भारत सरकार की याददाश्त हाथी की है और चमड़ी गैंडे की। बुकर विजेता लेखिका अरुंधती रॉय पर एक बार फिर राजद्रोह का आरोप लगाया गया है, उनके व पूर्व प्रोफेसर शेख शौकत हुसैन के खिलाफ 2010 के एक मामले को लेकर। इससे वह स्वतंत्र समाचार साइट न्यूजक्लिक से जुड़े लगभग 50 लोगों की सूची में शामिल हो गई हैं, जो भारत सरकार के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले का शिकार हुए हैं।
चाहे यह रॉय के गरीबों के प्रति विभिन्न सरकारों के रवैये के खिलाफ आलचोनात्मक रुख के कारण हो या फिर न्यूजक्लिक के किसान आंदोलन के कवरेज के कारण, भारत सरकार अपने ऑपरेटिंग माहौल में किसी बदलाव के प्रति बेहद संवेदनशील रहती है। शब्द प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गहरे चुभते हैं और अब प्रशासन उसका बदला ले रहा है। यह भारत के चौथे खंभे पर इंदिरा गांधी के 1975-77 आपातकाल की अवधि के बाद सबसे भयावह हमले हैं और यह संभव हुए हैं न्यूयॉर्क टाइम्स के कारण।
भारत सरकार ने न्यूजक्लिक के खिलाफ कार्रवाई को इस आधार पर सही ठहराया है कि “नेविल रॉय सिंघम, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रचार विभाग के सक्रिय सदस्य”, की तरफ से न्यूजक्लिक को गैरकानूनी तरीके से निधि मुहैया कराई। और सरकार को इस कथित कनेक्शन के बारे में कैसे पता चला? न्यूयॉर्क टाइम्स की अगस्त की “अ ग्लोबल वेब ऑफ चाइनीज प्रॉपगेंडा लीड्स टू अ यूएस टेक मोगल” शीर्षक वाली खबर से।
सिंघम चीन में रहते हैं, लेकिन न तो वह पार्टी सदस्य हैं न चीनी सरकार के कर्मचारी। टाइम्स के प्रमाणों, कि वह चीनी सरकार की कठपुतली हो सकते हैं, में उनका चीनी स्टेट मीडिया द्वारा रीट्वीट किया जाना और कम्युनिस्ट पार्टी पदाधिकारी के पास बैठकर “लाल हंसिया और हथौड़े वाली नोटबुक में कुछ लिखना” थे। इसके अलावा उनके घर में “ऑल्वेज़ फॉलो द पार्टी” लिखा बैनर और शी जिनपिंग प्लेट होना भी था। यह पत्रकारिता के नाम पर मज़ाक जैसा ही है।
टाइम्स रिपोर्टरों को स्पष्ट रूप से बताया गया था कि न्यूजक्लिक को फन्डिंग करने वाली धर्मादा संस्था ने कभी किसी “विदेशी नागरिक, संस्था, राजनीतिक पार्टी या सरकार (या उनके किसी सदस्य या प्रतिनिधि से) फन्डिंग नहीं ली।” रॉय चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य नहीं हो सकते क्योंकि वह चीनी नहीं हैं। अखबार ने यह तथ्य खबर में शामिल नहीं किए। टाइम्स ने इनकी अनदेखी की। रिपोर्टिंग में कोई ठोस आरोप नहीं थे। अखबार ने पाठकों के समक्ष कुछ आधे-अधूरे तथ्य रखे और उन्हें दुर्भावना की अपनी फंतासी रचने को प्रोत्साहित किया। भारत सरकार ने इसे लपक लिया।
भारत में पत्रकारिता कभी भी कमजोर दिलों का काम नहीं रही। अंग्रेजी शासन के औपनिवेशी युग के कानून सरकार को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर शिकंजा कसने के पूरे अधिकार देते हैं। लेकिन मोदी सरकार तो जिन्हें अपना दुश्मन मानती है उन्हें खुलकर निशाना बनाने में जरा भी नहीं झिझकती। 2019 में गैरकानूनी गतिविधि (निवारक) अधिनियम (यूएपीए) में संशोधन के बाद भारत सरकार लोगों को बिना किसी प्रमाण के आतंकवादी करार दे सकती है।
दिल्ली पुलिस ने प्रबीर पुरकायस्थ और अमित चक्रवर्ती, क्रमश: न्यूजक्लिक के संस्थापक संपादक और मानव संसाधन प्रमुख, के खिलाफ अपने आरोपों में इस कानून का उल्लेख किया। पुरकायस्थ भारतीय वाम का एक बड़ा नाम हैं और वह विज्ञान का लोकतान्त्रिकीकरण करने से खास जुड़े हैं; उन्होंने 2010 में फ्री सॉफ्टवेयर मूवमेंट ऑफ इंडिया स्थापित किया था।
दूसरी तरफ रॉय पर “समूहों के बीच वैमनस्य भड़काने”, “राष्ट्रीय अखंडता को नुकसान पहुंचाने वाले आरोप लगाने” और “सार्वजनिक शरारत” के आरोप लगाए गए हैं। यह सब 2010 में एक सेमीनार में यह कहने पर कि भारत सरकार खुद नहीं मानती कि विवादित कश्मीर क्षेत्र “भारत का अभिन्न हिस्सा” है। रॉय और न्यूजक्लिक अकेले नहीं हैं। इसी साल फरवरी में दिल्ली और मुंबई में बीबीसी के दिल्ली और मुंबई कार्यालयों पर छापे मारे गए, फोन व कंप्युटर जब्त किए गए और पत्रकारों को सर्वेक्षण पूरा करने के लिए प्रोत्साहित किया गया जब मोदी और भारतीय जनता पार्टी की आलोचना करता बीबीसी वृत्तचित्र आया था।
उनसे पहले कई और भारतीय पत्रकारों को उनकी रिपोर्टिंग के कारण गिरफ्तार किया गया था या उन पर मामले दर्ज किए गए थे। मोदी की चिंताएं उनकी सरकार की चिंताएं बन जाती हैं: दक्षिण एशियाई प्रवासियों के बारे में वहम, चीन से कमतरता, घरेलू प्रतिरोध और अंतर्राष्ट्रीय मंच पर आलोचना की संभावना। न्यूजक्लिक ने कृषि कानूनों पर दुनिया के सबसे बड़े विरोध प्रदर्शन जो मोदी द्वारा झेली गई अब तक की सबसे बड़ी शर्मिंदगी थी, की रिपोर्टिंग का नेतृत्व किया था।
अन्य स्थितियों में टाइम्स यह दावा कर सकता था कि भारतीय पत्रकारों के खिलाफ उनकी रिपोर्टिंग का भारत सरकार हथियार के रूप में इस्तेमाल करेगी, ऐसी उसे आशंका नहीं थी। लेकिन टाइम्स को न्यूजक्लिक पर लिखने वाली कविता कृष्णन ने स्पष्ट रूप से बता दिया था कि उनकी रिपोर्टिंग के परिणाम भारतीय प्रेस के लिए क्या होंगे। (बिल्कुल, वह भी भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माले)- लेकिन पूरी तरह कानूनी संस्था- की सदस्य रही हैं।)
हमें अच्छी पत्रकारिता से कोई समस्या नहीं है। कथित लोकोपकार अपने आप में अलोकतांत्रिक है और प्रेस को इसकी पड़ताल करनी ही चाहिए। उदाहरण के लिए, गेट्स फाउंडेशन ने अलायंस फॉर ग्रीन रिवोल्यूशन इन अफ्रीका को 13 देशों में भुखमरी पर अंकुश के लिए फंड किया। आठ वर्षों बाद भुखमरी 30 फीसदी बढ़ गई और एजीआरए का नाम बदल दिया गया, अब इसका कोई मतलब नहीं है। यह विषय टाइम्स की कवरेज चाहता है लेकिन इसने अस्तित्वहीन चीनी पोषित साजिश पर फोकस करना चुना।
हम गेट्स फाउंडेशन का उदाहरण व्हाटअबाउटिज़्म के तौर पर नहीं दे रहे बल्कि इसलिए दे रहे हैं कि हमें कोई कारण नहीं दिखता कि टाइम्स ने इस तरह का बेदम समाचार छापा यह जानते हुए कि साथी पत्रकारों का उत्पीड़न हो सकता है। शायद उन्होंने ऐसा दक्षिणपंथ को यह दिखाने के लिए किया गया कि वह कोई भेदभाव नहीं करते और जैसे वह डोनाल्ड ट्रम्प और उनके सहयोगियों की आलोचना करते हैं उसी तरह वह वाम को भी रोस्ट करने की क्षमता रखते हैं। लेकिन यह गलत बराबरी दक्षिणपंथ से अमेरिकी लिबरल लोकतंत्र को खतरे को बेहद कम कर आँकती है।
हमें लगता है कि टाइम्स को लापरवाह माना जा सकता है। उन्होंने लिबरल प्रभुत्व की रूपरेखा का पालन करते हुए एक करोड़पति पर रिपोर्टिंग की लेकिन अरबपति को छोड़ दिया, भले उनकी रिपोर्टिंग सच बोलने वालों की जान जोखिम में डाल सकती हो। यदि भारत मोटी चमड़ी वाला दरियाई घोडा है, तो शायद टाइम्स एक मछली है, जिसने शार्क के दांत साफ करने का कार्य यह सोच कर किया कि शक्तिशाली की सेवा उसे खुद भोजन बनने से बचाएगी।
(राज पटेल और वाल्डेन बेलो का लेख नैशन डॉट कॉम से साभार)