अखिलेश यादव के खिलखिलाते चेहरे के पीछे का राज क्या है?

Estimated read time 2 min read

2024 के लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद जिस व्यक्ति का चेहरा सबसे अधिक दमक रहा है, जिसका चेहरा सबसे अधिक खिला हुआ लग रहा है, वह अखिलेश यादव हैं। संसद सत्र के पहले दिन लोकसभा स्पीकर के चुनाव के बाद बोलते हुए उनका आत्मविश्वास, उनकी खुशी और उनका उमंग देखते बन रहा था। अखिलेश के पास इस खिलखिलाने-मुस्कराने की कई वजहें हैं-

1-पहली बात तो यूपी में भाजपा को 33 सीटों पर समेट कर उन्होंने मोदी-योगी के बढ़ते अहंकार को न केवल तोड़ा, बल्कि दोनों के कद को काफी छोटा कर दिया। खुद को महामानव ही नहीं, ईश्वर के समतुल्य घोषित कर चुके मोदी को यह अहसास दिलाया कि आप साधारण इंसान ही हैं, इससे ज्यादा कुछ नहीं। आप अपराजेय नहीं हैं, आप को न केवल हराया जा सकता है, बल्कि आपको बुरी तरह हराया जा सकता है और वह भी वहां, जहां से हारने के बारे में आप कल्पना भी नहीं कर रहे थे। 

2-  अखिलेश यादव ने एक ही दांव में कम से कम यूपी में न केवल वर्तमान अजेय प्रधानमंत्री को चित्त कर दिया, इसके साथ ही खुद को भावी प्रधानमंत्री मान चुके योगी आदित्यनाथ को भी चित्त कर दिया। ऐसा दांव मारा की अखाड़े में चित्त होने के बाद ही दोनों को समझ में आया कि वे तो पटके जा चुके हैं।

3-यदि किसी एक व्यक्ति का इस देश के संविधान और लोकतंत्र का बचाने में सबसे बड़ा राजनीतिक योगदान है, वह अखिलेश यादव हैं। इसका अहसास उन्हें होगा।

4- अयोध्या में भाजपा को हराने की जो रणनीति-कार्यनीति अखिलेश यादव ने रची और उसे जिस तरह अंजाम दिया, वह एक प्रतीक बन गया है। जिसकी चर्चा देश में ही नहीं पूरी दुनिया में हो रही है। इसे हिंदुत्व की राजनीति के लिए सबसे बड़े धक्के के रूप में देखा जा रहा है।

5- 2017 में मुख्यमंत्री बनने के बाद जिस तरह व्यक्तिगत तौर पर उन्हें और उनके वर्ण-जाति को लेकर योगी आदित्यनाथ ने बार-बार अपमानित और लांक्षित किया, वह सबको पता है। तय है कि इस अपमान और लांक्षना ने उन्हें गहरे स्तर तक आहत किया होगा। इसका राजनीतिक तौर पर जवाब देकर, कम से कम यूपी में एक स्तर पर अजय सिंह बिष्ट को धूल चटाकर उन्होंने अपने अपमानों का बदला ले लिया। मैं जानबूझकर बदला शब्द इस्तेमाल कर रहा हूं। हालांकि मैंने अखिलेश यादव को बदले की भावना से ग्रस्त व्यक्ति के रूप में कभी नहीं देखा।

6- मोदी-योगी को यूपी में चारों खाने चित्त करने के साथ पहली बार अखिलेश यादव ने यह साबित किया कि वे सिर्फ पिता ( मुलायम सिंह) द्वारा बनाई उर्वर जमीन की फसल नहीं काट रहे हैं, वे नई राजनीतिक जमीन बना सकते हैं, राजनीति की नई फसल उगा सकते हैं और उसे काट सकते हैं। पहली बार 2012 में  उनके मुख्यमंत्री बनने को एक बेटे के मुख्यमंत्री बनने के रूप में देखा गया था, काफी हद तक सच भी था। उसके बाद उनके नेतृत्व में तीन बार (2017, 2019 और 2022) अंतिम तौर पर पराजय मिली। इस बार की उनकी सफलता ने उन्हें खुद की जमीन बनाने वाले एक परिपक्व नेता के रूप में खड़ा कर दिया है।

7- सपा के भीतर उनके नेतृत्व को लेकर कई तरह से चुनौतियां मिलती रहीं हैं। कहा जाता रहा है कि मुलायम सिंह के असली राजनीतिक वारिस तो शिवपाल यादव हैं, धर्मेंद्र यादव उनसे ज्यादा बेहतर नेता हैं। खुद उनके भाई की पत्नी ने उनका न केवल साथ छोड़ा बल्कि उन्हें व्यक्तिगत तौर पर अपमानित करने वाली पार्टी में चली गईं, चुनाव लड़ीं। लगने लगा था कि सपा बिखर जाएगी। अखिलेश यादव ने तमाम उतार-चढ़ावों और आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच गिरते-पड़ते और अपने अनुभवों से सीखते हुए सपा में अपना करीब-करीब वैसा कद स्थापित कर लिया, जैसा कभी मुलायम सिंह यादव का था। अन चैलेंज्ड लीड़र।

8- यूपी में भाजपा विरोधी राजनीति के दलित-बहुजनों के बीच दो मजबूत ध्रुव थे-सपा और बसपा। कांग्रेस एक बहुत छोटी ताकत के रूप में यूपी में सिमट चुकी थी और सांगठनिक तौर पर छोटी ताकत आज भी है। भाजपा को हराने की सिर्फ दो शर्त थी। पहली सपा-बसपा का गठजोड़, दूसरी दोनों में किसी एक पार्टी का ऐसा विस्तार कि वह दावा कर सके कि वही भाजपा को टक्कर दे सकती है।

सपा-बसपा का गठजोड़ तो इस बार हो नहीं पाया, लेकिन अखिलेश ने बसपा के आधार को मुख्य रूप से जाटवों तक सीमित कर दिया। न केवल पिछड़े, बल्कि दलितों के वोट के बड़े हिस्से को अपने साथ कर लिया। खुद को दलित-पिछड़े के बीच भाजपा को हराने की क्षमता रखने वाली एकमात्र पार्टी के रूप में स्थापित कर लिया। यूपी में करीब 20 मुस्लिम उम्मीदवारों को खड़ा करने के बाद भी मुसलमानों का बसपा को वोट न मिलना, रही-सही कसर पूरा कर दिया। 

इस तरह अखिलेश ने भाजपा को हराने के साथ ही अपने एक परंपरागत राजनीतिक विरोधी को करीब-करीब निपटा सा दिया। भले ही उन्होंने यह काम हमलावर तरीके से नहीं, बसपा को निशाना बनाकर नहीं, उस पर हमला बोल कर नहीं किया। लेकिन फिलहाल निपटा तो दिया ही। इसमें मायावती ने खुद ही कितना बड़ा योगदान दिया, यह अलग विश्लेषण का विषय है। इसके साथ यूपी में अखिलेश और कांग्रेस के बीच के रिश्ते भी तय से हो गए। अखिलेश को कांग्रेस का सहयोग चाहिए, यह ठीक है, लेकिन कांग्रेस को अखिलेश की यूपी में ज्यादा जरूरत है। यूपी में बिग ब्रदर अखिलेश हैं, यह तय हो गया।

9- अखिलेश यादव ने सपा यादवों और मुस्लिमों की पार्टी है। इस ठप्पे से सपा को मुक्त कर  दिया। इस प्रक्रिया में उन्होंने पिछड़ों, अति पिछड़ों और दलितों के बड़े हिस्से को टिकट देकर और इन समुदायों का वोट हासिल कर सपा को बहुजनों की एकमात्र पार्टी के रूप में स्थापित कर दिया। इसी प्रक्रिया में गैर-यादव पिछड़ों और गैर-यादव दलितों को अपने साथ करके चुनाव जीतने की भाजपा की रणनीति-कार्यनीति को असफल कर दिया। कमंडल की राजनीति को मंडल की राजनीति के दांव से चित्त कर दिया।

10- अखिलेश यादव ने यूपी में जाति विशेष की खुलेआम राजनीति करने वाले दलों और उनके नेताओं की रीढ़ भी तोड़ दी। संजय निषाद की निषाद पार्टी और ओमप्रकाश राजभर की सुहेल देव भारतीय समाज पार्टी के प्रत्याशियों की पूरी तरह पराजय इसका सबूत है। अनुप्रिया पटेल भले ही चुनाव जीत गईं, लेकिन कुर्मियों की पार्टी के रूप में उनकी पहचान खत्म हो गई। कुर्मियों के बड़े हिस्से ने सपा को वोट दिया। सपा के 10 कुर्मी उम्मीदवारों में 7 विजयी रहे।

यही काम बिहार में तेजस्वी नहीं कर पाए। वहां जातिवादी पार्टियां और उनके नेता अपनी जातियों का वोट पाने में सफल रहे। तेजस्वी चिराग पासवान और जीतनराम मांझी जैसे नेताओं के जाति आधारित वोट बैंक को तोड़ नहीं पाए। अखिलेश की तुलना में उनकी राजनीति असफलता की यह सबसे बड़ी वजह रही।

11-अखिलेश यादव ने यूपी में इंडिया गठबंधन के अपने मुख्य पार्टनर कांग्रेस के साथ बेहतरीन तालमेल बनाने और राहुल गांधी के मुख्य जोड़ीदार के रूप में खुद को प्रस्तुत करने में सफल रहे। राहुल गांधी ने अपनी छवि, वैचारिकी और एजेंडा से अखिलेश को मजबूत बनाया और अखिलेश ने अपने वोट और सांगठनिक आधार से राहुल गांधी (कांग्रेस) को सफलता दिलाई। दोनों ने एक दूसरे की ताकत को अपनी ताकत बनाया और अपनी-अपनी कमजोरियों को एक दूसरे से भरा।

इतनी सफलताएं किसी भी नेता के खिलखिलाने और उसके दमकने के लिए पर्याप्त हैं। अखिलेश यादव की खिलखिलाहट की यही मुख्य वजहें हैं। उन्हें खिले हुए फूल सा देखकर हर जनपक्षधर व्यक्ति को अच्छा लगा होगा। मुझे भी अच्छा लगा। कमियों-कमजोरियों और सीमाओं पर चर्चा होती रही है, होती रहेगी।

(डॉ. सिद्धार्थ लेखक और पत्रकार हैं।)

You May Also Like

More From Author

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments