कहते हैं कि दिल्ली का रास्ता लखनऊ से होकर जाता है। एक बार फिर यह सच साबित हुआ। यूपी ने भाजपा को अप्रत्याशित झटका देकर लगातार तीसरी बार अपने दम पर बहुमत की सरकार बनाने की मोदी की उम्मीदों पर पानी फेर दिया और बैसाखियों पर चलने पर मजबूर कर दिया। मोदी-शाह के एकछत्र अधिनायकवादी शासन के मंसूबों पर विराम लग चुका है। आने वाले दिनों में कॉर्पोरेट विकास के रास्ते का संकट तेज होने के साथ संघ-भाजपा-एनडीए के अंदर- बाहर अंतर्विरोधों का तेज होना तय है।
2014 और 2019 में मोदी की प्रचण्ड बहुमत की सरकार यूपी के बल पर ही बनी थी। पिछले10 साल में मोदी-योगी की जुगलबंदी में यूपी भाजपा की राजनीति का अभेद्य दुर्ग बन गया था। यहां तक कि इस बार जब चुनाव अभियान शुरू हुआ तो यह माना जा रहा था कि शायद यूपी इकलौता राज्य होगा जहां भाजपा अपनी सीटें बढ़ाने की उम्मीद कर सकती है। लेकिन जब नतीजे आये, तो ऐसा कुछ हुआ जिसकी पक्ष-विपक्ष किसी ने सपने में भी कल्पना नहीं की थी।
यूपी में भाजपा को बड़ा झटका लगा। उसकी सीटें 2019 के 62 से घटकर 33 रह गईं और मत 8% गिरकर 49.6% की जगह 41.4% रह गया। प्रदेश की 80 में से 72 लोकसभा सीटों पर उसका वोट 2019 की तुलना में घट गया। दरअसल उसे 5 साल पहले की तुलना में 65 लाख वोट कम मिला जबकि इस बार प्रदेश में कुल मत 2019 के 8.6 करोड़ से 20 लाख बढ़कर 8.8 करोड़ पड़ा। भाजपा को 4.3 करोड़ से घटकर 3.6 करोड़ ही मत मिला अर्थात हर सीट पर औसतन 67 हजार मतों की गिरावट हुई है। घटे मत वाली सीटों में मोदी जी की वाराणसी, राजनाथ सिंह की लखनऊ, योगी का गढ़ गोरखपुर, रायबरेली, अमेठी, प्रयागराज आदि शामिल हैं।
जिन सीटों पर भाजपा का वोट घटा है उसमें से 8 पिछली बार बसपा ने जीता था, अबकी बार उनमें से 6 सपा और कांग्रेस ने जीत लिया, एक नगीना सीट आज़ाद पार्टी के चंद्रशेखर आज़ाद ने जीत लिया। अर्थात बसपा के पराभव से भाजपा लाभ नहीं उठा सकी, क्योंकि उसका अपना वोट भी घट गया, बल्कि उसका फायदा इण्डिया गठबन्धन और चंद्रशेखर आज़ाद को मिला, भाजपा केवल अमरोहा सीट जीत सकी। बसपा का नुकसान इंडिया का फायदा बन गया। कम से कम 16 ऐसी सीटें हैं जहां बसपा गठबन्धन के साथ होती, तो गठबन्धन जीतता और भाजपा यूपी में 20 सीट से भी नीचे चली जाती।
यूपी में भाजपा को लगे जबरदस्त झटके में कई अहम
सन्देश छिपे हुए हैं। दरअसल इस बार यूपी में मोदी युग की भाजपा की अभूतपूर्व सफलता के सभी महत्वपूर्ण कारक/संघटक-तत्व कसौटी पर थे-मोदी मैजिक, हिंदुत्व और योगी फैक्टर। सर्वोपरि तो कथित मोदी मैजिक! इसका हाल यह हुआ कि मोदी स्वयं अपना चुनाव अजय राय जैसे कमजोर प्रत्याशी से पिछली बार के साढ़े 5 लाख की मार्जिन की जगह बमुश्किल डेढ़ लाख वोट से जीत पाए। इन पंक्तियों के लेखक जैसे तमाम लोगों के मन मे यह बात थी कि विपक्ष मोदी के खिलाफ प्रियंका गांधी जैसा कोई मजबूत प्रत्याशी खड़ा करके मोदी को वहीं शिकस्त दे सकता था और उनकी तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा पर विराम लगा सकता था।
यही बात अब उनके भाई राहुल गांधी ने कही है, लेकिन अफसोस समय चूक जाने के बाद। काश ऐसा हुआ होता तो एनडीए के बहुमत के बावजूद देश को मोदी से मुक्ति मिल जाती। केवल और केवल मोदी के नाम पर लड़े गए चुनाव में यूपी समेत देश के बड़े इलाके में पराजय और बहुमत से वंचित रह जाना तथा वाराणसी में सारी ताकत लगाने के बावजूद तुलनात्मक रूप से बेहद कम मार्जिन से जीत ब्रांड मोदी के पराभव का सबसे बड़ा सबूत (surest sign ) है।
यह चुनाव विभाजनकारी, नफरती हिंदुत्व पर धर्मप्राण जनता के रोजी रोटी और संविधान की रक्षा के संकल्प की विजय का प्रतीक बन गया।
दरअसल, यूपी के अयोध्या में बाबरी मस्जिद का विध्वंस और राममंदिर को लेकर की गई राजनीति 80 के दशक से शुरू हुए संघ-भाजपा के उभार का सबसे बड़ा स्रोत रही है। मोदी युग में उसमें काशी, मथुरा भी जुड़ गया है। अंततः 22 जनवरी, 2024 को अभूतपूर्व उन्माद के बीच अयोध्या में प्राण-प्रतिष्ठा कर मोदी ने लगभग 4 दशक से चल रहे मन्दिर निर्माण के अभियान को उसकी चरम परिणति तक पहुंचा दिया, इस उम्मीद में कि 2019 के पुलवामा-बालाकोट की तरह अयोध्या के बल पर पूरे देश मे फिर 300-400 पार प्रचण्ड बहुमत मिल जाएगा! लेकिन हुआ ठीक उल्टा!
दरअसल, भाजपा न सिर्फ देश मे बहुमत से नीचे चली गयी और यूपी में आधे से कम हो गयी, बल्कि यह इस चुनाव का सबसे आश्चर्यजनक उलटफेर था कि स्वयं अयोध्या-फैज़ाबाद में ही उसे शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा। वह भी सामान्य सीट पर दलित प्रत्याशी अवधेश प्रसाद ने भाजपा के कई टर्म के सांसद लल्लू सिंह को हरा दिया। यह जीत इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि लल्लू सिंह भी भाजपा के उन नेताओं में शामिल थे जिन्होंने 400 से ऊपर सीट का आह्वान किया था ताकि संविधान बदला जा सके। बहरहाल अयोध्या की जनता ने, जाहिर है जिनमें अधिकांश धर्मप्राण हिन्दू ही होंगे, उन्होंने राममंदिर के नाम पर भाजपा के शातिर राजनीतिक खेल को रिजेक्ट कर दिया और रोजी-रोटी, महंगाई, संविधान के सवाल पर भाजपा को पराजित कर दिया।
इस मूल बात से डाइवर्ट करने के लिए अयोध्या में हुई तोड़फोड़ आदि से जनता की नाराजगी को हार के मुख्य कारण के बतौर बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जा रहा है ताकि हार के असल कारण- हिंदुत्व की राजनीति की पराजय और रोजी-रोटी, संविधानवाद की जीत-को छिपाया जा सके। न सिर्फ अयोध्या-फैज़ाबाद बल्कि उसके आसपास की कम से कम दो दर्जन सीटें भाजपा हारी है। इसे धर्म के राजनीतिक दुरुपयोग और बाजारीकरण तथा बाहरी लोगों द्वारा अयोध्या के उपनिवेशीकरण ( भौतिक और धार्मिक-साम्प्रदायिक दोनों अर्थों में) के विरुद्ध देशज आध्यात्मिक धार्मिकता के विद्रोह के बतौर भी देखा जाना चाहिए।
भाजपा की भारी पराजय ने योगी के सख्त ईमानदार प्रशासन और कड़ी कानून-व्यवस्था आदि के मिथ को भी बेनकाब कर दिया है। दरअसल ये विशेषण misnomer हैं जो अल्पसंख्यकों तथा गरीबों-दलितों के खिलाफ योगी के लक्षित बुलडोज़र न्याय की तारीफ में गोदी मीडिया और उनके समर्थकों द्वारा प्रयोग किया जाता है। इस मॉडल के बल पर योगी हिंदुत्व के पोस्टर ब्वॉय बन गए थे, यहां तक कि एक तबके में वे आरएसएस के पसन्दीदा, मोदी के उत्तराधिकारी के रूप में देखे जाने लगे थे। चुनाव में यूपी के संदर्भ में कुछ विश्लेषक योगी फैक्टर को मोदी फैक्टर से भी ज्यादा महत्वपूर्ण बताने लगे थे। बहरहाल मोदी-योगी जोड़ी की डबल इंजन की सरकार की कुल संयुक्त उपलब्धि यह रही कि भाजपा की सीटें लगभग आधी हो गईं और यूपी ने दक्षिण-तटीय भारत की उनकी नई उपलब्धियों पर पानी फेर दिया, भाजपा बहुमत से 32 सीट पीछे रह गयी।
आज सबसे बड़ा सवाल, जो भविष्य की राष्ट्रीय राजनीति की दिशा तय करेगा, यही है कि भाजपा यूपी में इस धक्के के बाद फिर मूल्यांकन कर पाएगी अथवा 90 के दशक में कल्याण सिंह के मुख्यमंत्रित्व के बाद लगभग 2 दशकों तक पर जिस तरह ढलान पर फिसलती गयी थी, उस गति को प्राप्त होगी? दरअसल यूपी में मौजूदा धक्के से उबरने की उसकी क्षमता पर ही राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा का भावी revival निर्भर है।
सच्चाई यह है कि आज राजनीति एक चौराहे पर है, जहां से वह दोनों दिशाओं की ओर झुक सकती है। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि तमाम सियासी किरदार आने वाले दिनों में अपनी भूमिका कैसे निभाते हैं।
बहरहाल, विपक्ष में जो लोग भाजपा के पराभव को लेकर अति उत्साहित हैं, उन्हें याद रखना चाहिए कि भाजपा अतीत में अकल्पनीय ढंग से bounce back करने की क्षमता प्रदर्शित कर चुकी है। 2012 के विधानसभा चुनाव में भाजपा का मत 15 % पहुंच गया था और मात्र 47 सीटें मिली थीं। वहां से उछल कर 2014 लोकसभा चुनाव में 42.6% मत के साथ उसने प्रदेश की 71 सीटें जीत ली और 2017 में 40% मत के साथ यूपी में उसने 312 सीटें जीतकर प्रचण्ड बहुमत की सरकार बना लिया।
यह निर्विवाद है कि संविधान की रक्षा की गहरी चिंता इस बार समाज के वंचित हाशिये के तबकों में चुनाव का निर्णायक मुद्दा बनी, लेकिन विपक्ष अगर गाफिल हुआ तो इसे विस्मृत होते देर नहीं लगेगी और सम्भव है यह अगले चुनाव में राजनीतिक मुद्दा न रह जाय। इस मुद्दे को भोथरा करने में भाजपा लग गयी है। संविधान की किताब को दण्डवत हो सर माथे लगाते मोदी जी के दृश्य आने लगे हैं।
संघ-भाजपा संविधान व लोकतंत्र विरोधी हैं, यह स्थायी तौर पर व्यापक जनता की अनुभूति का विषय बन जाय, इसके लिए विपक्ष को सतत अभियान चलाना होगा। न सिर्फ सरकार के संविधान विरोधी, लोकतंत्र विरोधी कदमों का पर्दाफाश करना होगा, बल्कि pro-active ढंग से संविधान की spirit-सबके लिए आजीविका और गरिमापूर्ण जीवन- को लागू करने के लिए, सबके लिए सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय की गारंटी की लड़ाई के लिए सड़क पर उतरना होगा।
यह साफ है कि सोशल इंजीनियरिंग जैसे उपाय तभी सफ़ल होंगे जब जनता अपने जीवन के मूलभूत सवालों को लेकर सरकार से नाराज हो तथा विपक्ष उसे अपने सकारात्मक कार्यक्रमों द्वारा आकर्षित और आंदोलित कर सके।
(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं)