर्चियों के मिलान की मांग वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया था।

14 मई को, न्यायालय ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को चुनाव प्रचार के दौरान कथित रूप से नफरत भरे भाषण देने और धर्म का हवाला देने के लिए चुनाव से अयोग्य ठहराने की मांग वाली याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया था। जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की खंडपीठ ने मामले पर विचार करने में अनिच्छा व्यक्त की, जिसके बाद याचिकाकर्ता ने याचिका वापस लेने का फैसला किया। तदनुसार, याचिका को वापस लिया गया मानकर खारिज कर दिया गया।

24 मई को, इसने लोकसभा चुनावों के दौरान बूथ-वार मतदाताओं की कुल संख्या सार्वजनिक करने के लिए चुनाव आयोग को अंतरिम निर्देश देने से इनकार कर दिया। हालांकि, 25 मई को चुनाव आयोग ने चुनाव के पहले पांच चरणों के दौरान प्रत्येक संसदीय क्षेत्र में डाले गए वोटों की कुल संख्या प्रकाशित कर दी।

उसने केवल एक मामले में अपना उदासीन रवैया बदला, जब 10 मई को उसने दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल को धन शोधन के एक मामले में अंतरिम जमानत प्रदान की। अपनी तरह के पहले फैसले में अदालत ने केजरीवाल को केवल लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार करने हेतु अस्थायी जमानत दी।

हालांकि, यहां भी, सुप्रीम कोर्ट इस सिद्धांत को समान रूप से लागू करने में विफल रही। इसने झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और झारखंड मुक्ति मोर्चा पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन और आप के पंजाब विधायक जसवंत सिंह की अंतरिम जमानत याचिकाओं को खारिज कर दिया, दोनों को भी मनी लॉन्ड्रिंग के मामलों में गिरफ्तार किया गया था। दोनों ने केजरीवाल को दी गई जमानत के उदाहरण पर भरोसा करने की मांग की थी।

चुनाव प्रक्रिया के बीच में हस्तक्षेप करने की अनिच्छा व्यक्त करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार (24 मई) को उस आवेदन को स्थगित कर दिया, जिसमें बूथ-वार मतदाता मतदान की पूर्ण संख्या प्रकाशित करने और फॉर्म 17C रिकॉर्ड अपलोड करने के लिए भारत के चुनाव आयोग को निर्देश देने की मांग की गई।

जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की अवकाश पीठ ने कहा कि चुनाव प्रक्रिया के संबंध में न्यायालय को “हैंड-ऑफ दृष्टिकोण” अपनाना होगा और प्रक्रिया में कोई रुकावट नहीं हो सकती।

चुनाव आयुक्त नियुक्ति कानून में हस्तक्षेप न करने के सुप्रीम कोर्ट के आग्रह का एक असर यह भी हुआ है कि चुनाव आयोग भाजपा नेताओं द्वारा बार-बार किए गए चुनाव आचार संहिता उल्लंघनों के खिलाफ सार्थक कार्रवाई करने में विफल रहा है। सेवानिवृत्त नौकरशाहों के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्यायाधीश ने भी इस पर चिंता जताई है, जबकि सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज और लोकनीति द्वारा हाल ही में किए गए एक अध्ययन में चुनाव आयोग के कामकाज पर लोगों का भरोसा कम होता दिखाई दिया है।

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस केएम जोसेफ ने चुनाव में वोट पाने के लिए धर्म, नस्ल, भाषा और जाति के इस्तेमाल के खिलाफ समय रहते कार्रवाई करने के भारत के चुनाव आयोग के महत्व को रेखांकित किया। जस्टिस जोसेफ ने कहा कि चुनाव आयोग को इस तरह की प्रथाओं के खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए। इस तरह की पहचान के आधार पर वोट की अपील करना कानून द्वारा निषिद्ध है।

जस्टिस जोसेफ ने कहा कि वोट पाने के लिए धर्म, नस्ल, भाषा, जाति का इस्तेमाल निषिद्ध है। चुनाव आयोग को इस तरह की प्रथाओं के खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए, चाहे वह कोई भी हो, चाहे वह कितना भी बड़ा क्यों न हो, उसे समय रहते ऐसा करना चाहिए। उन्हें मामलों को लंबित नहीं रखना चाहिए। यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो वे संविधान के साथ सबसे बड़ा अन्याय कर रहे हैं। जस्टिस जोसेफ एर्नाकुलम के सरकारी लॉ कॉलेज द्वारा आयोजित “बदलते भारत में संविधान” विषय पर राष्ट्रीय सम्मेलन के उद्घाटन समारोह में बोल रहे थे।

जस्टिस जोसेफ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में अभिराम सिंह बनाम सी डी कॉमचेन मामले में दिए गए अपने 7 जजों की बेंच के फैसले में जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 123(3) की व्याख्या की है। उन्होंने कहा कि उम्मीदवार या उसके प्रतिद्वंद्वी या दर्शकों में से किसी के धर्म के आधार पर अपील करना वर्जित है।

जस्टिस जोसेफ ने कहा कि चुनाव अभियान में धर्म का कोई स्थान नहीं है। धर्म की अपील तथ्यों के आधार पर चुनावी भाषणों में इस्तेमाल किए गए शब्दों के आधार पर तय की जाने वाली बात है। मैं इससे भी आगे जाऊंगा। आपको समझना होगा कि राजनेता अपनी सीमाओं से बहुत अच्छी तरह वाकिफ हैं। उनके खिलाफ आदर्श आचार संहिता और कानून दोनों के तहत कार्रवाई की जा सकती है। मैं कहूंगा कि अगर वे स्पष्ट रूप से या निहित रूप से कोई भी अभ्यास अपनाते हैं, ऐसा कुछ भी करते हैं, जो तुरंत धार्मिक पहचान बनाए और उन्हें वोट दिलाए… क्योंकि मेरा मानना है कि साधन उतने ही महत्वपूर्ण हैं, जितना कि लक्ष्य। राजनीतिक सत्ता हासिल करना लोगों की सेवा करने का साधन हो सकता है। जिस साधन से आपको राजनीतिक सत्ता मिलती है, वह शुद्ध होना चाहिए।

लेकिन यक्ष प्रश्न यह है कि जब चुनाव आयोग अपने कर्तव्य में विफल हो जाता है, तो न्यायपालिका को सार्थक हस्तक्षेप करना  चाहिए या नहीं। यह अत्यंत खेद जनक है कि चुनाव के मामले में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका बेहद निराशाजनक रही है।

भारत के संविधान का अनुच्छेद 324 चुनावों के अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण का अधिकार सीधे चुनाव आयोग को देता है।लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव और चुनाव सुधारों से जुड़े ज़्यादा सैद्धांतिक मुद्दों पर फ़ैसला किया है। लेकिन चुनाव के संचालन से जुड़े ज़्यादा व्यावहारिक मुद्दों पर उसने कोई कदम नहीं उठाया है।

(जे पी सिंह वरिष्ठ पत्रकार एवं कानूनी मामलों के जानकार हैं।)

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