नरेंद्र मोदी परिघटना अपने अंत की ओर बढ़ रही है

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मई के चुनावी महीनों में बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश की यात्रा और समाज के विभिन्न तबकों-वर्गों के साथ संवाद के बाद मैं यह कह सकता हूं कि नरेंद्र मोदी परिटघटना अपने अंत की ओर बढ़ रही है। भले ही अभी इसका पूरी तरह अंत नहीं हुआ है, लेकिन तेजी से अपने अंत की ओर बढ़ रही है।

इस देश की करीब 65 प्रतिशत आबादी युवा ( 18 से 35 वर्ष) है, उनके बहुत बड़े हिस्से की यह उम्मीद टूट चुकी है कि नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार उनके लिए सरकारी या गैर-सरकारी स्तर पर रोजगार मुहैया करा सकती है। नरेंद्र मोदी का देश के 65 प्रतिशत युवाओं से यह सबसे बड़ा और सबसे आकर्षक वादा था। करीब-करीब एक स्वर से बात-चीत में लोगों ने यह स्वीकार किया कि रोजगार के मामले में मोदी सरकार पूरी तरह असफल रही है। रोजगार के साथ नौजवानों के अच्छे दिन और विकास का स्वप्न जुड़ा हुआ था। उनका वह स्वप्न भी टूट रहा है या टूट चुका है।

रोजगार के साथ ही गरीब, निम्न मध्यवर्ग और मध्य वर्ग को नरेंद्र मोदी ने महंगाई से राहत देने का पुरजोर वादा किया था, पिछले 10 सालों में महंगाई जिस कदर बढ़ी है, उसके आधार पर लोग इस मत पर पहुंचे हैं कि नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार उन्हें महंगाई से राहत नहीं दिला सकती है, बल्कि उनके शासन काल में महंगाई और बढ़ी है, गैस सिलेंडर के दाम को लोग इसके उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हैं। सबको याद ही होगा कि नरेंद्र मोदी का चुनावी नारा था कि ‘बहुत हुई महंगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार’। बात-चीत में कोई भी यह उम्मीद नहीं दिखाया कि मोदी सरकार महंगाई से राहत दिला सकती है।

किसानों से नरेंद्र मोदी ने सबसे बड़ा वादा यह किया था कि वे उनकी आय दुगुनी करेंगे। किसानों को 10 वर्षों के अपने अनुभव के आधार पर यह अहसास हो गया है कि आय तो दो गुनी होने से रही, उनकी फसल का न्यूनतम लागत मूल्य भी नहीं मिल पा रहा है। इससे भी आगे बढ़कर तीन कृषि कानूनों को आनन-फानन में नरेंद्र मोदी के लागू करने की कोशिश को देखकर किसान इस बात से आशंकित हैं कि वे उनकी खेती-बारी को कार्पोरेट को सौंपना चाहते हैं।

जहां तक भ्रष्टाचार के खात्मे की बात है बिहार-झारखंड और उत्तर प्रदेश में किसी ने भी यह नहीं कहा कि नरेंद्र मोदी ने भ्रष्टाचार को खत्म किया है या वे भ्रष्टाचार को खत्म कर सकते हैं। बल्कि एक बड़ा हिस्सा दो टूक कह रहा है कि मोदी ने भ्रष्टाचारियों को प्रश्रय और संरक्षण दिया है। भले ही वे व्यक्तिगत तौर पर मोदी को भ्रष्टाचारी न कह रहे हों। मोदी भक्त भी यह स्वीकार कर रहे हैं कि मोदी ने भ्रष्टाचारियों को बड़े पैमाने पर अपने साथ लिया है, भले ही वे इसे राजनीतिक जरूरत कह कर जायज ठहरा रहे हों। यह खुला तथ्य भी है। करीब-करीब सभी कम से कम व्यक्तिगत बातचीत में यह स्वीकार कर रहे हैं कि भ्रष्टाचार के नाम पर ED- CBI आदि का इस्तेमाल विपक्ष के नेताओं को अपने साथ करने या उन्हें फंसाने के लिए किया जा रहा है।

नरेंद्र मोदी ने खुद को गरीब का बेटा और चाय बेचने वाले के रूप में प्रस्तुत कर गरीबों से अपने को जोड़ा था, इससे भी आगे बढ़कर खुद को गरीबों और गरीबी से निकले गरीब व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया था। लेकिन जिस तरह उन्होंने कार्पोरेट और अमीरों को लाभ पहुंचाया, उसकी लोग जगह-जगह चर्चा कर रहे हैं। उनके रहन-सहन के ढंग ने उनकी इस छवि को धूमिल किया है। वे अब गरीबों के कम अमीरों के पैरोकार ज्यादा दिख रहे हैं, गरीबी दूर करने और गरीबों को राहत देने के नाम पर उनके पास सिर्फ 5 किलो राशन बचा है।

करीब हर वह बुनियादी स्वप्न और उम्मीद लोगों की नरेंद्र मोदी से टूट चुकी है, जो उनकी जिंदगी से सीधे जुड़ी और उनकी रोज-ब-रोज की जिंदगी को प्रभावित करती है। जिंदगी की बुनियादी चीजों पर न केवल लोग नरेंद्र मोदी को फेल मान रहे हैं, बल्कि स्वयं नरेंद्र मोदी भी ढके-छिपे रूप में इसे स्वीकार कर रहे हैं। इस बार के चुनाव में वे कहीं भी कभी भी अच्छे दिन, महंगाई, रोजगार या बेरोजगारी और गरीब-गरीबी की बात नहीं कर रहे हैं।

विपक्षी नेताओं के खिलाफ ED-CBI आदि के इस्तेमाल को जायज ठहराने के लिए भले ही कभी-कभी और कहीं- कहीं वे विपक्ष को भ्रष्टाचारी कह रहे हैं, लेकिन खुद की पार्टी को भ्रष्टाचारियों से पाक-साफ कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। नीचे के स्तर पर व्यापक भ्रष्टाचार लोगों को साफ हर कहीं दिख रहा है, जिससे लोगों को रोज-ब-रोज साबका पड़ता है।

न केवल जनता का बड़ा हिस्सा, बल्कि खुद नरेंद्र मोदी, उनकी पार्टी और उनके सहयोगी दल व्यापक जनता से जुड़े बुनियादी मुद्दों पर बात करने से मुंह चुरा रहे हैं, कतरा रहे हैं। नरेंद्र मोदी के पूरे चुनावी अभियान में अब तक यह दिखा। वे चुनाव की कोई थीम (नैरेटिव) नहीं गढ़ पाए, जिस पर टिक सकें। वे बार-बार मुद्दे बदल रहे हैं। इस बार चुनावी थीम वे नहीं तय कर रहे हैं, बल्कि विपक्षी गठबंधन खासकर कांग्रेस के चुनावी थीम पर क्रिया-प्रतिक्रिया कर रहे हैं।

तो क्या इसका मतलब है कि नरेंद्र मोदी को कोई वोट नहीं देगा या वे चुनाव में बुरी तरह हार रहे हैं? नहीं ऐसा नहीं है, अच्छे दिन, महंगाई, रोजगार, भ्रष्टाचार का खात्मा और गरीबों की गरीबी से मुक्ति जैसे बुनियादी मुद्दों को छोड़कर वे इतर मुद्दों पर वोट मांग रहे हैं और इन मुद्दों पर उनको वोट देने वाले लोगों की एक अच्छी-खासी संख्या अभी भी है। भले ही वह पहले की तुलना में सिकुड़ गई है।

नरेंद्र मोदी इस बार चुनाव की अपनी वैतरणी राम मंदिर के नाम पर पार करना चाहते थे, उसकी जोर-शोर से तैयारी भी चुनाव के थोड़े पहले गाजे-बाजे के साथ हुई, विपक्ष और उनके वैचारिक विरोधी भी हतप्रभ से लग रहे थे। मोदी ने मंदिर के दम पर 400 पार का नारा बुलंद किया। लेकिन चुनाव के पहले चरण की शुरुआत के साथ ही यह बात साफ हो गई कि इस मुद्दे पर नरेंद्र मोदी बहुमत हासिल नहीं कर सकते हैं, बुनियादी जरूरतों के संदर्भ में लोगों के सब्र (10 साल का सब्र) का बांध टूट रहा है।

फिर नरेंद्र मोदी को एक ही रास्ता सूझा मुसलमानों के प्रति आक्रामक होकर किसी तरह हिंदू पहचान के आधार पर लोगों को अपने साथ किया जाए। लेकिन यह खोटा सिक्का भी ज्यादा नहीं चला। लोग कहने लगे कि बुनियादी मुद्दों से भटकाने के लिए यह सब बातें कर रहे हैं। वे अन्य अनाप-शनाप बातें करने लगे और करते जा रहे हैं। सभी जीवन से जुड़े बुनियादी चीजों पर बुरी तरह असफल मोदी को कोई ऐसा मुद्दा नहीं सूझ रहा है, जो लोगों को उनके साथ उस तरह जोड़ सके, जैसा 2014 और 2019 में जोड़ा था।

2014 में नरेंद्र मोदी अपने उभार के समय तीन तरह के मुद्दे लेकर सामने आए थे। पहला लोगों के जीवन की बुनियादी जरूरतों से जुड़े मुद्दे जिनकी मैं ऊपर चर्चा कर चुका हूं। दूसरा भावात्मक मुद्दे राम मंदिर, हिंदू-मुसलमान, धारा-370 और भारत-पाकिस्तान। तीसरा अमूर्त किस्म के सर्वश्रेष्ठता या श्रेष्ठता के मुद्दे, जैसे विश्व गुरू, विकसित देश या दुनिया की ताकतवर या सबसे ताकतवर शक्ति बनने का सब्जबाग या ख्वाब।

जीवन से जुड़े बुनियादी मुद्दों पर नरेंद्र मोदी अब लोगों को अपने साथ जोड़ पाने या उनका वोट पाने में करीब पूरी तरह असफल हो रहे हैं। बस 5 किलो राशन थोड़ी मदद कर रहा है। मंदिर बन चुका है, धारा-370 खत्म हो चुकी है और पाकिस्तान से कोई खतरा फिलहाल नहीं दिख रहा है। इन तथाकथित उपलब्धियों पर लोगों का एक हिस्सा उनके साथ है और उन्हें इसका श्रेय दे रहा है, इसके आधार पर वोट भी दे सकता है। जो भावात्मक मुद्दा थोड़ा बहुत अभी-अभी चल रहा है, वह तरह-तरह से हिंदू-मुसलमान या मुसलमानों से हिंदुओं को खतरे का मुद्दा है।

लेकिन लोगों का एक बड़ा हिस्सा अब इन भावात्मक मुद्दों को या धार्मिक मुद्दों को बुनियादी मुद्दों से ध्यान भटकाने वाले मुद्दे के रूप में देखने लगा है। हां वह भारत नरेंद्र मोदी के काल में दुनिया में ताकवतर हुआ है, यह लोगों को अभी लग रहा है। भले ही इसे तथ्यपरक तौर पर खारिज किया जा सकता है, लेकिन लोगों को अभी भी यह लग रहा है कि भारत दुनिया में मोदी के चलते ताकतवर हुआ है, इस सच की जांच-पड़ताल करने का आम लोगों के पास कोई औजार फिलहाल नहीं है, भले ही बुद्धिजीवियों-विश्लेषकों या विपक्षी पार्टियों के पास हो।

व्यापक जनता के जीवन से जुड़े बुनियादी मुद्दों पर नरेंद्र मोदी फेल होने के बावजूद भी यदि एक बड़ा हिस्सा भावात्मक और अमूर्त मुद्दों पर उनके साथ खड़ा है और इस चुनाव में उन्हें वोट दे रहा है, तो कैसे कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी परिघटना अपने अंत की ओर बढ़ रही है? इसके लिए संक्षेप में ही सही नरेंद्र परिघटना के उभार को रेखांकित कर लेना जरूरी है।

2014 में नरेंद्र मोदी भारतीय राजनीति और समाज में आमूल-चूल परिवर्तन का स्वप्न और वादा लेकर सामने आए। सबसे पहले मोदी ने भारतीय राजनीति से हर तरह की ‘गंदगी’ दूर करने का संकल्प प्रस्तुत किया। राजनीति और राजनीतिज्ञों के भ्रष्टाचार का पूरी तरह खात्मा और राजनीति को पूरी तरह ‘जनता की सेवा’ के लिए समर्पित कर देने का दावा किया। खुद को ईमानदारी और सादगी के मूर्त प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया। सभी विपक्षी नेताओं को बेईमान और राजनीतिक पार्टियों को भ्रष्टाचार को संरक्षण और भाई-भतीजावाद को बढ़ावा देने वाली कहा। आजादी के बाद शासन करने वाली राजनीतिक पार्टियों के उपलब्धियों को करीब-करीब नकार दिया और उन्हें नाकामयाब और नक्कारा कहा। मोदी के निशाने पर केंद्र में सबसे अधिक समय तक शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी और तत्कालीन यूपीए गठबंधन था।

हर मोर्चे पर देश की नाकामयाबियों के लिए इसके पहले शासन करने वाली पार्टियों को जिम्मेवार ठहराया और एक नई तरह की राजनीति की शुरूआत करने की जोर-शोर से बात की। एक ऐसी राजनीति जो भ्रष्टाचार, बेईमानी, महंगाई, बेरोजगारी, दवाई-पढ़ाई, बिजली-पानी और रोजी-रोटी की समस्या का खात्मा कर देगी। सबके के लिए अच्छे दिन ला देगी और सच्चे अर्थों में देश में सुराज की स्थापना करेगी।

प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित होते ही नरेंद्र मोदी ने ‘नई सोच, नई उम्मीद’ का नारा दिया। उन्होंने यूपीए के भ्रष्टाचार और महंगाई को अपने चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा बनाया और भाजपा के सुराज और विकास के लिए जनता का समर्थन मांगा। सबके लिए अच्छे दिन को अपना मुख्य स्लोगन बनाया। बहुत हुई महंगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार।

इस देश की आबादी के करीब 65 प्रतिशत नौजवानों के लिए प्रतिवर्ष 2 करोड़ रोजगार सृजन और विकास के वादे ने नरेंद्र मोदी की ओर नौजवानों के बड़े हिस्से को अपनी ओर खींचा। अच्छे दिन और विकास में सबको अपने लिए अच्छे दिन और अपने विकास का स्वप्न दिखाई दिया। मेरी शुरू से यह राय रही है कि नरेंद्र मोदी से उम्मीद और उनकी लोकप्रियता का मूल अन्तर्वस्तु यही रहा है, हिंदू-मुसलमान, कश्मीर और पाकिस्तान ने सिर्फ फ्लेवर और उत्तेजक बनाने का काम किया था।

मोदी परिघटना की उभार की रीढ़ व्यापक भारतीयों के जीवन को प्रभावित करने वाली उनके जीवन से जुड़ी बुनियादी बातें रही हैं, जिस पर लोगों ने विश्वास किया और वोट दिया। भले ही चिंतकों- विश्लेषकों को पता रहा हो कि ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है। कार्पोरेट और आरएसएस के हाथ के कठपुतली नरेंद्र मोदी ऐसा न कुछ कर पाएंगे और न ही उनका इरादा है। मोदी का गुजरात मॉडल इसके उदाहरण के तौर मौजूद था। लेकिन यह बात जानकारों और विश्लेषकों तक सीमित थी।

व्यापक जनता को विश्वास में लेने या झांसा देने में मोदी सफल रहे थे। व्यापक जन विरोधी गुजरात मॉडल को आकर्षक माल की तरह लोगों को बेचा। हालांकि अब वे उसका भी नाम नहीं लेते हैं। लेकिन अब स्थिति बदल गई है, जनता अपने 10 सालों के कठिन अनुभव और दर्द से गुजरने के बाद यह समझ पाई की, मोदी उसकी किसी बुनियादी समस्या का समाधान नहीं कर सकते, न करने का कोई उनका इरादा है। जनता अपने अनुभव से समझती है और जब एक बार समझ लेती है तो गांठ बांध लेती है।

मेरी हमेशा से यह राय रही है कि नरेंद्र मोदी के साथ जुड़ाव और उनका वोटर बनने का बुनियादी और बड़ा आधार जीवन से जुड़ी बुनियादी समस्याओं के समाधान की उम्मीद रही है, हिंदू- मुसलमान या अन्य भावात्मक बातें भी उसके साथ जुड़ी थीं। नरेंद्र मोदी ने लोगों को जो स्वप्न दिखाया या झांसा दिया उससे लगा कि लोगों की जो बुनियादी जरूरतें आजादी के बाद नहीं पूरी हो पाईं, उसे नरेंद्र मोदी पूरी कर देंगे, उनकी जिन बुनियादी समस्याओं का समाधान नहीं हो पाया वह अब उसका नरेंद्र मोदी समाधान कर देंगे। उन्होंने बढ़-चढ़कर यह वादा भी किया था। नरेंद्र मोदी उसमें पूरी तरह नाकायाब हुए, उन्हें होना भी था।

मोदी व्यापक भारतीय जन की जीवन से जुड़ी बुनियादी जरूरतों के पूरा करने के वादे में पूरी तरह फेल हुए हैं, कठिन और कटु अनुभव से गुजरने के बाद ही सही लोगों को इसका अहसास हो गया है। यह इस तथ्य का प्रमाण है कि मोदी परिघटना की रीढ़ टूट चुकी है, उनका तिलस्म खत्म हो रहा है, उनका जादू मजमा नहीं जमा पा रहा है, उनके पास सिर्फ भावात्मक और राष्ट्रवाद की अमूर्त बातें ही बची हैं, जो एक छोटे से हिस्से को ही आकर्षित कर रही हैं और कर सकती हैं, जिनकी बुनियादी जरूरतें पूरी हैं, जो जीवन के किसी बुनियादी संकट से नहीं गुजर रहे हैं या उन अमीरों और बिलेनियर लोगों को जो मोदी के कार्यकाल में मालामाल हुए हैं। बिहार- झारखंड में साफ-साफ दिखा कि इस बार सिर्फ मोदी के नाम पर किसी का जीतना बहुत मुश्किल है, प्रत्याशी और स्थानीय मुद्दे प्रभावी दिख रहे हैं।

हो सकता है कि सरकारी मशीनरी के दुरूपयोग और अकूत धन का इस्तेमाल करके मोदी जैसे-तैसे जोड़-तोड़ करके इस बार भी भाजपा के अल्पमत की सरकार बनाने में सफल हो जाएं, लेकिन वह सरकार लोकप्रिय मत पर टिकी नहीं होगी, वह जोड़-तोड़ की सरकार ही होगी। यह स्थिति लोगों के आक्रोश को और बढ़ायेगी। इस स्थिति में मोदी सिर्फ लोकतंत्र और संविधान को कुचल करके ही खुद को ‘बादशाह’ बनाए रख सकते हैं। लेकिन यह सब इतना आसान नहीं होगा, न ही लोगों के मूड को देखकर लगता है कि लोग इसे बर्दाश्त कर लेंगे।

(डॉ. सिद्धार्थ लेखक और स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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