बक्सर जेल में क्रूरता : जेलर कहता है- ‘समझो तुमको पीटा नहीं जा रहा, तुम श्रीदेवी के साथ सेक्स कर रहे हो’

सुना है कि यह सप्ताह दुनिया भर में यातना विरोध सप्ताह के रूप में मनाया जा रहा है। इस सप्ताह में यातना को समाप्त करने पर चर्चा होगी, जो ठीक है, लेकिन जेलों में होने वाली यातनाओं को खत्म करने के लिए भी क्या कोई कदम उठाया जाएगा? यह लेख जेल यातनाओं के बारे में है।

भारत के संविधान और कानून के अनुसार, नागरिकों, जिनमें बंदी/कैदी भी शामिल हैं, को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता। कानून किसी बंदी/कैदी के साथ दुर्व्यवहार, अमानवीय व्यवहार या क्रूरता बरतने की अनुमति नहीं देता। जेल में बंद कैदियों को शुद्ध पानी, पौष्टिक भोजन और चिकित्सा सुविधाएँ प्राप्त करने का मौलिक अधिकार है। लेकिन अपने अधिकारों की शांतिपूर्ण माँग करने पर बंदियों को जेल अधिकारियों और कर्मचारियों द्वारा क्रूर प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता है।

वैसे तो पुलिस और जेल अधिकारियों की क्रूरता की कहानियाँ कोई नई नहीं हैं, लेकिन आज के समय में देश के पुलिस और जेल अधिकारी क्रूरता के नए कीर्तिमान स्थापित करने की होड़ में हैं। ऐसी ही एक क्रूरता की दास्तान बिहार के बक्सर जेल से सामने आई है, जो दिल-दिमाग को झकझोर देने वाली है।

बिहार के बक्सर जेल के अंडा सेल में बंद एक विचाराधीन बंदी, विजय कुमार आर्य, ने जेल यातनाओं पर एक लंबा लेख लिखा है। वे लिखते हैं:

“मैं विजय कुमार आर्य, पटना एनआईए स्पेशल केस नंबर 5/22 में आरोपित अभियुक्त हूँ। मेरी गिरफ्तारी 11 अप्रैल 2022 को रोहतास जिले से हुई थी। 7 जून 2022 को मुझे सासाराम जेल से एनआईए कोर्ट, पटना में पेश किया गया, और उसी दिन मुझे आदर्श केंद्रीय कारा, बेऊर, पटना में स्थानांतरित कर दिया गया। तब से मैं वहीं बंद था।

जून 2024 के अंतिम सप्ताह में बेऊर जेल में नए अधीक्षक श्री विधु कुमार ने पदभार ग्रहण किया। आते ही उन्होंने बंदियों के भोजन राशन में भारी कटौती शुरू कर दी। जैसे, जेल मैनुअल के अनुसार प्रति बंदी ढाई सौ ग्राम चावल-आटा निर्धारित है, लेकिन उन्होंने 100 ग्राम के हिसाब से थालियों में देना शुरू कर दिया। सप्ताह में प्रतिदिन बदल-बदलकर मिलने वाला नाश्ता बंद कर दिया गया। सप्ताह में मिलने वाला विशेष भोजन (चिकन, पनीर, अंडा) भी बंद कर दिया गया। जेल में मौजूद कम से कम 110 वार्डों में से लगभग 80 से 90 वार्डों को उन्होंने दो-दो लाख रुपये प्रति वार्ड लेकर दबंग बंदियों के हाथों बेच दिया। सरकार द्वारा संचालित जेल कैंटीन में हर वस्तु की कीमत छपी खुदरा मूल्य से दोगुनी पर बेची जाने लगी। सुधा दुग्ध उत्पादों के सभी उत्पादों को मुद्रित मूल्य से 5 रुपये अधिक पर बेचा जाने लगा। जेल गुमटी को भी बेच दिया गया, जहाँ मनपसंद वार्ड में जाने के लिए पहले 500 रुपये लिए जाते थे, अब 1000 रुपये लिए जाने लगे। जेल के एकमात्र डीलक्स शौचालय को भी बेच दिया गया, जहाँ स्नान और शौच के लिए बंदियों से मनमानी राशि वसूली जाने लगी-एक बार के लिए 10 रुपये या मासिक 300 रुपये।

वार्ड खरीदने वाले लोग बंदियों से एक सीट (बेड) के लिए 1000 रुपये प्रतिमाह और भोजन के लिए 3000 से 5000 रुपये प्रतिमाह वसूलने लगे। जेल अधीक्षक विधु कुमार ने पैसे वाले बंदियों को सेल (गोलघर एवं कालापानी) में बंद कर उनसे 5000 रुपये से लेकर 5 लाख रुपये तक वसूलना शुरू किया। चाहे कैदी हो या विचाराधीन बंदी, सभी को गाली-गलौज, मारपीट, और नाना प्रकार से अपमानित कर प्रताड़ित करने की शुरुआत अधीक्षक ने की। इन समस्याओं से बंदियों में त्राहिमाम मच गया।

उपरोक्त समस्याओं को लेकर हमने जेल अधीक्षक से मिलकर समाधान हेतु वार्ता करने का प्रयास किया, लेकिन उन्होंने हमसे मिलने से इनकार कर दिया। तब बंदियों ने जेल में जारी अत्याचार के खिलाफ आंदोलन करने का निर्णय लिया। 29 अगस्त 2024 को हमने अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल की घोषणा की और अपनी माँग पत्र अधीक्षक के समक्ष भेजा। 30 अगस्त 2024 की सुबह से 14 बंदी-

  1. प्रमोद मिश्रा, वार्ड 3/20
  2. राजेश कुमार सिंह, वार्ड 3/20
  3. रोहित राय, वार्ड 4/1
  4. धीरज कुमार पासवान, वार्ड 4/1
  5. सूबेदार यादव, वार्ड 4/1
  6. अनिल यादव, वार्ड 4/4
  7. सोनू कुमार, वार्ड 4/4
  8. बिजली महतो, वार्ड 4/4
  9. अजय सिंह भोक्ता, वार्ड 4/4
  10. करीमन नोनिया, वार्ड 4/4
  11. धर्मवीर उर्फ चूहा यादव, वार्ड 4/4
  12. राजेश कुमार, वार्ड 4/5
  13. कांता पासवान, वार्ड 4/5
  14. भोला सिंह, वार्ड 4/15

ने आमरण अनशन शुरू किया। अनशन के समर्थन में प्रतिदिन सैकड़ों बंदी क्रमवार मेरे नेतृत्व में भूख हड़ताल पर जाने की घोषणा कर रहे थे। फिर भी, जेल अधीक्षक ने हमसे बात करने से इनकार कर दिया और दमन का सहारा लिया। जिस दिन, 29 अगस्त को, हमने भूख हड़ताल की घोषणा की, उसी रात 11 बजे मुझे बक्सर जेल और प्रमोद मिश्रा को विशेष केंद्रीय कारा, भागलपुर भेज दिया गया।”

यातनागृह की कथा

“30 अगस्त 2024 को सुबह करीब 7 बजे मैं केंद्रीय कारा, बक्सर में प्रवेश किया। वहाँ मुझे जेल के प्रवेश शाखा कार्यालय में सहायक जेलर शिवसागर के समक्ष पेश किया गया। मुझे देखते ही उन्होंने माँ-बहन की गंदी गालियाँ देना शुरू कर दिया। मैं हतप्रभ रह गया कि आखिर जेलर ऐसा बुरा व्यवहार क्यों कर रहे हैं। उन्होंने जेल सिपाही से कहा कि बाहर से दो बीएमपी सिपाहियों को डंडा लेकर बुलाओ। जब वे अंदर आए, तो उन्होंने मुझसे पूछा कि तुमने बेऊर जेल में क्या किया है? मैंने कहा कि मैंने वहाँ कोई गलत काम नहीं किया। हाँ, हमने जेल मैनुअल के अनुसार भोजन न मिलने के कारण अनशन की घोषणा की थी। इस पर वे आग-बबूला हो गए और बीएमपी सिपाही से बोले, ‘इसकी अच्छी तरह से सिकाई करो।’

फिर जेलर के कार्यालय के एक कोने में ले जाकर एक सिपाही ने मुझे दोनों हाथों से पकड़कर आगे झुका दिया, और दूसरा सिपाही मेरे चूतड़ों और जाँघों पर सैकड़ों लाठियाँ बरसाने लगा। जब वह सिपाही थक गया, तब मुझे फिर जेलर के सामने खड़ा किया गया। जेलर ने फिर गंदी गालियाँ दीं, मानो मेरी माँ-बहन बिहार सरकार की गैर-मजरुआ जमीन हो। उन्होंने सिपाहियों को गाली देते हुए कहा, ‘तुम लोग इसको कैसे पीटे हो कि इसके आँखों से आँसू भी नहीं निकले? इसे फिर से पीटो।’ फिर से मुझे झुकाकर 100 से अधिक लाठियाँ मारी गईं। मैं चिल्लाता रहा, लेकिन न मारने वालों को दया आई, न पिटवाने वालों को।

जब सिपाही हाँफने लगा, तब मुझे फिर जेलर के सामने ले जाया गया। जेलर ने लाल आँखों से देखकर सिपाहियों को गाली दी, ‘तुम लोग कैसे पीटे हो कि यह अब भी इतना टाइट खड़ा है? इसे इतना पीटो कि सेल तक लंगड़ाते हुए जाए।’ फिर मुझे उसी कोने में ले जाया गया। इस बार पकड़ने वाला सिपाही लाठी लेकर पीटने लगा, और दूसरा सिपाही मुझे पेट के बल लिटाकर मेरी पीठ पर बैठ गया। मेरे पैरों को ऊपर उठाकर पकड़ा गया, और तलवों पर अनगिनत लाठियाँ मारी गईं। जब वह थक गया, तब मुझे फिर उस जल्लाद जेलर के सामने खड़ा किया गया, जबकि मैं ठीक से खड़ा भी नहीं हो पा रहा था।

शिवसागर जेलर ने गालियाँ देते हुए कहा, ‘कान पकड़कर 20 बार उठक-बैठक करो और कहो कि अब किसी जेल में अधिकारियों के खिलाफ आंदोलन/अनशन नहीं करूँगा।’ जब मैंने इनकार किया, तो उन्होंने सिपाहियों को आदेश दिया कि दोनों तरफ से ताबड़तोड़ लाठियाँ बरसाओ, जब तक यह बेहोश होकर न गिर पड़े। मजबूरन मुझे उठक-बैठक करनी पड़ी, और तब तक करता रहा, जब तक मैं गिर नहीं पड़ा। इसके बाद जेलर ने मुझे अंडा सेल में भेजने का निर्देश दिया।

कार्यालय से निकलकर गेट पर पहुँचा, तो दोबारा तलाशी के बाद अपने बिखरे सामान को समेटने लगा। तभी एक गेट वार्डर ने पीछे से अचानक 15-20 लाठियाँ अंधाधुंध बरसा दीं। वह शायद और मारता, लेकिन उसके साथी सिपाही ने उसकी लाठी पकड़ ली और बोला, ‘छोड़ दो, बूढ़ा आदमी है।’ मेरी उम्र 64 वर्ष है। मैं लंगड़ाते हुए गुमटी और सेल तक पहुँचा।

अंडा सेल में जाने के बाद शाम को मैं डॉक्टर के पास जाना चाहता था और दर्द की दवा लेना चाहता था, लेकिन मुझे अस्पताल नहीं जाने दिया गया। गर्म पानी माँगा, तो वह भी नहीं दिया गया। उल्टे सिपाही ने गाली दी। मैं 24 घंटे तक डर से छटपटाता रहा। रात में न पीठ के बल चित सो सका, न चुपचाप बैठ सका। तीन दिनों तक बैठकर शौच करना कष्टकारी था। दूसरे दिन शाम को जेल अस्पताल में हालिया करवाने के लिए ले जाया गया, लेकिन दवा नहीं मिली। सेल में मुझे एक घड़ा, एक थाली और एक कंबल दिया गया। मैंने एक कटोरा और गिलास माँगा, लेकिन वह नहीं मिला। किसी भी बंदी को वहाँ कटोरा-गिलास नहीं दिया जाता। अगर आप दूसरी जेल से लेकर आए हों, तो उसे गेट या गुमटी पर छीन लिया जाता।

मजबूरन मुझे एक प्लास्टिक की बोतल काटकर उससे दो गिलास बनाना पड़ा। बोतल के नीचे वाले हिस्से में दाल, दही, दूध, खीर, सेवई रखने और चाय पीने के लिए, तथा ऊपरी हिस्से को ढक्कन से बंद कर पानी पीने के लिए इस्तेमाल करना पड़ा। लगभग तीन माह तक इस प्लास्टिक के गिलास से काम चलता रहा, लेकिन अब वह जगह-जगह से फटने लगा। तब एक बार जब जेलर राघवेंद्र बाबू शाम को सेल में आए, तो मैंने फटा गिलास दिखाते हुए कहा, ’21वीं सदी की जेल में हूँ, और तीन माह से इस बोतल के गिलास से काम चला रहा हूँ। अब यह भी जवाब दे रहा है। कृपया या तो एक नई बोतल दे दें, ताकि दूसरा गिलास बना लूँ, या कटोरा-गिलास दे दें।’ शायद शर्मिंदगी के कारण उन्होंने अगले दिन एक कटोरा और गिलास भिजवाया। लेकिन अधिकांश बंदी अभी भी बिना कटोरा-गिलास के प्लास्टिक की बोतल से गिलास बनाकर काम चला रहे हैं।”

ज्ञात हो कि बिहार सरकार बंदियों पर खर्च करने वाले राज्यों में आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और तिहाड़ जेल के बाद चौथे स्थान पर है। फिर भी यह स्थिति है। दरअसल, इसके पीछे एक तो भ्रष्टाचार का मामला है, और दूसरा, जेल अधिकारियों का प्रशासनिक दफा के बंदियों को अधिकतम उत्पीड़न करने का मनोविज्ञान है।”

बिहार के बक्सर जेल की इस कहानी को पढ़कर कोई भी संवेदनशील व्यक्ति क्रूरता पर गुस्से से लाल हुए बिना नहीं रह सकता। गौरतलब है कि बक्सर जेल की अधीक्षक एक महिला, ज्ञानिता गौरव, हैं, जिनके आदेश पर सहायक जेलर शिवसागर और जेल पुलिस बंदियों पर यह क्रूरता करती है।

शकीला अब्दुल गफ्फार बनाम रघुनाथ ढोकले, AIR 2003 SC 4567 में सुप्रीम कोर्ट ने हिरासत के दौरान पुलिस की प्रताड़ना को संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन माना है। लेकिन पुलिस और जेल अधिकारी कानूनों, मानवाधिकारों और सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों को ताक पर रखकर हिरासत/न्यायिक हिरासत में बंदियों पर बिना किसी डर-भय के क्रूरता कर रहे हैं।

विजय आर्य अपने लंबे लेख में बक्सर जेल की क्रूरता की कहानी को आगे बढ़ाते हुए, “श्रीदेवी स्टाइल” शीर्षक से लिखते हैं:

“15 सितंबर 2024 को बक्सर जेल के बंदियों ने अंडा सेल-ए में घटिया भोजन के विरोध में उसका बहिष्कार किया। मैं भी इसमें शामिल था। बंदियों ने सेल के प्रभारी जेलर से मिलने की माँग की। दोपहर में गिनती के बाद सहायक जेलर शिवसागर सेल में आए, तो बंदियों ने भोजन की मात्रा और गुणवत्ता को लेकर शिकायत की। जेलर ने खाने की गुणवत्ता ठीक करने का आश्वासन दिया। अगले दिन से खाना ठीक भी हुआ, लेकिन तीन-चार दिन बाद ही खाना बहिष्कार करने वाले बंदियों के नेतृत्वकर्ता बबलू कुशवाहा, अठवास और छोटेलाल को गुमटी पर बुलाकर बर्बर तरीके से पीटा गया। उन्हें कहा गया, ‘तुम लोग नेता बनते हो, अनशन करते हो? ठीक कर देंगे।’

बक्सर जेल में बंदियों को पीटने का जो तरीका है, उसे ‘श्रीदेवी स्टाइल’ कहा जाता है। इस शैली में, जिसे पीटना होता है, उसे गुमटी पर ले जाकर एक पाये से सटाकर खड़ा कर दिया जाता है। उसके दोनों हाथों को दो सिपाही मजबूती से पकड़ लेते हैं, ताकि वह हिल-डुल न सके। फिर दो सिपाही, जो जेल पुलिस या बीएमपी के हो सकते हैं, दोनों तरफ से ताबड़तोड़ लाठियाँ बरसाते हैं। इस तरह चार-पाँच राउंड में पीटा जाता है। एक राउंड में लगभग 100 लाठियाँ मारी जाती हैं। पीटते समय जेलर, सिपाही, जमादार और कैदी अश्लील भाषा और भंगिमाओं का उपयोग करते हैं। ऐसा लगता है मानो गाय, भैंस या बकरी को पाल खिलवाया जा रहा हो।

सहायक जेलर शिवसागर पीटे जा रहे बंदी से कहता है, ‘बेटा, तुझे पीटा नहीं जा रहा, समझो कि तुम श्रीदेवी के साथ किस कर रहे हो।’ जेलर राघवेंद्र कहता है, ‘बेटा, समझो तुमको पीटा नहीं जा रहा, तुम श्रीदेवी के साथ लव कर रहे हो।’ कोई कैदी सिपाही टिप्पणी करता है, ‘बेटा, तुम पीटे नहीं जा रहे, समझो कि तुम श्रीदेवी के साथ सेक्स कर रहे हो।’ इन बातों को सुनकर वहाँ मौजूद लोग ठहाके लगाते हैं। पीटे जा रहे बंदी रोता है, गिड़गिड़ाता है, क्षमा माँगता है, लेकिन उसकी आवाज़ वहाँ निरर्थक साबित होती है। पीड़ित को चार-पाँच राउंड मारने के बाद सेल में बंद कर तड़पने के लिए छोड़ दिया जाता है। बबलू, अठवास और छोटेलाल जैसे दर्जनों बंदियों के साथ ऐसा ही हुआ, और यह आज भी जारी है।

हैरानी की बात है कि केंद्रीय कारा, बक्सर की अधीक्षक एक महिला (ज्ञानिता गौरव) हैं, लेकिन उत्पीड़न के मामले में वे और भी बेकाबू हैं। उपरोक्त सभी उत्पीड़न में उनकी सहभागिता और सहमति है। वे स्वयं बंदियों को इस तरह पिटवाती हैं, फर्क सिर्फ इतना है कि वे पिटाई के आदेश देकर गुमटी से चली जाती हैं। शायद उन्हें ‘लव’ और ‘सेक्स’ की बातें सुनने में शर्मिंदगी होती होगी, या पीड़क पुरुष अधिकारी उनके सामने ऐसी बातें कहने में हिचकते होंगे। इसलिए वे वहाँ मौजूद नहीं रहतीं।

बक्सर जेल के अधीक्षक हों या जेलर, सभी के दिमाग अमानवीय विकृति और विद्रूपताओं से भरे हैं। देश की एक सम्मानित और दिवंगत अभिनेत्री के नाम पर जेल में जो वीभत्स उत्पीड़न शैली चल रही है, उसकी सिद्धांतकार उक्त अधीक्षक महोदया ही हैं। भले ही वे महिला हों, लेकिन उनकी सोच, दृष्टिकोण और व्यवहार मर्दवादी है। गरीब-मजदूर लोगों के प्रति दमन और उत्पीड़न का सत्तात्मक विचार उनके अंदर कूट-कूटकर भरा है।

बक्सर जेल के पुराने बंदी बताते हैं कि जब राजीव कुमार अधीक्षक और त्रिभुवन सिंह उपाधीक्षक थे, तब प्रशासनिक दफा में आए बंदियों के साथ ऐसी पिटाई नहीं होती थी। लेकिन जब से ज्ञानिता गौरव अधीक्षक और राघवेंद्र सिंह जेलर बने, तब से यह बार-बार होने लगा।

जेल अधिकारियों के उत्पीड़न और अत्याचार (‘श्रीदेवी स्टाइल’ की पिटाई) से आहत होकर एक दिन अठवास मियाँ ने अंडा सेल-ए में अपनी हाथ की नस काटकर आत्महत्या का प्रयास किया। संयोगवश, उसी दिन टी. सेल में गोलू मिश्रा (सिवान) ने भी ऐसा ही किया। बंदियों की सजगता के कारण वे बच गए। घटना की जानकारी होने पर बंदियों ने उन्हें तुरंत जेल अस्पताल में भर्ती करवाया। इलाज के बाद जब वे ठीक हुए, तो उन्हें फिर गुमटी पर ले जाकर ‘श्रीदेवी स्टाइल’ में चार-पाँच राउंड पीटा गया। गोलू मिश्रा को अंडा सेल-बी और अठवास मियाँ को टी. सेल में तड़पने के लिए डाल दिया गया। इन लोगों को पीटने का आदेश ज्ञानिता मैडम का ही था।”

विजय आर्य अपने लेख में “प्रशासनिक दफा का सच” शीर्षक के तहत लिखते हैं:

“प्रशासनिक बंदी का मतलब गुलाम है। जैसे रोम में गुलामों के साथ व्यवहार होता था, वैसा ही बिहार की जेलों में प्रशासनिक दफा के बंदियों के साथ होता है। जब प्रशासनिक बंदियों को पीटा जाता है, तो उन्हें दो-तीन सप्ताह तक परिवार से मुलाकात नहीं करने दी जाती। पत्र लिखने, फोन करने, या केस में उपस्थापन की अनुमति नहीं दी जाती। अगर वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से उपस्थापन होता भी है, तो जेल की शिकायत या मारपीट की बात जज से न कहने की धमकी दी जाती है। डराया जाता है कि जज से शिकायत की, तो और पिटाई होगी। बंदी शिकायत न करें, इसके लिए वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग की आवाज़ बंद कर दी जाती है। महीनों तक सरकारी बूथ में नाम नहीं जोड़ा जाता। मेरे मामले में तीन माह बाद नाम जोड़ा गया।

जब मैंने घर पर पत्र लिखने के लिए कागज-कलम माँगी, तो शिवसागर जेलर ने कहा कि प्रशासनिक बंदी को पत्र लिखने का अधिकार है या नहीं, और पत्र बंदी आवेदन पत्र पर लिखा जाएगा या सादे कागज पर, यह अधीक्षक के आदेश पर ही तय होगा। मुझे अंत तक यह नहीं मिला। जब मैंने कोर्ट में आवेदन के लिए बंदी आवेदन पत्र और कलम माँगी, तो जेलर राघवेंद्र ने कहा कि अधीक्षक के आदेश के बाद ही मिलेगा। मैंने अधीक्षक से मिलने के लिए दो आवेदन दिए और दो बार जेलर प्रियदर्शी से भी कहा, लेकिन अधीक्षक महोदया से मुलाकात नहीं हुई। बंदियों के प्रति उनका रवैया दमनकारी और उत्पीड़नकारी है।

जो जेल अधीक्षक और जेलर बंदी को प्रशासनिक दफा में भेजते हैं, वे फोन पर उस जेल के अधिकारियों को सूचित कर देते हैं कि बंदी को किस कारण भेजा गया है और उसे कितनी और कैसी यातना देनी है। उसी के अनुसार यातना दी जाती है। बेऊर जेल अधीक्षक विधु कुमार ने बक्सर जेल अधिकारियों को जैसा कहा, उसी तरह मेरी और भाकपा (माले) नेता मृत्युंजय कुमार की पिटाई हुई। विशेष केंद्रीय कारा, भागलपुर में प्रमोद मिश्रा (75 वर्ष) और अरमान मलिक की भी पिटाई हुई। मंडल कारा, अररिया में नवल भुइयाँ और मिथिलेश वर्मा को तब तक पीटा गया, जब तक वे बेहोश नहीं हो गए। राकेश कुमार क्रांति को मुजफ्फरपुर और विनय यादव उर्फ जिजेबी यादव को मंडल कारा, भभुआ में बुरी तरह पीटा गया।

बिहार के बंदियों के बीच विशेष केंद्रीय कारा (तृतीय खंड), भागलपुर को ‘ग्वांतानामो’, केंद्रीय कारा, बक्सर को ‘अबू गरेब’, और मंडल कारा, अररिया को सीरिया की ‘सेदनाया’ जेल के रूप में कुख्यात माना जाता है। सवाल यह है कि अगर जेल मैनुअल के अनुसार खाद्य सामग्री नहीं दी जाती, और सारी बातचीत और प्रयासों के बाद भी सुधार नहीं होता, तो बंदियों द्वारा शांतिपूर्ण भूख हड़ताल या आमरण अनशन करना कितना बड़ा अपराध है? इसके लिए प्रशासनिक दफा लगाकर जेल स्थानांतरण करना कितना विधिसम्मत है?

अनशन के अपराध में ही आदर्श केंद्रीय कारा, बेऊर, पटना से लगभग दो दर्जन बंदियों को बिहार के उपरोक्त जेलों में स्थानांतरित किया गया। प्रशासनिक दफा में भेजे गए बंदियों के लिए नियम है कि जिस जिले की जेल में उन्हें भेजा गया, उसी जिले की पुलिस उन्हें लाएगी। लेकिन आमतौर पर भेजने वाली जेल अवधि पूरी होने के बाद भी बंदी को वापस नहीं माँगती। इससे बंदी वहाँ सालों तक अटका रहता है। इसमें रिश्वत का खेल भी चलता है। जो बंदी अपने जिले की जेल में वापस आना चाहते हैं, उन्हें संबंधित जेलर से संपर्क करना पड़ता है। वापसी और केस निपटारे के लिए मुंहमाँगी रिश्वत देनी पड़ती है। तब जेल अधीक्षक, जेलर और पुलिस लाइन के मेजर को गार्ड उपलब्ध कराने के लिए पत्र लिखा जाता है। इसमें 25,000 से 5 लाख रुपये तक का लेन-देन होता है।

उदाहरण के लिए, मई 2024 में बेऊर जेल से एक बंदी बक्सर जेल में आया। छह माह बाद उसकी प्रशासनिक दफा की अवधि नहीं बढ़ाई गई, न बेऊर जेल ने उसे वापस बुलाया, न बक्सर जेल ने उसे भेजा। आठ माह बाद भी कोर्ट ने संज्ञान नहीं लिया, न उसका वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग या फिजिकल उपस्थापन हुआ। तब उसने बेऊर जेल वापस आने के लिए प्रयास शुरू किया। बक्सर जेल के एक सहायक जेलर से 30,000 रुपये में सौदा तय हुआ। बक्सर और बेऊर जेलरों के साथ-साथ पटना पुलिस लाइन के मेजर के बीच यह राशि बँटी।

प्रशासनिक बंदी के वकील अगर कोर्ट में फिजिकल उपस्थापन की माँग करते हैं, तो आमतौर पर कोर्ट के आदेश पर ही उपस्थापन होता है। ज्यादातर मामलों में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए उपस्थापन करवाया जाता है। अगर कोर्ट सशरीर उपस्थापन का आदेश देता है, तब भी उसी जिले की पुलिस जाती है, जिस जिले का केस है। आजकल कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन करने का चलन बढ़ रहा है। बिहार में कई अधीक्षक और जेलर कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन करते पाए गए हैं।

मेरे मामले में भी ऐसा हुआ। 29 अगस्त 2024 को मुझे बक्सर जेल भेजा गया, लेकिन बेऊर जेल की अधीक्षक ने कोर्ट से कोई आदेश नहीं लिया। जबकि प्रशासनिक दफा में किसी बंदी का जेल स्थानांतरण करने से पहले उस कोर्ट से अनुमति लेना अनिवार्य है, जिसके समक्ष केस चल रहा हो। मैं एनआईए बंदी हूँ, और मेरा केस स्पेशल कोर्ट में चल रहा है। फिर 29 नवंबर 2024 को एनआईए कोर्ट ने मुझे बेऊर जेल में रखने का आदेश दिया, लेकिन जब पुलिस मुझे बेऊर जेल लेकर आई, तो अधीक्षक विधु कुमार ने मुझे रखने से इनकार कर दिया। कोर्ट के पेशकार ने फोन पर उनसे बात की, फिर भी उन्होंने मुझे नहीं रखा। तीन-चार घंटे तक जेल गेट पर यह खेल चलता रहा। आखिरकार, रात 12-1 बजे मुझे वापस बक्सर जेल ले जाया गया। वहाँ जेलर शिवसागर ने कोर्ट के आदेश का उल्लंघन कर मुझे जेल में रख लिया।

9 दिसंबर 2024 को स्पेशल एनआईए कोर्ट ने फिर मुझे बेऊर जेल में रखने का आदेश दिया। उस दिन मुझे रख लिया गया, लेकिन पाँच दिन बाद फिर बक्सर जेल चालान कर दिया गया। ऐसा लगा मानो जेल अधीक्षक जज से ऊपर हो। कानून के अनुसार नहीं, बल्कि आदेश के अनुसार कानून हाँफ रहा था।

प्रशासनिक दफा का एक उद्देश्य विचाराधीन बंदी के केस निपटारे में विलंब करना, उन्हें परिवार से काटना, अनावश्यक आर्थिक बोझ डालना, मानसिक-शारीरिक उत्पीड़न करना, और एक तरह से सबक सिखाना या बदला लेना है। इस दफा की आड़ में जेल अधिकारी मनमानी और लूटपाट कर रहे हैं। गरीब, वंचित, दलित और राजनीतिक बंदी इससे सबसे ज्यादा त्रस्त हैं।

प्रशासनिक दफा के नाम पर बंदियों के साथ जो मारपीट और उत्पीड़न हो रहा है, वह एक-दो जेलर या अधीक्षकों का मामला नहीं, बल्कि पूरे कारा विभाग का एक आपराधिक सिंडिकेट की तरह काम करने का मसला है। इसमें जेल आईजी से लेकर सिपाही, कर्मचारी, जेल अधीक्षक और दबंग कैदी तक शामिल हैं। दमन, उत्पीड़न और लूट के इस सिंडिकेट में जिला प्रशासन भी जुड़ा है।

जिस दिन बबलू कुशवाहा, अठवास मियाँ और छोटेलाल की पिटाई हुई, उसके अगले दिन बक्सर के डीएम और एसपी जेल में जाँच के लिए आए। बबलू कुशवाहा ने उन्हें सारी तकलीफें बताईं और बदन से कपड़े उतारकर दिखाया कि कैसे बेरहमी से उन्हें पीटा गया। दोनों अफसर मौन रहे, कोई संवेदना तक नहीं जताई। इसके बाद जेलर शिवसागर अंडा सेल में आए और छाती ठोककर बोले, ‘अरे, डीएम क्या? हम पीटेंगे, तो जज भी हमें कुछ नहीं करेगा।’ बंदी उनकी बात को नियति मानकर चलते हैं। यही कारण है कि जनवरी 2025 के अंतिम सप्ताह में बक्सर के मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी अंडा सेल में आए, तो डर के मारे किसी ने शिकायत नहीं की।”

विजय आर्य के लेख में बिहार की जेलों में क्रूरता और भ्रष्टाचार की कई कहानियाँ अलग-अलग शीर्षक के तहत दर्ज हैं, जो चिंताजनक हैं। लेख की सीमा को ध्यान में रखते हुए यहाँ दमन की इस कहानी की बानगी भर प्रस्तुत की गई है।

बिहार के बक्सर जेल के अंडा सेल-ए में बंद विजय आर्य के लेख में उत्पीड़न की ये कुछ घटनाएँ क्रूरता की सारी हदें पार करती हैं। ये मानवाधिकारों की धज्जियाँ उड़ाती हैं, सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइंस को ठेंगा दिखाती हैं, और संविधान में नागरिकों को दिए गए मूलभूत अधिकारों पर क्रूरता से डंडा चलाती हैं। क्या बिहार सरकार को बक्सर जेल की अधीक्षक और जेलरों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करनी चाहिए? मानवाधिकार और जनाधिकार संगठनों को जेलों में हो रही इस क्रूरता के खिलाफ न्यायालयों में न्याय की गुहार लगाने के साथ-साथ आवाज़ उठानी चाहिए, ताकि मानवाधिकारों, कानून और संविधान में दिए गए नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा हो सके।

(विश्वविजय इलाहाबाद में एडवोकेट हैं और “वकालत न्याय की” अखबार के संपादक हैं।)

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