प्रो.चौथीराम यादवः मौन हो गया खांटी बनारसी अंदाज वाली साहसी आलोचना का सबसे भरोसेमंद स्वर

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बनारस। बात-बात पर छोटी-बड़ी लड़ाइयों में, असहमित के पक्ष में, किसी भी सत्ता के खिलाफ, नफा-नुकसान की परवाह किए बगैर सड़क पर उतर जाने वाले प्रोफेसर चौथीराम यादव अब नहीं रहे। प्रो. यादव खांटी बनारसी अंदाज वाली साहसी आलोचना के सबसे भरोसेमंद स्वर माने जाते थे। 12 मई 2024 को उनका निधन हो गया। वो 83 साल के थे।

प्रो.चौथीराम यादव को सांस की समस्या के चलते अस्पताल में भर्ती कराया गया था। कार्डियक अरेस्ट से उनकी मौत हो गई। वो प्रख्यात हिंदी विद्वान आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के आखिरी शिष्य थे। बनारस के हरिश्चंद्र घाट पर सोमवार को उनका अंतिम संस्कार किया गया। उनके ज्येष्ठ अशोक यादव ने मुखाग्नि दी। मौत से कुछ घंटे पहले ही उन्होंने फेसबुक पर ज्योतिबा फूले के आंदोलन पर अपनी आखिरी पोस्ट डाली थी।

सो गया साहित्य का पुरोधा

प्रो. चौथीराम यादव का जन्म 29 जनवरी 1941 को जौनपुर के कायमगंज में हुआ था। बनारस उनकी कर्मस्थली थी। बीएचयू से पढ़ाई की और यहीं हिंदी विभाग में प्रोफेसर बन गए। ‘वेद और लोक: आमने-सामने’ उनकी सबसे लोकप्रिय रचना थी। कई किताबें भी लिखीं, जो काफी चर्चित हुईं। उन्हें साहित्य साधना सम्मान, कबीर सम्मान, लोहिया सम्मान और अंबेडकर सम्मान से नवाजा गया था। वह सिर्फ लेखक और आलोचक ही नहीं, उनका व्यक्तित्व एक्टिविज्म को बखूबी समेटता रहता था। पिछले साल ही उन्हें कबीर राष्ट्रीय सम्मान से नवाजा गया था।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में एक शिक्षक के रूप में उन्होंने चार दशक तक अपनी सेवाएं दीं। साल 1997 से 1999 तक वह हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे। साल 2000 में सेवानिवृत्त होने के बाद उनकी शैक्षणिक सक्रियता प्रमुखता से उभरी। उन्होंने अपनी बातचीत में हाशिए के समाज की आवाज को प्रमुखता से उठाया। वह मूलतः मध्यकालीन इतिहास एवं साहित्य के विशेषज्ञ थे। भक्ति काल का साहित्य उनकी वैचारिक प्रेरणा के मूल में था। कबीर, रैदास से लेकर अंबेडकर तक की वैचारिकी को उन्होंने अपनी आलोचना का निकस बनाया।

प्रो.चौथीराम की आंखों में ऐसा सपना जरूर था कि हम ऐसे समाज की रचना करें, जिसमें न्याय सबको मिले। आजादी के सालों बाद न्याय मिलना मुश्किल हो गया है। उनकी सोच उच्चकोटि की थी और उनका साहित्यिक कैनवास बहुत बड़ा था। वह प्रखर आलोचक थे, जिन्हें लोग गंभीरता से पढ़ते-सुनते थे। उनके साथ एक बड़ा आदर्श, मूल्य और नैतिकता थी। साल 2017 में बरेली में आरएसएस की आलोचना करने पर उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा। इतना ही नहीं, उनके खिलाफ मुकदमा दायर करने का आदेश दिया गया था।

बीएचयू में हिंदी के प्रोफेसर मनोज सिंह कहते हैं, “दलित, वंचित एवं आदिवासी समाज के भीतर से उभरती हुई नई रचनाशीलता को चौथी राम यादव ने अपनी सहानुभूति और वैचारिकता की ऊष्मा से सींचने और संवारने का काम किया। अध्यापन के दौरान भी उन्होंने प्रतिभा को पहचानने और प्रोत्साहन देने में अपने निजी विचारों को उसके रास्ते में नहीं आने दिया। वह मौखिक परंपरा को बहुत अहमियत देते थे। सबसे बड़ी बात यह है कि वो ज्यादा लिखते भी थे और उससे ज्यादा बोलते थे। उनका मानना था कि मौखिक परंपरा लोक चेतना को अभिव्यक्त करती है और आधुनिकता हमारी संवाद परंपरा को बाधित करती है। भारतीय समाज आदान-प्रदान का समाज है। एक-दूसरे को सम्मान देने का समाज है। यह सभ्यता के पुनर्जागरण का दौर है। भारतीय साहित्य में जनतांत्रिक चित्ति को फिर से जीवित करने लिए लोक से सीखना होगा और उससे जुड़ना होगा।”

“खांटी बनारसी तेवर वाले प्रोफेसर चौथीराम यादव की सैद्धांतिक और वैचारिक जड़ें भी बहुत मजबूत थीं। उनका मन लोक समाज में रमता था, जहां से वे आए थे। उनसे मिलने के बाद एहसास होता था कि आप किसी प्राख्यात साहित्यकार के पास नहीं, बल्कि अपने अभिभावक के पास आए हैं। साहित्य परंपरा में वह ऐसे शख्स थे जिनमें हम वंचित समाज की छवि देख सकते थे। बीएचयू के हिंदी विभाग से अध्यक्ष पद से रिटायर होने के बावजूद उन्होंने अपना एक्टिविज्म जारी रखा। वह देश भर में घूमते थे और पाखंडवाद पर तीखे हमले करते थे। सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियों के खिलाफ आवाज उठाने में कभी विचलित नहीं हुए। अपनी वैचारिकी के लिए वो सड़कों पर उतर कर आंदोलन करने में तनिक भी पीछे नहीं हटते थे। वह एक प्रबुद्ध दलित चिंतक के रूप में देश भर में ख्यात रहे। उनका जाना हिंदी समाज के लिए अपूरणीय क्षति है।”

प्रो.मनोज के मुताबिक, “आलोचक प्रोफ़ेसर चौथीराम यादव कहा करते थे कि पुनरुत्थानवादी शक्तियां पहले भी साम-दाम, ख़ून–खराबे का हथियार इस्तेमाल करती रही हैं। शुंगकाल में बौद्धों का क़त्लेआम, नवीं सदी के बाद दक्षिण में विरोधी मताबलंबियों का क़त्लेआम, बनारस में पलटूदास की हत्या, महाराष्ट्र संत तुकाराम की हत्या या फिर राजस्थान में मीराबाई की हत्या पुनरुत्थानवादी ताक़तों के ख़ूनी प्रयासों के ऐतिहासिक उदाहरण हैं। ये शक्तियां तीन स्तरों पर काम करती हैं-विरोध, दुष्प्रचार और आत्मसात करने के स्तर पर। नए जोश से भरी हिंदुत्ववादी शक्तियां वंचित समूह ‘असुर’ परंपरा में अपने को ढूंढकर इतिहास की पुनर्व्याख्या में लगी हैं। मौजूदा दौर में इन्हें सड़क पर चुनौती देना जरूरी है।”

जाने-माने चिंतक और विचारक प्रोफेसर आशीष त्रिपाठी कहते हैं कि, “प्रो.चौथीराम के निधन से बीएचयू की बड़ी काव्य और साहित्य की परंपरा टूट गई। वो परंपरा, जिसकी नींव बाबू श्याम सुंदर दास, रामचंद्र शुक्ल, नंद दुलार वाजपेयी, हजारी प्रसाद द्विवेदी, केशव प्रसाद मिश्र, विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, शिव प्रसाद सिंह ने डाली थी। उस महान परंपरा में चौथीराम भी एक महत्वपूर्ण कड़ी थे। उन्होंने अध्यापन के साथ-साथ हिंदी आचोलना पर महत्वपूर्ण कार्य किया। वह इस नजरिये से महत्वपूर्ण थे कि उन्होंने प्रगतिशील और दलित आलोचना के मध्य एक सेतु का निर्माण किया। उन्होंने दलितों, आदिवासियों और महिलाओं के ऐसे सवालों को, जो हिंदी अकादमी जगत में छूट रहे थे, उन्हें केंद्र में स्थापित करने का पुरजोर प्रयास किया।”

“प्रोफेसर चौथीराम यादव ने एक ओर समकालीन साहित्य का प्रगतिशील दृष्टिकोण और बहुजन जनपक्षधरता के साथ मूल्यांकन किया, वहीं दूसरी ओर परंपरा के मूल्यांकन को आगे बढ़ाया। वह एक जनपक्षधर आलोचक थे। उन्होंने आलोचना में अभिजनमुखता का विरोध किया और लोकोन्मुखता को स्थापित करने का प्रयास किया। इस प्रक्रिया में उन्होंने आचार्य रामचंद्र शुक्ल और डा.राम विलास शर्मा के पंरपरा संबंधी मूल्यांकन के समानांतर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और प्रो. नामवर सिंह की धारा को आगे बढ़ाया। शिक्षक और आलोचक के अलावा प्रगतिशील आंदोलन और अनेक जनांदोलनों में सक्रिय रूप से भाग लिया।”

दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और स्त्रियों पर प्रो.चौथीराम के काम और शोध की चर्चा करते हुए प्रोफेसर आशीष कहते हैं, “प्रो.यादव ने विश्वविद्यालय परिसर से बाहर निकलकर सड़कों और चौराहों में हो रही जनगतिविधियों में भाग लिया। वह जनता की एकता को खंडित करने वाले विभिन्न अभियानों के धुरविरोधी थे। वह सांप्रदायिक कठमुल्लावाद और फासीवादी प्रवृत्तियों का खुलकर विरोध कर रहे थे। एक बुद्धजीवी कार्यकर्ता की तरह जनता के सवालों पर जनता को शिक्षित करने के लिए उन्होंने देश भर में यात्राएं की। यह भी कह सकते हैं कि वह सही मायने में जनता के शिक्षक थे।”

मऊ जनपद के जाने-माने लेखक एवं चिंतक मनोज सिंह कहते हैं, “प्रो.यादव कहा करते थे कि भारतीय समाज में जितनी विकट स्थिति और चुनौतियां हैं, इन चुनौतियों का उल्लेख करके लेखन नहीं किया जा रहा है। इन दिनों ज्यादातर पत्रकार और लेखक ऐसे समाज से आ रहे हैं जो सामूहिकता में कम, व्यक्तिवाद और सुखवाद की संस्कृति में ज्यादा भरोसा करते हैं। उनमें ऐसी नैतिकता का अभाव है जिसे वह न लिख पा रहे हैं, न बोल पा रहे हैं और न ही न्यायपालिका न्याय कर पा रही है। उन्होंने देश के लेखकों और पत्रकारों को एक बड़ा संदेश दिया कि उनमें प्रतिबद्धता, निडरता और जोखिम उठाने का साहस होना चाहिए।”

प्रोफेसर चौथीराम यादव के निधन से आहत प्राख्यात चिंतक एवं लेखक प्रो.अवधेश प्रधान कहते हैं, “बनारस से भक्ति काव्य की एक बड़ी परंपरा टूट गई है। वह आचार्य परंपरा के सबसे प्रतिभाशाली और लोकप्रिय शिक्षक और भक्ति काव्य के विशेषज्ञ थे। उन्होंने नामवर सिंह की दूसरी परंपरा खोजी और विमर्श से प्रभावित होकर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी पर काम किया। बाद में दलित विमर्श को लेकर हिंदी आलोचना में विशेष योगदान दिया। भक्तिकाल में कबीर, रविदास जैसे दलित लेखन को लेकर होने वाले चिंतन और गोष्ठियों में उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। वह अपने तीष्ण विश्लेषण और स्पष्ट रुख के लिए जाने जाते थे। मनुवाद संस्कृति पर प्रहार करने से वह संकोच नहीं करते थे। लेखन के साथ-साथ उन्होंने संवाद के व्याख्यान की परंपरा को जारी रखा। हिंदी राज्यों में बहुजन चिंतन पर व्याखान के लिए जाने जाते थे।”

“प्रो.यादव ने प्रगतिशील लेखक संघ के साथ जुड़कर अपनी अहम भूमिका अदा की। मृत्यु के दिन भी फेसबुक पर लगातार अपनी पोस्ट लिखते रहे। आखिर तक प्रिंट और सोशल मीडिया, पुस्तकों और व्याख्यान के जरिये अपने विचारों का प्रचार करते रहे। उनके संवाद कबीर के अंदाज में होते थे। विरोध के बावजूद वह कभी विचलित नहीं हुए। आमतौर पर जो अच्छे शिक्षक होते हैं, वह साहित्य लेखन में संकोच करते हैं। वह नियमित और अनुशासित रूप से अध्यापन और अनुसंधान करते थे। इसीलिए वह छात्रों में काफी लोकप्रिय रहे। बीएचयू में वह सौम्य और शालीन व्यवहार के लिए जाने जाते थे। अति विनम्र होने के बावजूद जब मंच पर बोलते थे तो वह अपने विचार और सिद्धांतों के से समझौता नहीं करते थे। वो मेरे साथ शिक्षक थे। मैं हृदय से अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं।”

(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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