आपातकाल बनाम अघोषित आपातकाल के टकराव से हुई 18वीं संसद की शुरुआत

Estimated read time 1 min read

क्या हाल ही में हुए चुनाव भारत की लोकतांत्रिक गिरावट को रोक पाएंगे, क्या देश अब अघोषित आपातकाल के दौर से बाहर आ जायेगा? या, क्या ये नतीजे सिर्फ़ एक अस्थायी लोकतांत्रिक राहत हैं और पुराने रुझान जल्द ही वापस आ जाएंगे? पिछले 10 सालों में भारत को लोकतांत्रिक पतन के रूप में जाना जाने लगा है। इस पृष्ठभूमि में बुधवार को ओम बिड़ला के ध्वनि मत से अध्यक्ष चुने जाने के बाद लोकसभा में जो सौहार्द्र कायम हुआ था, जिसमें विपक्ष ने कांग्रेस उम्मीदवार के. सुरेश के समर्थन में मत विभाजन की मांग नहीं की थी, वह उस समय ज्यादा समय तक नहीं टिक सका जब स्पीकर ने 1975 के आपातकाल पर एक प्रस्ताव पढ़ा, जिससे विपक्ष ने भारी विरोध प्रदर्शन किया और इस तरह टकराव से हुई 18वीं संसद की शुरुआत। स्पीकर के प्रस्ताव में कहा गया था कि कांग्रेस ने संविधान की भावना को कुचला है और 1975 में तानाशाही थोपी गई थी।

स्पीकर ने प्रस्ताव पढ़ते हुए कहा, ”आपातकाल इतिहास में एक काला धब्बा है। कांग्रेस सरकार द्वारा किए गए इन संशोधनों का उद्देश्य सभी शक्तियों को एक व्यक्ति के पास लाना, न्यायपालिका को नियंत्रित करना और संविधान के मूल सिद्धांतों को नष्ट करना था। ऐसा करके नागरिकों के अधिकारों का दमन किया गया और लोकतंत्र के सिद्धांतों पर हमला किया गया।”

बड़ी संख्या में विपक्षी सदस्यों की नारेबाजी के बीच आपातकाल के पीड़ितों की याद में एक मिनट का मौन रखने के बाद सदन को दिन भर के लिए स्थगित कर दिया गया।

हालांकि विपक्षी इंडिया गुट ने के. सुरेश को अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ने के लिए नामित किया था, लेकिन इसने मत विभाजन की मांग नहीं की, जिसके कारण प्रोटेम स्पीकर भर्तृहरि महताब ने घोषणा की कि ओम बिड़ला को ध्वनि मत से चुना गया है। इससे तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस में भी विरोधी विचार सामने आए; तृणमूल नेता अभिषेक बनर्जी ने दावा किया कि श्री महताब ने मतों की गिनती नहीं होने दी, जबकि कांग्रेस के जयराम रमेश ने जोर देकर कहा कि पार्टी ने “आम सहमति का माहौल बनाने” के लिए मत विभाजन की मांग नहीं की।

विपक्षी दलों के जोरदार विरोध के बीच स्पीकर ने कहा कि यह सदन 1975 में आपातकाल लगाने के निर्णय की कड़ी निंदा करता है। हम उन सभी लोगों के दृढ़ संकल्प की सराहना करते हैं जिन्होंने आपातकाल का विरोध किया, संघर्ष किया और भारत के लोकतंत्र की रक्षा की जिम्मेदारी निभाई। स्पीकर ने कहा, “25 जून 1975 को भारत के इतिहास में हमेशा एक काले अध्याय के रूप में जाना जाएगा। इस दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाया था और बाबा साहब अंबेडकर द्वारा बनाए गए संविधान पर हमला किया था। उन्होंने कहा कि भारतीय नागरिकों के अधिकारों को कुचला गया और उनकी आजादी छीन ली गई।”

स्पीकर ने कहा, “वह समय था जब विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया था, पूरा देश जेल में तब्दील हो गया था। तत्कालीन तानाशाही सरकार ने मीडिया पर कई प्रतिबंध लगा दिए थे और न्यायपालिका की स्वायत्तता पर भी अंकुश लगा दिया गया था।” अध्यक्ष ने सदस्यों से कुछ देर के लिए मौन रहने का आग्रह किया और बाद में कार्यवाही दिनभर के लिए स्थगित कर दी। सदन की कार्यवाही दिनभर के लिए स्थगित होने के तुरंत बाद भाजपा सदस्यों ने संसद के बाहर तख्तियां लहराते हुए और नारे लगाते हुए विरोध प्रदर्शन किया।

लोकसभा अध्यक्ष ने कहा, ‘आपातकाल (इमरजेंसी) लगाने के बाद उस समय की कांग्रेस सरकार ने कई ऐसे निर्णय किए, जिन्होंने हमारे संविधान की भावना को कुचलने का काम किया। क्रूर और निर्दयी मेंटेनेन्स ऑफ इंटरनल सेक्योरिटी एक्ट (मीसा) में बदलाव करके कांग्रेस पार्टी द्वारा ये सुनिश्चित किया गया कि हमारी अदालतें मीसा के तहत गिरफ्तार लोगों को न्याय नहीं दे पाएं। मीडिया को सच लिखने से रोकने के लिए पार्लियामेंट्री प्रोसिडिंग्स (प्रोटेक्शन ऑफ पब्लिकेशन) रिपील एक्ट, प्रेस काउंसिल (रिपील) एक्ट और प्रिवेन्शन ऑफ पब्लिकेशन ऑफ ऑब्जेक्शनेबल मैटर एक्ट लाए गए। इस काले कालखंड में ही संविधान में 38वां, 39वां, 40वां, 41वां और 42वां संशोधन किया गया।’

उन्होंने कहा कि कांग्रेस सरकार द्वारा किए गए इन संशोधनों का लक्ष्य था कि सारी शक्तियां एक व्यक्ति के पास आ जाएं, न्यायपालिका पर नियंत्रण हो और संविधान के मूल सिद्धांत खत्म किए जा सकें। ऐसा करके नागरिकों के अधिकारों का दमन किया गया और लोकतंत्र के सिद्धांतों पर आघात किया गया। इतना ही नहीं, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कमिटेड ब्यूरोक्रेसी और कमिटेड ज्यूडिशियरी की भी बात कही, जो कि उनकी लोकतंत्र विरोधी रवैये का एक उदाहरण है।

लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने कहा, ‘1975 से 1977 का वो काला कालखंड अपने आप में एक ऐसा कालखंड है, जो हमें संविधान के सिद्धांतों, संघीय ढांचे और न्यायिक स्वतंत्रता के महत्व की याद दिलाता है। ये कालखंड हमें याद दिलाता है कि कैसे उस समय इन सभी पर हमला किया गया और क्यों इनकी रक्षा आवश्यक है।’

उन्होंने कहा कि ऐसे समय में जब हम आपातकाल के 50वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं, ये 18वीं लोकसभा, बाबा साहब आंबेडकर द्वारा निर्मित संविधान को बनाए रखने, इसकी रक्षा करने और इसे संरक्षित रखने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराती है। हम भारत में लोकतंत्र के सिद्धांत, देश में कानून का शासन और शक्तियों का विकेंद्रीकरण अक्षुण्ण रखने के लिए भी प्रतिबद्ध हैं। हम संवैधानिक संस्थाओं में भारत के लोगों की आस्था और उनके अभूतपूर्व संघर्ष, जिसके कारण इमरजेंसी का अंत हुआ, और एक बार फिर संवैधानिक शासन की स्थापना हुई, उसकी सराहना करते हैं।

आपातकाल के बाद पांच दलों के विलय से बनी जनता पार्टी की सरकार ने और कुछ उल्लेखनीय काम किया हो या न किया हो लेकिन संवैधानिक प्रावधानों का सहारा लेकर देश पर दोबारा तानाशाही थोपे जाने की राह को उसने बहुत दुष्कर बना दिया था। ऐसा करना उस सरकार का प्राथमिक कर्तव्य था, जिसे उसने ईमानदारी से निभाया था। लेकिन यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों का अपहरण हर बार बाकायदा घोषित करके ही किया जाए, यह जरुरी नहीं। यह काम लोकतांत्रिक आवरण और कायदे-कानूनों की आड़ में भी हो सकता है, जो कि पिछले आठ साल से लगातार हो रहा है और भयावह रूप में हो रहा है।

आज अगर हम अपनी राजनीतिक और संवैधानिक संस्थाओं के मौजूदा स्वरूप और उनके चाल-चलन को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो हम पाते हैं कि आज देश आपातकाल से भी कहीं ज्यादा बुरे दौर से गुजर रहा है। इंदिरा गांधी ने तो संवैधानिक प्रावधानों का सहारा लेकर देश पर आपातकाल थोपा था, लेकिन आज तो औपचारिक तौर आपातकाल लागू किए बगैर ही वह सब कुछ बल्कि उससे भी कहीं ज्यादा हो रहा है, जो आपातकाल के दौरान हुआ था। फर्क सिर्फ इतना है कि आपातकाल के दौरान सब कुछ अनुशासन के नाम पर हुआ था और आज जो कुछ हो रहा है, वह राष्ट्रवाद के नाम पर।

आपातकाल में संस्थागत और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया गया था। यह वास्तव में एक काला अध्याय था। लेकिन यह एक ऐसा आरोप है जिसका सामना मोदी सरकार ने भी किया है – आपातकाल के कानूनी प्रावधानों के बिना स्वतंत्रता पर अंकुश लगाना। उनके दो कार्यकाल केंद्रीय एजेंसियों और पुलिस के अनियंत्रित और मनमाने इस्तेमाल, आलोचकों और कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारी और मीडिया में डर के आरोपों से प्रभावित हुए। लोगों ने देखा है कि आपातकाल लगाए बिना राजनीतिक गतिशीलता को नियंत्रित करने के लिए राजनीतिक प्रतिशोध और संरक्षण का इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है। महाराष्ट्र, जहां पार्टियों को बलपूर्वक और प्रलोभनों के ज़रिए तोड़ा गया, ने भाजपा को बहुमत के निशान से नीचे लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन मोदी स्पष्ट रूप से इस जनादेश से सबक लेने को तैयार नहीं हैं; वैसे भी उनसे गलत कामों या विफलताओं की सार्वजनिक स्वीकृति की उम्मीद करना मूर्खता है।

बीजेपी में अटल-आडवाणी का दौर खत्म होने के बाद पिछले सालों में ऐसी प्रवृत्तियां मजबूत हुई हैं, जिनका लोकतांत्रिक मूल्यों से कोई सरोकार नहीं है। सरकार और पार्टी में सारी शक्तियां एक समूह के भी नहीं बल्कि एक ही व्यक्ति के इर्द गिर्द सिमटी हुई हैं।

नरेंद्र मोदी देश-विदेश में जहां भी जाते हैं, उनके ‘उत्साही समर्थकों’ का प्रायोजित समूह उन्हें देखते ही मोदी-मोदी का शोर मचाता है और किसी रॉक स्टार की तर्ज पर मोदी इस पर मुदित नजर आते हैं। ऐसे ही जलसों में भाषणों के दौरान उनके मुंह से निकलने वाली इतिहास और विज्ञान संबंधी अजीबोगरीब जानकारियों पर बजने वाली तालियों के वक्त उनकी अहंकारी मुस्कान हैरान करने वाली होती है।

आपातकाल के दौर में उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने चापलूसी और राजनीतिक बेहयाई की सारी सीमाएं लांघते हुए ‘इंदिरा इज इंडिया- इंडिया इज इंदिरा’ का नारा पेश किया था। आज भाजपा में तो अमित शाह, जेपी नड्डा, शिवराज सिंह चौहान, देवेंद्र फडणवीस आदि से लेकर नीचे के स्तर तक ऐसे कई नेता हैं जो नरेंद्र मोदी को जब-तब दैवीय शक्ति का अवतार बताने में कोई संकोच नहीं करते। कुछ समय पहले भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने तो देवकांत बरुआ ही नहीं, बल्कि अपनी पार्टी के बाकी नेताओं को भी मात देते हुए राजनीतिक चापलूसी की नई मिसाल पेश की थी। उन्होंने कहा था कि नरेंद्र मोदी तो देवताओं के भी नेता हैं।

आज तो देश में लोकतंत्र का पहरुआ कहे जा सकने वाला एक भी ऐसा संस्थान नजर नहीं आता, जिसकी लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर प्रतिबद्धता संदेह से परे हो। आपातकाल के दौरान जिस तरह प्रतिबद्ध न्यायपालिका की वकालत की जा रही थी, आज वैसी ही आवाजें सत्तारुढ़ दल से ही नहीं, बल्कि न्यायपालिका की ओर से भी सुनाई दे रही है। यही नहीं, सरकार के मंत्री अदालतों को नसीहत दे रहे हैं कि उन्हें कैसे फैसले देना चाहिए।

बिना घोषित प्रतिबद्ध न्यायपालिका के ज्यादातर मामलों में अदालतों के फैसले भी सरकार की मंशा के मुताबिक ही रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के न्यायाधीश सत्तारूढ़ दल के नेताओं की सार्वजनिक मंचों से प्रधानमंत्री मोदी की चापलूसी भरी तारीफ कर रहे हैं और सेवानिवृत्ति के तत्काल बाद ‘उचित पुरस्कार’ पा रहे हैं।

चुनाव आयोग की साख और विश्वसनीयता पूरी तरह चौपट हो चुकी है और वह एक तरह से चुनाव मंत्रालय में तब्दील हो गया है। किसी भी चुनाव का कार्यक्रम प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी की सुविधा को ध्यान रख कर बनाया जाता है। 18वीं लोकसभा का चुनाव भी इससे अछूता नहीं रहा। चुनाव में मिले जनादेश को दलबदल और राज्यपालों की मदद से कैसे तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है, उसकी मिसाल पिछले दस वर्षों के दौरान हम गोवा, मणिपुर, बिहार, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, महाराष्ट्र आदि राज्यों में देख चुके हैं। महाराष्ट्र में तो यह खेल इस समय भी दोहराया जा रहा है।

राज्यसभा चुनाव में ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने के लिए सत्तारूढ़ दल की ओर से विपक्षी विधायकों की खरीद-फरोख्त का नजारा भी देश पिछले दस वर्षों से लगातार देख रहा है।

जनता और संविधान के प्रति नौकरशाही की कोई जवाबदेही नहीं रह गई है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो समूची नौकरशाही सत्ताधारी दल की मशीनरी की तरह काम करती दिखाई पड़ती है। सूचना का अधिकार कानून लगभग बेअसर बना दिया गया है। सीबीआई, आयकर विभाग, प्रवर्तन निदेशालय जैसी एजेंसियां विपक्षी नेताओं और सरकार से असहमत सामाजिक कार्यकर्ताओं, लेखकों और बुद्धिजीवियों को परेशान करने का औजार बन गई हैं। इस काम में भी न्यायपालिका सरकार की परोक्ष रूप से सहायक बनी हुई है।

आपातकाल कोई आकस्मिक घटना नहीं, बल्कि सत्ता के अतिकेंद्रीयकरण, निरंकुशता, व्यक्ति-पूजा और चाटुकारिता की निरंतर बढ़ती गई प्रवृत्ति का ही परिणाम थी। अब तो उससे भी ज्यादा भयावह परिदृश्य दिखाई दे रहा है। सारे अहम फैसले संसद तो क्या, केंद्रीय मंत्रिपरिषद की भी आम राय से नहीं किए जाते; सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री और उनके मुख्य सिपहसालार यानी गृह मंत्री अमित शाह की चलती है।

दरअसल आपातकाल के बाद से अब तक औपचारिक तौर पर तो लोकतांत्रिक व्यवस्था चली आ रही है, लेकिन अघोषित आपातकाल में लोकतांत्रिक संस्थाओं, रवायतों और मान्यताओं का क्षरण तेजी से जारी है। लोगों के नागरिक अधिकार लगातार कतरे जा रहे हैं। लोगों के बुनियादी अधिकार छीने जा रहे है। आज पूरा देश इलेक्ट्रानिक जासूसी की गिरफ्त में है।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं)

You May Also Like

More From Author

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments