सीज़फायर के बाद पोस्टरों से सेना और सर्वदलीय बैठकों से साहब गायब!

कोई भी समझदार देश युद्ध नहीं चाहता। युद्ध में विनाश के सिवाय और क्या है? परंतु जब युद्ध थोप दिया जाए, तो उसका सामना करना ही पड़ता है।

हमें अपनी सेना पर गर्व है। निस्संदेह, ऑपरेशन सिंदूर सफल रहा। यह सेना की अत्यंत सधी और संतुलित कार्यवाही थी। सीज़फायर की कोई बुराई नहीं कर रहा; वह तो होना ही था। लेकिन उसमें मुख्य भूमिका हमारी होनी चाहिए थी। बुराई अमेरिका की चौधराहट की हो रही है। यह 1972 के शिमला समझौते का भी उल्लंघन है, जिसमें तीसरे देश के हस्तक्षेप को किसी भी हालत में अस्वीकार्य बताया गया है।

सोचिए, इस युद्ध में किस देश ने हमारा खुलकर समर्थन किया, जबकि पाकिस्तान के पक्ष में तुर्की और चीन थे। हमारे पड़ोसी देशों ने भी हमारा साथ नहीं दिया। यहाँ तक कि हमें कहीं से नैतिक समर्थन तक नहीं मिला, न ही उस देश से, जिसके सम्मान में हमने “नमस्ते ट्रंप” किया था।

क्या यही हमारी विदेश नीति का डंका है?

जिस अमेरिका की चौधराहट हमने स्वीकार की, उसने IMF से पाकिस्तान को मोटा कर्ज दिलवाया। मान लिया कि यह IMF का अपना निर्णय था, लेकिन क्या अमेरिका की असहमति के बावजूद पाकिस्तान को यह फंड मिलना संभव था?

जब आप कहते हैं कि कांग्रेस सरकार PoK नहीं ले पाई, तो आपके पास तो मौका था पिछली गलतियों को सुधारने का। आपने इसे क्यों गँवा दिया? अभी ले लेते। इसलिए राजनीतिक फायदे के लिए गंभीर विषयों पर उन्माद पैदा करने से बचना चाहिए, क्योंकि दाँव उल्टा भी पड़ सकता है।

युद्ध जितनी जल्दी समाप्त हो, उतना अच्छा है, लेकिन समाप्ति का निर्णय सम्मानजनक होना चाहिए। एक संप्रभु राष्ट्र की गरिमा के खिलाफ है कि दूसरा राष्ट्र चौधरी बनकर हमारी ओर से निर्णय ले। अगर अमेरिका ने बड़बोलापन दिखाया, तो उसे उसकी सीमाएँ क्यों नहीं बताई गईं?

पूर्व की सभी सरकारों ने अमेरिका को हमेशा ठेंगे पर रखा। आप अपनी पार्टी के पूर्व प्रधानमंत्री अटल जी से ही सीख लेते। उन्होंने अमेरिकी हस्तक्षेप को सिरे से नकार दिया था।

इसके अलावा, जब आप स्वयं अपनी पूर्ववर्ती सरकारों के समझौतों का मज़ाक उड़ाते रहे और उन्हें देशद्रोही तक कहते रहे, तो आज आपको शिकायत क्यों? दूसरा करे तो देशद्रोह, और आप करें तो मौके की नज़ाकत! यह दोहरा मापदंड क्यों?

इंदिरा गांधी ने तो जब तक बांग्लादेश को स्वतंत्र देश का दर्जा नहीं मिला, तब तक अमेरिका के सीज़फायर के आग्रह को अनसुना किया। उनके सातवें बेड़े की धमकी को नज़रअंदाज़ करते हुए उन्होंने कहा कि सातवाँ हो या सत्तरवाँ, भारत निर्णय अपने हिसाब से करेगा।

आज कुछ लोग कहते हैं कि बांग्लादेश बनाकर हमने अपने लिए संकट खड़ा कर लिया। जब आप राजनीतिक संकीर्णता के चलते अपनी अतीत की उपलब्धियों को लगातार असफलताओं के रूप में चित्रित करते हैं, तो आप लोकतंत्र को चोट पहुँचाते हैं।

बावजूद इसके, ऑपरेशन सिंदूर पर पूरा विपक्ष सरकार के साथ मज़बूती से खड़ा था, क्योंकि यह देश की प्रतिष्ठा का मामला था। रही बात बांग्लादेश की, तो सोचिए, यदि बांग्लादेश आज पाकिस्तान का हिस्सा होता, तो क्या हमें पूरब से चुनौती नहीं मिलती? आज हम उसे भी झेल रहे होते।

हमारी मुख्यधारा की मीडिया द्वारा सालों से चौबीसों घंटे हिंदू-मुस्लिम की विभाजनकारी नीतियों को बढ़ावा देने का वैश्विक पटल पर असर पड़ना स्वाभाविक है। हमने अंतरराष्ट्रीय जगत में अपने देश की छवि एक कट्टरवादी देश के रूप में पेश की है। परिणामस्वरूप, हम अकेले पड़ गए हैं।

यहाँ तक कि नेपाल, श्रीलंका और भूटान जैसे देश भी आज खुलकर भारत के साथ नहीं हैं। क्या हमें आत्मावलोकन नहीं करना चाहिए कि ये देश हमसे दूर क्यों हुए?

ग्लोबल विलेज की अवधारणा में आज कुछ भी छिपा नहीं है। आपके घरेलू लोकतांत्रिक व्यवहार से आपके वैश्विक लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्धता को आँका जाता है। इसलिए, घरेलू लाभ के लिए मीडिया का दुरुपयोग बाहर भी जाता है, और इसके दुष्प्रचार से भारत की प्रतिष्ठा प्रभावित होती है।

अब अमेरिकी हस्तक्षेप से ध्यान हटाने के लिए 1971 के युद्ध का हवाला दिया जा रहा है। कहा जा रहा है कि इंदिरा गांधी ने 93 हज़ार युद्धबंदियों को रिहा कर दिया और बदले में अपने 54 युद्धबंदियों को पाकिस्तानी जेलों में मरने के लिए छोड़ दिया। अरे भाई, पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए, और आप क्या चाहते हैं?

जितने युद्धबंदी थे, क्या उन्हें जान से मार देना चाहिए था, तभी आपकी आत्मा को शांति मिलती? युद्धबंदियों में शत्रु पक्ष के गैर-सैनिक, जैसे सैन्य चिकित्सक, और विशेष परिस्थितियों में आम नागरिक भी हो सकते हैं।

यदि ऐसा होता, तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की क्या छवि होती, कभी सोचा है?

युद्धबंदी सैनिकों का सम्मान करने वाला देश महान होता है। दरअसल, यह सब जानबूझकर किया जाता है ताकि किसी की छवि को कलंकित करके लाभ उठाया जा सके।

जहाँ तक युद्धबंदियों को छोड़ने का सवाल है, मालूम हो कि अंतरराष्ट्रीय संधि (जिनेवा संधि 1949) के तहत युद्धविराम के बाद युद्धबंदियों को छोड़ना अनिवार्य है, बशर्ते वे वापसी के लिए सहमत हों। यह प्रत्यर्पण दोनों पक्षों से था। पश्चिमी पाकिस्तान के कब्जे में जो युद्धबंदी थे, उन्हें भी छोड़ा गया था। यह प्रक्रिया अंतरराष्ट्रीय रेड क्रॉस समिति के निर्देशन में हुई, ताकि जिनेवा संधि के अनुपालन को सुनिश्चित किया जा सके।

जिन 54 लापता लोगों की बात की जाती है, उन्हें पाकिस्तान मानता ही नहीं कि वे उसके पास हैं। वह कहता है कि वे मारे गए होंगे। हालाँकि, बाद में कुछ युद्धबंदियों के वहाँ होने की जानकारी मिली थी। इसके लिए राजीव गांधी और अटल जी ने प्रयास किए। अटल जी के समय युद्धबंदियों के रिश्तेदारों का एक दल पाकिस्तानी जेलों को देखने गया था, पर वहाँ कोई नहीं मिला। हो सकता है, पाकिस्तान ने उन्हें वहाँ से हटा दिया हो। यदि वे हैं, तो सरकार को उन्हें सम्मान सहित वापस लाने के प्रयास करने चाहिए।

लेकिन मूल सवाल यह है कि मोदी जी ने इन युद्धबंदियों के लिए क्या किया? यह सब जानते हुए भी उन्होंने अपनी शपथ में वहाँ के प्रधानमंत्री को क्यों बुलाया? और यदि बुलाया, तो क्या उन्होंने इन बंदियों के लिए कोई बात की, कोई माँग रखी? आप तो बिन बुलाए पाकिस्तान पहुँचकर शरीफ की अम्मी का आशीर्वाद ले आए थे; तभी कुछ बात कर लेते।

आप अपने यहाँ कुंभ में मारे गए लोगों की सूची तक नहीं दे पाए, जबकि सारी व्यवस्था आपके निर्देशों के तहत थी।

खैर, चरित्र हनन की राजनीति अब ज्यादा लंबी नहीं चलेगी। आप संकट के समय चुनाव प्रचार करें और फिर भी नेक बने रहें, जबकि आपके साथ डटकर खड़ा होने वाला विपक्ष फिर भी बुरा और देशद्रोही! क्या यह सवाल नहीं उठता कि प्रधानमंत्री जी सर्वदलीय बैठकों से क्यों दूर रहे?

पोस्टरों से सेना गायब और सर्वदलीय बैठकों से साहब गायब! आखिर विपक्ष का सामना करने में क्या दिक्कत है? जबकि पूर्व की सरकारों का उदाहरण हमारे सामने है। और फिर आपका भी तो यही मानना है कि “सबका सहयोग, सबका साथ”। फिर यह दूरी क्यों?

(संजीव शुक्ल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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