अमेरिका में हिंदुत्ववादी संगठनों की सक्रियता से बढ़ रही है अल्पसंख्यकों की चिंता

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अमेरिका में उग्र हिंदुत्ववादी समूहों की सक्रियता को लेकर मानवाधिकारों और अल्पसंख्यकों के अधिकारों को लेकर सक्रिय समूहों में गहरी चिंता है। आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद से जुड़ी संस्थाएं अमेरिका में भारतीय मूल के हिंदुओं में खासतौर पर मुस्लिम विरोधी विचारों का प्रचार करने में जुटे हैं। भारत की साझा संस्कृति और सेक्युलर संविधान को लेकर वैसा ही दुष्प्रचार जारी है, जैसा कि भारत में किया जा रहा है। मोदी शासन के दौरान ऐसी संस्थाओं को काफ़ी संरक्षण मिल रहा है और वे अमेरिकी प्रशासन को भी प्रभावित करने का प्रयास कर रही हैं।

अमेरिका में इसका सबसे ज़्यादा असर शिकागो राज्य मे पड़ रहा है जहाँ रहने वाले करीब 2,38000 भारतीय अमेरिकियों के बीच इस मुद्दे पर लगातार बहस हो रही है। कई हिंदू मानवाधिकार संगठन भी इस मामले को लेकर चिंतित हैं। वे हिंदुओं से हिंदुत्व और हिंदू धर्म के बीच अंतर करने और इसके खतरे को समझने का आग्रह करते हैं। 

इंडियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल (आईएएमसी) के एक्ज़िक्यूटिव डायरेक्टर रशीद अहमद ने इस मसले पर चिंता जताते हुए शिकागो सन टाइम्स में एक लेख लिखा है जिसमें उन्होंने कहा है कि “हमारे खूबसूरत शहर शिकागो में हिंदू राष्ट्रवाद को लेकर एक लड़ाई चल रही है। 20वीं सदी में हिटलर और मुसोलिनी के भारतीय प्रशंसकों द्वारा विकसित हिंदू राष्ट्रवाद की परिकल्पना एक विभाजनकारी राजनीतिक परियोजना है जो भारत को मूल रूप से हिंदू राज्य में बदलना चाहती है जहां अन्य धर्मों के लोग, विशेष रूप से मुस्लिम और ईसाई, दूसरे दर्जे के नागरिक हैं।”

रशीद अहमद के मुताबिक हिंदुत्ववादी संगठन स्थानीय मतदाताओं की अज्ञानता का फायदा उठाकर एक विविधितापूर्ण शरह में कट्टर विचारधारा का प्रचार कर रहे हैं जिसे लेकर सतर्क होना ज़रूरी है। ऐसे ही समूहों की वजह से शिकागो की सिटी काउंसिल में लाया गया एक मानवाधिकार प्रस्ताव विफल हो चुका है। भारत का कथित मुख्यधारा मीडिया जिस तरह से इस्लामोफोबिया फैलाने और प्रधानमंत्री मोदी की छवि गढ़ने में जुटा रहता है, उसका असर शिकागो में भी पड़ रहा है। 

पिछले दिनों आईएएमसी की ओर से जारी एक रिपोर्ट में भी स्पष्ट किया गया था कि कैसे उग्र हिंदुत्ववादी संगठनों ने अंतरराष्ट्रीय समर्थन दिखाने के लिए स्थानीय संस्थानों का इस्तेमाल किया है। रिपोर्ट में विश्व हिंदू परिषद ऑफ अमेरिका के महासचिव अमिताभ मित्तल और स्थानीय हिंदुत्ववादी नेता भरत बराई के बीच हुई चर्चा का उल्लेख किया गया था कैसे उन्होंने सिटी काउंसिल में भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति पर चिंता जताने वाले प्रस्ताव को गिराने में भूमिका निभाई। इस प्रस्ताव के विरोध में प्रदर्शन भी आयोजित कराये गये और हज़ारों ईमेल भेजकर समर्थन जुटाया।

हिंदुत्ववादी संगठनों ने बीते दिनों शिकागो के उपनगरों में साध्वी ऋतंभरा को प्रवचन के लिए बुलाया जो अपनी मुस्लिम विरोधी बयानबाजी के लिए जानी जाती हैं। वे बाबरी मस्जिद तोड़ने वाली भीड़ को उकसाने के मामले में भी आरोपी थीं। इसके अलावा भारत के ऐसे उग्र नेता जो मुस्लिमों के सफाये का आह्वान करते हैं, वे जूम के माध्यम से अमेरिकी हिंदुत्ववादी संगठनों को संबोधित करते हैं। इसी साल हिंदू स्वयंसेवक संघ नाम के एक संगठन ने नेवी पियर में एक योगाथॉन की मेज़बानी के लिए भारतीय वाणिज्य दूतावास के साथ सहयोग किया।

यह संगठन आरएसएस से प्रेरित है और अपने आयोजनों में एम.एस. गोलवलकर का चित्र लगाता है जो आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक थे और मुस्लिम विरोधी नीतियों की खुली वकालत करते थे। यहां तक कि उन्होंने हिटलर के यहूदी विरोधी अभियान का भी समर्थन करते हुए लिखा था- “जर्मनी ने अपने देश से सेमेटिक नस्लों-यहूदियों का सफाया करके दुनिया को चौंका दिया। नस्ल का गौरव अपने उच्चतम स्तर पर यहां प्रकट हुआ है….हिंदुस्तान में हमारे लिए सीखने और लाभ उठाने के लिए एक अच्छा सबक है।”

रशीद अहमद उग्र हिंदुत्ववादी समूहों के खतरे को समझाने के लिए उसकी तुलना केकेके (कू क्लक्स क्लान) से करते हैं। यह संगठन श्वेत वर्चस्व के लिए अश्वेतों के ख़िलाफ़ उग्र हिंसक घृणा अभियानों के लिए जाना जाता है। वे कहते हैं कि शिकागो में उग्र हिंदुत्ववादी समूहों की सक्रियता एक ख़तरनाक संकेत है। इसे लेकर लोगों को जागरूक होना पड़ेगा। अंतर्धार्मिक समूहों के बीच सहकार और शांति बेहद ज़रूरी है जो ऐसे उग्र तत्व नष्ट करने में जुटे हुए हैं।  

साफ़ है कि भारत में बढ़ते उग्र सांप्रदायिक विभाजन का असर अब उन देशों में भी पड़ रहा है जहां भारतीय मूल के हिंदुओं की बड़ी आबादी रहती है। हिंदुत्ववादी संगठन उनसे आर्थिक और राजनीतिक सहयोग लेते हैं। सहयोग देने वाले भूल जाते हैं कि अमेरिका में उनका हित उस राजनीतिक विचारधारा के साथ सुरक्षित है जो अल्पसंख्यकों के हितों की पैरोकारी करती है। ऐसे में भारत में अल्पसंख्यक विरोधी राजनीति का समर्थन करना विडंबना ही कही जा सकती है।

(चेतन कुमार स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं।)

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