बाइडेन डिमेंशिया-ग्रस्त हैं, तो फिर चला कौन रहा है अमेरिका का शासन ?

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अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव से सवा चार महीने पहले दोनों प्रमुख उम्मीदवारों जो बाइडेन और डॉनल्ड ट्रंप के बीच टेलीविजन पर बहस हुई, तो उसमें कुछ बातें असामान्य थीं। मसलन,

  • हालांकि व्यावहारिक रूप से दोनों प्रमुख पार्टियों के उम्मीदवार तय हो गए हैं, फिर भी अभी उनके उम्मीदवार के चयन की औपचारिकता पूरी नहीं हुई है। रिपब्लिकन पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन जुलाई में होगा, जिसमें पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप औपचारिक रूप से पार्टी की उम्मीदवारी स्वीकार करेंगे।
  • डेमोक्रेटिक पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन अगस्त में होगा, जिसमें राष्ट्रपति जो बाइडेन को उम्मीदवार घोषित करने की औपचारिकता पूरी की जाएगी।
  • अभी तक परंपरा यही थी कि ये औपचारिकताएं पूरी होने के बाद ही उम्मीदवार टीवी पर राष्ट्रीय बहस में शामिल होते हैं। लेकिन इस बार उसके पहले ही टीवी चैनल सीएनएन ने ये बहस आयोजित की और उसमें दोनों प्रमुख उम्मीदवार शामिल हुए। 

असामान्य यह भी है कि डॉनल्ड ट्रंप सीएनएन की बहस में आने को तैयार हो गए। इसलिए कि अमेरिका में तीव्र राजनीतिक और मीडिया ध्रुवीकरण के बीच सीएनएन को डेमोक्रेटिक खेमे का चैनल माना जाता है। ट्रंप जब राष्ट्रपति थे, तब उन्होंने एक बार इस चैनल की टीम को अपनी प्रेस कांफ्रेंस से बाहर जाने को कहा दिया था। इसके बावजूद उन्होंने इस चैनल के ना सिर्फ आमंत्रण को स्वीकार किया, बल्कि बहस के लिए चैनल द्वारा तय नए नियमों को भी मान लिया, तो इस पर बहुत से लोगों को हैरत हुई। नए नियमों के तहत तय हुआ कि जब एक नेता अपनी बात कह लेंगे, तब उनका माइक बंद कर दिया जाएगा। यह नियम इसलिए ट्रंप के खिलाफ था, क्योंकि पिछले मौकों पर दूसरे उम्मीदवारों के बोलने के बीच में टोका-टाकी से उन्हें भटका देने की उनकी रणनीति कारगर साबित हुई थी।

इस तरह कहा जा सकता है कि बाइडेन के ‘घर में आकर’- यानी उनके अनुकूल माहौल में बहस के लिए ट्रंप राजी हुए। जिस व्यक्ति व्यक्ति के बारे में माना जाता हो कि मीडिया और सोशल मीडिया के इस्तेमाल में अपनी महारत के कारण ही अचानक राजनीति के क्षितिज पर वह उभरा और फिर सीधे चरम पर जा पहुंचा, वह अपने प्रतिकूल माहौल में बहस के लिए आने को कैसे तैयार हुआ, इस पर कई अटकलें लगाई गई थीं। अब कहा जा सकता है कि उन्होंने इसमें अपने लिए मौजूद अवसर को संभवतः पहले से समझ लिया!

यह बहुचर्चित है कि 81 वर्षीय जो बाइडेन डिमेंशिया (विक्षिप्तता) से पीड़ित हो चुके हैं। डिमेंशिया अक्सर बढ़ती उम्र के साथ होने वाली समस्या है, जिसमें संज्ञान क्षमता में क्रमिक गिरावट आने लगती है। इसके लक्षण यादाश्त खोने, संवाद में मुश्किल, चिंतन संबंधी दिक्कतों और समस्या-समाधान की क्षमता के क्षय के रूप में उभरते हैं। एक अन्य लक्षण यह होता है कि व्यक्ति अचानक दिशाहीनता और भ्रम का शिकार होने लगता है।

हाल के समय में अनेक सार्वजनिक कार्यक्रमों और सभाओं में बाइडेन में ये लक्षण उभरते दिखे हैं। अभी हाल में जब वे जी-7 शिखर सम्मेलन में भाग लेने इटली गए, तब वहां एक जगह इकट्ठे नेताओं के समूह से भटकते हुए अचानक वे एक मैदान की ओर चल पड़े थे। तब उन्हें हाथ पकड़ कर वापस लाया गया था।

तो जब दुनिया को यह सब पता है, तो जाहिर है, ट्रंप को इस बारे में इससे अधिक जानकारी ही होगी। इसीलिए वे संभवतः एक ऐसा मौका चाहते थे, जहां लाइव प्रसारण में वे बाइडेन के सामने हों और दुनिया को दिखा सकें कि अमेरिका का राष्ट्रपति पद संभालने के लिए जरूरी दिमागी और शारीरिक चुस्ती बाइडेन खो चुके हैं। ट्रंप खुद भी 78 साल के हैं। इसलिए उम्र से जुड़े सवाल उन पर भी हैं। मगर इसका उत्तर वे तैयार कर लाए थे। उन्होंने हाल में कराए अपने दो संज्ञान जांच (cognitive test) की सूचना बहस के दौरान दी। और उनके हवाले से दावा कि वे दिमागी तौर पर पूरी तरह फिट हैं। फिर यह बताया कि वे गोल्फ अपनी उम्र से काफी छोटे लोगों के साथ खेलते हैं और हाल में उनके साथ एक प्रतियोगिता में भी विजयी हुए हैं। यानी वे पूरी तरह तंदुरुस्त भी हैं।

ट्रंप ने इन्हीं कसौटियों पर बाइडेन को घेरने आए और सफल हो गए। डेढ़ घंटे चली बहस के दौरान बाइडेन का संज्ञान क्षय (cognitive loss) कई बार जाहिर हुआ। वे बोलते-बोलते फ्रीज हुए, विषयांतर किया, बिलियन को ट्रिलियन कहा, लड़खड़ाते नजर आए। और इस तरह ट्रंप का मकसद पूरा हो गया। उन्होंने दुनिया को दिखा दिया कि बाइडेन राष्ट्रपति पद संभालने के लायक नहीं रह गए हैं।

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में होने वाली बहसों में विषयवस्तु और सारगर्भिता का महत्त्व वैसे भी न्यूनतम रहता है। बहस में सर्व-प्रमुख पहलू होता है- परफॉर्मेंस यानी प्रदर्शन। बहस में उम्मीदवार कैसे बोले, कितना बोले, किस लहजे में बोले और कैसा दिखे, यह अहम होता है। उन्होंने कहा क्या, इस पर कम ही ध्यान दिया जाता है। अगर ध्यान सारगर्भिता पर रहता, तो आखिर सीएनएन सिर्फ दो उम्मीदवारों को ही क्यों बहस के लिए बुलाता? सिर्फ उन दो उम्मीदवारों को जो कॉरपोरेट नियंत्रित पार्टियों की तरफ से मैदान में उतरने वाले हैं और जिनके एजेंडे में कुछ सांस्कृतिक मामलों को छोड़कर बाकी कोई बुनियादी अंतर नहीं है?

आखिर 2024 में ही मशहूर और प्रतिष्ठित विद्वान प्रोफेसर कॉर्नेल वेस्ट और संघर्षशील कार्यकर्ता जिल स्टीन भी चुनाव मैदान में उतरी हैं। दोनों ने बिल्कुल अलग, नीतिगत कार्यक्रम लोगों के सामने रखे हैं। ब्लैक समुदाय से आने वाले प्रो. वेस्ट और ग्रीन पार्टी की जिल स्टीन ने वित्तीय पूंजीवाद और अमेरिकी साम्राज्यवाद का विकल्प पेश करने का दावा किया है। उनके अलावा मशहूर केनेडी परिवार से संबंधित रॉबर्ट एफ. केनेडी भी मैदान में हैं। केनेडी ने डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवारी की होड़ में उतरने का एलान किया था, लेकिन पार्टी नेतृत्व इसकी इजाजत उन्हें नहीं दी। तो वे निर्दलीय उम्मीदवार बने हैँ।

अगर सीएनएन का मकसद मुद्दों पर बहस कराना होता, तो वह इन उम्मीदवारों को भी अपना मंच प्रदान करता। लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की टीवी बहस एक बिग इवेंट है, जिसमें मुद्दों और विचारधारा की कभी जगह नहीं रही है। तो इस बार भी नहीं थी। इसीलिए इस बार इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया कि ट्रंप ने डेढ़ घंटे को दौरान कितने झूठ बोले, कितनी बड़बोली बातें कीं, और किस आत्म-मुग्धता का प्रदर्शन किया।

वैसे झूठ बाइडेन ने भी बोले (https://x.com/sranjan19/status/ 1806649694275186953), मगर  सारा ध्यान इस पर ही केंद्रित हुआ कि जो बाइडेन का किस हद तक संज्ञान क्षय हो चुका है।

डेमोक्रेटिक पार्टी के अंदर इससे कितनी बेचैनी और घबराहट फैली है, इस बारे में अभी तक उपलब्ध सारी सूचनाएं मीडिया के जरिए- सूत्रों के हवाले से आई हैं। (Biden’s Shaky Debate Performance Has Democrats Panicking – The New York Times (nytimes.com)), (Defiant Biden Hits Campaign Trail as Democrats Discuss Replacement – WSJ). औपचारिक रूप से डेमोक्रेटिक पार्टी ने तो अपने ट्विटर (एक्स) हैंडल से यही संदेश दिया कि बहस में जीत बाइडेन की हुई। मगर सारा लिबरल मीडिया (जो ट्रंप काल में हुए ध्रुवीकरण के बीच डेमोक्रेटिक पार्टी का धुर समर्थक है) तुरंत घबराहट में डूब गया। यह सलाह दी जाने लगी कि जो बाइडेन मैदान से हट जाएं और डेमोक्रेटिक पार्टी कोई नया उम्मीदवार चुन ले। यह कोई आम बात नहीं है कि न्यूयॉर्क टाइम्स के एडिटोरियल बोर्ड ने जो लिखा (Opinion | To Serve His Country, President Biden Should Leave the Race – The New York Times (nytimes.com)), उसे इस हिस्से से जुड़े दूसरे माध्यमों ने भी उद्धृत किया है।

जो बाइडेन, उनके परिवार और उनके समर्थकों की पहली प्रतिक्रिया यह जताने की रही कि बहस में राष्ट्रपति की छवि को नुकसान नहीं पहुंचा है। लेकिन लिबरल मीडिया की प्रतिक्रिया की वे ज्यादा देर तक उपेक्षा नहीं कर पाए। 24 घंटों के अंदर बाइडेन ने मान लिया कि अब वे पहले की तरह ना तो चल सकते हैं, ना बोल सकते हैं, ना वैसी बहस कर सकते हैं। इसके बावजूद उन्होंने दावा किया कि एक खूबी उनमें बाकी है और वह है सच बोलने की। (https://x.com/JoeBiden/status/1806746426904379543). इसके जरिए उन्होंने संदेश दिया कि उनका मैदान से हटने का इरादा नहीं है।

आज भी डेमोक्रेटिक पार्टी के भीतर पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा संभवतः सबसे ज्यादा प्रभाव रखने वाली शख्सियत हैँ। 2020 में बाइडेन को उम्मीदवार बनवाने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका चर्चित हुई थी। ऐसा लगता है कि अभी तक वे भी बाइडेन पर अपना दांव लगाए हुए हैँ। बहस के अनुभव को उन्होंने ‘एक बुरी रात’ कहा, लेकिन यह भी कहा कि अगला चुनाव दो ऐसे व्यक्तियों के बीच है, जिसमें एक ने (बाइडेन) अपने पूरे जीवन में दूसरों के लिए संघर्ष किया है, जबकि दूसरे ने (ट्रंप) ने सिर्फ अपनी चिंता की है। (Barack Obama on X: “Bad debate nights happen. Trust me, I know. But this election is still a choice between someone who has fought for ordinary folks his entire life and someone who only cares about himself. Between someone who tells the truth; who knows right from wrong and will give it to the” / X)

तो फिलहाल संकेत हैं कि बाइडेन स्वेच्छा से मैदान से नहीं हटेंगे। लेकिन अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव में बड़े दांव लगे होते हैं। व्यक्ति (यानी उम्मीदवार) बहुत से हितों की तरफ से सिर्फ एक मोहरा या मुखौटा भर होता है। दांव कॉरपोरेट शासक वर्ग, फंडर्स (जो चंदा देते हैं), विभिन्न निहित स्वार्थों, लॉबिस्ट्स, और पार्टी का होता है। अब बाइडेन की संज्ञान अवस्था बेनकाब हो जाने के बाद क्या उन समूहों के लिए भी उनकी कथित सोच बोलने की क्षमता काम की रह गई है, यह एक बड़ा सवाल है।

अगर नहीं, तो हालांकि अब बहुत देर हो चुकी है, फिर यह संभव है कि अगले पांच नवंबर को होने वाले चुनाव में ट्रंप के सामने डेमोक्रटिक पार्टी का कोई नया उम्मीदवार खड़ा दिखे। पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन अगस्त में है। तब तक मुमकिन है कि पार्टी के अंदर किसी नए नाम पर सहमति बनाई जाए। विकल्प के तौर पर मीडिया में कैलिफॉर्निया के गवर्नर केविन न्यूसॉम, बराक ओबामा की पत्नी मिशेल ओबामा, परिवहन मंत्री पीट बुटिगिएग आदि नामों की चर्चा शुरू हो चुकी है।

कहा गया है कि अगर बाद में जाकर बाइडेन की हालत और बिगड़ी, तो उम्मीदवार पार्टी अधिवेशन के बाद भी बदला जा सकता है। उसके लिए आपात अधिवेशन बुलाना होगा। लेकिन सवाल प्रचार के लिए बचे समय- और फंड का है, जिसे जुटाने के लिए उम्मीदवारों को बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है। अगर जीतने की संभावना क्षीण हो, तो फंड जुटाना और भी मुश्किल हो जाता है।

बहरहाल, ये सारी डेमोक्रेटिक पार्टी की अपनी चिंताएं है। जबकि सीएनएन पर बहस से एक दूसरा अहम सवाल मौजूद उठा हैः वो यह कि बाइडेन की जो दिमागी हालत है, उसके बीच अभी अमेरिका का शासन कौन चला रहा है? यह संदेह पहले से है कि सत्ता की कमान बाइडेन के हाथ में नहीं है। बल्कि उनके आसपास के लोग शासन चला रहे हैं। इन लोगों में न्यूकॉन्स (new conservatives) की भरमार है। ये लोग मिलिट्री इंडस्ट्रीयल कॉम्पलेक्स से नियंत्रित हैं। इसीलिए उन्होंने ऐसी नीतियां अपना रखी हैं, जो दुनिया को तेजी से तीसरे विश्व युद्ध के लिए ले जा रही हैं।

बहस के दौरान डॉनल्ड ट्रंप ने भी बाइडेन पर दुनिया को तीसरे विश्व युद्ध की तरफ ले जाने का आरोप लगाया। पहले वे कह चुके हैं कि नवंबर में बाइडेन जीते, तो फिर तीसरा विश्व युद्ध अवश्यंभावी है। इन जाहिर हुई स्थितियों ने अमेरिका के कथित डीप स्टेट की चर्चा को फिर से उभार दिया है। सोशल मीडिया पर यह चर्चा आम है कि राष्ट्रपति को मोहरा बना कर शासन की बागडोर कुछ निहित स्वार्थ अपने हाथ में रखते हैं। प्रो. वेस्ट और जिल स्टीन के संवाद को सुनें, तो उनमें ऐसी स्थिति के संकेत ठोस रूप में दिए जाते हैँ।

क्या सचमुच अमेरिकी शासन तंत्र का स्वरूप इतना रहस्यमय है? जो बाइडेन की दिमागी सूरत ने ऐसी चर्चाओं को संभवतः अधिक विश्वसनीयता प्रदान कर दी है। दरअसल, अगर इस चर्चा में तनिक भी हकीकत हो, तो फिर अमेरिका में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक जवाबदेही की बातें निराधार मालूम पड़ने लगेंगी। यह तो आम तजुर्बा है कि अमेरिका में राष्ट्रपति चाहे जो और जिस पार्टी का बने, अर्थनीति और विदेश नीति पर कोई फर्क नहीं पड़ता। उम्मीदवार इन नीतियों में बदलाव के वादे चुनाव के समय करते हैं, लेकिन जीतने के बाद वे ह्वाइट हाउस के दरवाजे पर उन्हें छोड़कर अंदर प्रवेश करते हैं।

लेकिन अब ज्यादा गंभीर सवाल सामने हैं। क्या उपरोक्त हकीकत के कारण ही बाइडेन की खराब दिमागी सेहत के बावजूद सब कुछ “सामान्य” बना रहा है? और इसीलिए दुनिया को बताया भी यही गया है कि सब कुछ “सामान्य” है? बहस के बाद लिबरल टीवी मीडिया पर टीकाकारों ने खुल कर कहा कि उन्हें ह्वाइट हाउस से हमेशा यही बताया गया कि बाइडेन का पूरा नियंत्रण बना हुआ है, वे पूरी तरह स्वस्थ हैं। जबकि बहस में उलटी सच्चाई नजर आई। तो इस कयास जोर पकड़ जाना लाजिमी है कि आखिर झूठ क्यों बोले गए? असल में सच्चाई क्या है? 

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

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