कुछ पहले आई इस खबर ने भारत में जश्नभरा माहौल बना दिया कि भारत अब दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। इसके साथ ही ये खबर भी आई कि इस दशक के अंत तक अमेरिका और चीन के बाद भारत तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का दर्जा हासिल कर लेगा। चूंकि भारत ने पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का दर्जा ब्रिटेन को पीछे छोड़ते हुए हासिल किया, तो इस पहलू का खास तौर पर उल्लेख किया गया है कि भारत जिस देश का दो सौ साल से अधिक समय तक गुलाम रहा, आखिर अब वह उससे आगे निकल गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी ने अपने जाने-पहचाने अंदाज में इसे अपनी बड़ी कामयाबी के रूप में पेश किया है।
लेकिन विशेषज्ञों ने जल्द ही इस आंकड़े का यथार्थवादी विश्लेषण पेश करते हुए समाज के एक बड़े तबके में फैले सुखबोध पर पानी फेर दिया। मसलन, प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य रह चुके अर्थशास्त्री रतिन रॉय की एक अखबार में टिप्पणी इस शीर्षक के साथ छपी- 2022 में भारत: बड़ा हो रहा है, धनी नहीं। भारतीय अर्थव्यवस्था के मौजूदा ट्रेंड के बारे में अनेक दूसरे विश्लेषणों की तरह इस टिप्पणी का भी सार यही रहा कि K आकार की अर्थव्यवस्था में पैदा होने वाले धन से आम लोगों की जिंदगी खुशहाल नहीं होती। हकीकत यह है कि आम भारतीयों की हालत लगातार बिगड़ती जा रही है।
दरअसल, इंडिया रेटिंग्स नाम की एक एजेंसी ने सितंबर के पहले हफ्ते में जारी अपनी एक रिपोर्ट में बताया कि लोगों की गिरती कमाई भारतीय अर्थव्यवस्था की मुख्य समस्या बन गई है। इसके परिणामस्वरूप बाजार में मांग घटती गई है, जिसकी वजह से कंपनियों की उत्पादन क्षमता का एक बड़ा हिस्सा बेकार पड़ा हुआ है। इस रिपोर्ट में बताया गया कि 2016-17 से 2020-21 के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था में सकल मूल्य वृद्धि (जीवीए) के लिहाज से 44-45 प्रतिशत योगदान करने वाले हाउसहोल्ड्स (परिवारों) की आय वृद्धि की दर बमुश्किल एक फीसदी रही। कुल मिला कर जून 2022 में शहरी और ग्रामीण इलाकों में वास्तविक वेतन में क्रमशः 3.7 प्रतिशत और 1.6 प्रतिशत की गिरावट आई। जब यह रुझान हो, तो वास्तविक अर्थ में आर्थिक विकास की तमाम बातें बेमतलब हो जाती हैं।
इस चिंताजनक स्थिति के बावजूद वित्तीय बाजार से जुड़े लोगों की कमाई में भारी बढ़ोत्तरी और उसकी वजह से अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ना असल में एक बीमारी का लक्षण है। इससे देश की आम अर्थव्यवस्था में कोई मूल्य नहीं जुड़ता। सरकार की वित्तीय और इजारेदार पूंजी समर्थक नीतियों के कारण आम लोगों की जेब से धन का धनी तबकों को ट्रांसफर होने का सिलसिला हाल के वर्षों में तेज हुआ है। इस कारण कुछ लोग जरूर धनी होते चले जाते हैं। स्टॉक एक्सचेंज, बॉन्ड और ऋण बाजार में निवेश कर पैसा से पैसा बनाने वाले लोगों की संपत्ति बढ़ती है। यह रेंट अर्थव्यवस्था की वापसी है, जो भारत में हाल के वर्षों में तेजी से मजबूत हुई है।
बेशक ये सारा ट्रेंड नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल में तेजी से आगे बढ़ा है। इसे गति देने में सरकार की औचक नोटबंदी, वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) लागू करने, और कोरोना महामारी के दौरान बिना पूर्व सूचना के अचानक लॉकडाउन करने के फैसलों का काफी योगदान है। इन तीन कदमों ने कृषि और कारोबार जगत क्षेत्र के छोटे उत्पादकों की कमर तोड़ दी। परिणामस्वरूप सारे संसाधनों का कुछ हाथों में संग्रह होने की प्रवृत्ति तेज हो गई। इसी पृष्ठभूमि में कोरोना काल के बाद जब आर्थिक गतिविधियां फिर चालू हुईं, तो अर्थव्यवस्था में सुधार के संदर्भ में K shape की बात सामने आई। यानी ये रिकवरी K अक्षर की तरह रही है, जिसमें ऊपर और नीचे की रेखाएं और लंबी हुईं। अर्थात धनी और धनी तथा गरीब और गरीब हुए हैं। ये रुझान इतना मजबूत हुआ है कि अब भारतीय अर्थव्यवस्था को ही K आकार का कहा जाने लगा है। इसके परिणाम सबके सामने हैं:
तो ये नरेंद्र मोदी सरकार के दौरान अपनाई गई आर्थिक नीतियों और उसके परिणामों की कहानी है। लेकिन असल में यह इस पूरी कहानी का सिर्फ ताजा और अभी जारी अध्याय ही है। इस कथा को लिखने की शुरुआत करने में मोदी या उनकी पार्टी का प्रमुख योगदान नहीं है। बल्कि इसे श्रेय कहें या जिम्मेदारी- वह पीवी नरसिंह राव- मनमोहन सिंह सरकार पर जाती है। हालांकि यह भी सच है कि उसके बाद देश में बनी तमाम सरकारों ने नव-उदारवाद नाम से जानी जाने वाली इस नीति पर पूरी आस्था के साथ अमल किया है। बीते सवा तीन दशक से मोटे तौर पर देश में यह राजनीतिक सहमति रही है कि इन नीतियों का कोई विकल्प नहीं है। मोदी सरकार के साथ बात बस इतनी है कि उसने इन नीतियों पर अमल की रफ्तार बहुत तेज कर रखी है।
(क्रमशः)
(वरिष्ठ पत्रकार सत्येंद्र रंजन आर्थिक मामलों के जानकार हैं।)