जन-मुद्दों पर सड़क से संसद तक सरकार की घेरेबंदी ही मोदी सरकार के अंतर्विरोधों और बिखराव को तेज करेगी

Estimated read time 2 min read

लोकसभा चुनाव के नतीजों से देश ने राहत की सांस जरूर ली है, लेकिन जिस तरह फिर मोदी-शाह के नेतृत्व में सरकार बन गयी है और मतगणना के तमाम आंकड़े सामने आये हैं, वे गवाह हैं कि आम जनता तथा लोकतांत्रिक ताकतों के लिये complacency की कोई जगह नहीं है। बेशक भाजपा बहुमत से पर्याप्त नीचे खिसक गई है और उसके एकछत्र निरंकुश शासन का अंत हो गया है। वह अब अगले वर्ष 2025 में आरएसएस के शताब्दी वर्ष में हिन्दू राष्ट्र की दिशा में कोई बड़े संवैधानिक बदलाव भी नहीं कर पाएगी क्योंकि उसके पास इसके लिए जरूरी संख्या नहीं है और वह भिन्न विचारधारा वाले दलों की वैसाखी पर निर्भर है।

इस चुनाव में उत्तर प्रदेश के नतीजों ने पूरे देश को नई उम्मीद दी है कि मोदी-शाह-योगी के नेतृत्व वाली भाजपा अपराजेय नहीं है, उसे उसके सबसे मजबूत गढ़ में ही शिकस्त दी जा सकती है। उत्तर प्रदेश ने भाजपा को आधे से कम सीटों पर रोककर दिल्ली में अकेले अपने दम पर  बहुमत की सरकार बना लेने के उसके मनसूबे पर पानी फेर दिया। इसके विपरीत ओडिशा, दिल्ली, मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों ने पूरी तरह निराश किया है। ऐसे ही राज्यों के कारण भाजपा और एनडीए को सत्ता से बेदखल करने की जनादेश की मूल दिशा अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच सकी और अल्पमत में खिसकने के बावजूद भाजपा सहयोगियों की मदद से फिर सरकार बनाने में कामयाब ही गयी।

ओडिशा, दिल्ली, मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भाजपा की अप्रत्याशित सफलता के कारण बहुत स्पष्ट हैं। दरअसल भाजपा की विचारधारा और राजनीति को चुनौती दिए बिना, उसके समक्ष समर्पण करके आप अपनी जनता को उसके राजनीतिक हमले के आगे निरस्त्र ( disarm ) कर देते हैं। इस तरह आप राजनीतिक लड़ाई में कभी उसका मुकाबला नहीं कर सकते।

तात्कालिक तौर पर भले ही मोदी-शाह का नवीन पटनायक के खराब स्वास्थ्य के बारे में तथा उनके द्वारा तमिल मूल के पांडियन को उत्तराधिकारी बनाने का मिथ्या प्रचार नवीन बाबू के पतन और भाजपा की अप्रत्याशित जीत का कारण बना हो। लेकिन मूल कारण तो कुछ और ही था। दरअसल, ओडिशा में नवीन पटनायक good governance के नाम पर कॉर्पोरेट मॉडल की सरकार चलाते रहे। अपने दल के समाजवादी-जनतादली वैचारिक-राजनीतिक अतीत से वह बहुत पहले पीछा छुड़ा चुके थे। पिछले 10 साल से केंद्र में मोदी सरकार का हर crucial मौके पर वे समर्थन करते रहे। इस दोस्ताना माहौल में भाजपा अकूत संसाधनों, कैडर और पैसे के बल पर पूरे ओडिशा में पांव पसारती रही। नवीन बाबू शायद इस मुगालते में रहे कि भाजपा दिल्ली में राज करेगी और उनके समर्थन के बदले उन्हें ओडिशा में राज चलाने देगी। लेकिन अचानक उन्होंने पाया कि उनके पैरों तले की जमीन भाजपा खिसका चुकी है। और वे अपने राज्य से भी बेदखल हो चुके हैं।

दिल्ली में केजरीवाल जिस तरह पिछले 10 साल से बहुसंख्यक समुदाय के appeasement में भाजपा से प्रतिस्पर्धा में उतरे हुए हैं, संघ-भाजपा के साम्प्रदायिक हमले के खिलाफ, विशेषकर दंगों के समय जिस तरह का शर्मनाक समर्पणवादी रवैया उन्होंने अपनाया, उसी का फल है कि राजनीतिक लड़ाई में वे भाजपा के आगे कहीं टिक नही सके। दिल्ली में इंडिया गठबन्धन को केजरीवाल के वैचारिक दिवालियेपन और राजनीतिक अवसरवाद की कीमत चुकानी पड़ी। आप केवल कथित good governance के नाम पर, अच्छे स्कूल-अस्पताल बनवाकर भाजपा जैसी विचारधारात्मक-राजनीतिक ताकत को जो कैडर आधारित मजबूत सांगठनिक ढांचे पर खड़ी है, शिकस्त नहीं दे सकते।

मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में कमलनाथ और भूपेश बघेल जिस नरम हिंदुत्व पर अमल करते रहे, कमलनाथ पिता-पुत्र एक पैर भाजपा में, दूसरा कांग्रेस में रखे रहे, उनसे आखिर भाजपा के मुकाबले की उम्मीद की भी कैसे जा सकती थी ?

मोदी ने NDA का नेता चुने जाने के बाद अपने नायडू और नीतीश जैसे सहयोगियों की तारीफ करते हुए कहा कि ये सब लोग गुड गवर्नेंस के लिए जाने जाते हैं। दरअसल यह गुड गवर्नेंस और कुछ नहीं गरीबों-मेहनतकशों के प्रति प्रतिबद्धता तथा सोशलिस्ट सेक्युलर-डेमोक्रेटिक मूल्यों से रहित कॉर्पोरेट विकास के रास्ते की राजनीति पर अमल के लिए smokescreen है। इसी विचारधारा- विहीन राजनीति से पैदा vacuum में हिंदुत्व की राजनीति देश में जगह-जगह फली-फूली है। इस चुनाव के तमाम आंकड़े इसी तथ्य की पुष्टि कर रहे हैं।

गौरतलब है कि आदिवासियों के बीच 5% बढ़कर भाजपा 48% पर पहुंच गई जबकि कांग्रेस 8% घटकर मात्र 23% मत प्राप्त कर सकी। जाहिर है कांग्रेस के लिए यह गम्भीर आत्ममंथन का विषय है, जाति-जनगणना का नारा या सामाजिक न्याय का वायदा कॉरपोरेट मॉडल से आदिवासियों की तबाही और जल-जंगल-जमीन से उनकी बेदखली का विकल्प नहीं हो सकता। आदिवासियों के बीच जड़ जमाता संघ और मोदी की पहचान की राजनीति (आदिवासी राष्ट्रपति आदि) बाजी पलट देने में सफल रही, आदिवासियों के बीच भाजपा मत प्रतिशत में कांग्रेस से कोसों आगे निकल गयी।

चुनाव परिणाम को लेकर तरह-तरह के false नैरेटिव खड़े किए जा रहे हैं और नए नए myth गढ़े जा रहे हैं। कुछ विश्लेषक जनादेश को कम्युनल twist देने की कोशिश कर रहे हैं कि कांग्रेस की सीटों की टैली मूलतः मुस्लिम मतों के कारण है। जबकि सच्चाई यह है कि कांग्रेस को पहले से मात्र 5% अधिक कुल 38% मुस्लिम मत मिला है, देश में 14% मुस्लिम आबादी के औसतन अधिकतम 70% मत भी पड़ा माना जाय तो कांग्रेस को कुल पड़े मतों का लगभग 4% मुस्लिम मत से आया, जबकि कांग्रेस को कुल 20% से ऊपर मत मिला है। जाहिर है यह नैरेटिव गढ़ना कि कांग्रेस की टैली मुस्लिम मतों के कारण है, हास्यास्पद है और शरारतपूर्ण है।

कुछ लोग जनादेश की मण्डल-कमंडल की लड़ाई के आधार पर व्याख्या कर रहे हैं, इसका तथ्यों से कोई लेना-देना नहीं है। सच्चाई यह है कि आज भी भाजपा को अति पिछड़ों में पहले से 1% अधिक 49% मिला है और पिछड़ों में मात्र 2% घटकर 39% मत मिला है। जबकि इण्डिया गठबन्धन को अभी भी इनमें क्रमशः 25% और 35% मत मिला है। अर्थात आज भी विपक्ष का वोट पिछड़ों में भाजपा से कम है। दरअसल यह इस बात का भी सबूत है कि भाजपा आज भी ओबीसी के बीच मजबूती से पैर जमाये हुए है। इसी तरह सवर्णों में भाजपा का मत प्रतिशत पहले के 53% पर स्थिर रहा, जबकि विपक्ष का वोट उनमें 3% बढकर 21% हो गया।

यूपी के बारे में कुछ लोगों को लग रहा है कि सपा ने सोशल इंजीनियरिंग के बल पर भाजपा को पछाड़ दिया। यह पूरा और असल सच नहीं है। सोशल इंजीनियरिंग तो भाजपा भी पहले से किये हुए है। वह सोशल इंजीनियरिंग में सपा से पीछे नहीं है।

दरअसल जीवन के मूलभूत सवालों महंगाई, बेरोजगारी आदि तथा संविधान की रक्षा के लिए बेचैनी वह मूल बात है, जिसने विशेषकर हाशिए के तबकों को भाजपा से अलग विपक्ष की ओर मोड़ा, उसमें सटीक सामाजिक प्रतिनिधित्व देते हुए विपक्ष ने भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग को मात दे दिया।

बिहार में कई सीटों पर प्रत्याशियों का गलत चयन एक कारण रहा, उदाहरण के लिए सिवान सीट पर भाकपा माले की स्वभाविक दावेदारी थी। उसे वह सीट बंटवारे में मिलती तो वह इण्डिया गठबन्धन की झोली में होती। लेकिन उससे महत्वपूर्ण बात यह कि दलितों, अतिपिछड़ों का जो समर्थन यूपी में विपक्ष के साथ जुड़ा, वह उस तरह बिहार में सम्भव नहीं हो सका। यद्यपि रोजगार, नौकरियों, सामाजिक न्याय को लेकर विपक्ष ने spirited campaign चलाया, लेकिन वह नीतीश-चिराग-मांझी के गहरे जड़ जमाये सामाजिक समीकरण को निर्णायक ढंग से हिलाने और अपने पक्ष में मोड़ने में सफल नहीं हो पाया, यद्यपि उनका मत प्रतिशत और सीटें बढ़ीं। जाहिर है नौकरियों और सामाजिक न्याय का चुनाव में प्रचार आवश्यक तो है लेकिन वह पर्याप्त नहीं है।

एक और बहुत रोचक तथ्य की ओर मोदी जी के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने इशारा किया है। सरकार का यह दावा था कि पिछले 3 सालों में जीडीपी वृद्धिदर क्रमश 9.7%, 7%, 8.2%थी। इस तरह 3 साल में अर्थव्यवस्था का आकार एक चौथाई बढ़ जाना आर्थिक चमत्कार से कम नहीं है। इसके बावजूद भाजपा, 60 से अधिक सीटें घटकर बहुमत से नीचे चली गयी। वे पूछते हैं, क्या जनता ने ऐसी आश्चर्यजनक आर्थिक संवृद्धि ( इकनॉमिक बूम ) के लिए सत्तारूढ़ दल को इनाम देने की बजाय सजा दिया है? अगर ऐसा है तो यह विश्व इतिहास कि अभूतपूर्व घटना होगी। वे पूछते हैं कि क्या इस जनादेश ने चुनाव के बारे में कभी बिल क्लिंटन के सलाहकार द्वारा चुनावों के बारे मे कही गयी इस स्थापित मान्यता को झुठला दिया है कि ” It’s the economy, stupid ! ” ?

उनका निष्कर्ष है कि ऐसा नहीं है। दरअसल यह मोदी सरकार द्वारा जीडीपी के आंकड़ों के दोषपूर्ण measurement और  असन्तुलित development model का नतीजा है। सरल शब्दों में उनके अनुसार जीडीपी के ये आंकड़े बढ़ा-चढ़ा कर पेश किए गए हैं और जो वृद्धि हुई भी है उसके लाभ से समाज की विराट मेहनतकश आबादी वंचित रह गयी।

बहरहाल, इसके बावजूद ये आंकड़े बेहद चौंकाने वाले हैं कि अभी भी न सिर्फ उच्च वर्ग में भाजपा को विपक्ष के 32% से 9% अधिक 41% मत मिले हैं, बल्कि गरीबों में भी उसके मत विपक्ष से कम नहीं हैं।

दक्षिण के राज्यों में भाजपा की बढ़त के भविष्य के लिए खतरनाक संकेत हैं। जहां केरल में वे खाता खोलने में सफल रहे, वहीं तमिलनाडु में उनके मत प्रतिशत में वृद्धि हुई, कर्नाटक, तेलंगाना में कांग्रेस की लोकप्रिय सरकारों और ताकतवर नेताओं के बावजूद भाजपा वहां मजबूती से जमी हुई है, तेलंगाना में तो BRS के पिछड़े आधार को समेटकर वह अपनी सीटें दोगुना करने में सफल रही।

सच तो यह है कि मोदी सरकार केंद्र में फिर सत्तारूढ़ हो पाई तो उसका बड़ा श्रेय दक्षिण के राज्यों उड़ीसा, कर्नाटक, तेलंगाना और सहयोगियों के साथ आंध्र की उसकी सफलता को ही जाएगा।

जाहिर है विपक्ष और लोकतांत्रिक जनमत के समक्ष चुनौतियां गम्भीर हैं। बहरहाल, आशा की सबसे बड़ी किरण है कि हमारे समाज के सबसे गरीब हाशिये के तबकों ने 5 किलो अनाज पर संविधान कि रक्षा को वरीयता दिया। यह इस बात की गारंटी है कि हमारे संविधान को आंच नहीं आने पाएगी। उम्मीद है ताकतवर होकर उभरा आत्मविश्वास से भरा विपक्ष संसद से सड़क तक चुनाव के दौरान किये गए अपने वायदों और ज्वलन्त जनमुद्दों को लेकर मोदी सरकार को जोरशोर से घेरेगा, तभी बैसाखियों पर टिकी सरकार के अंदरूनी अंतर्विरोध तेज होंगे और उसके बिखराव की प्रक्रिया शुरू हो सकती है।

(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

You May Also Like

More From Author

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments