मध्यप्रदेश : कांग्रेस हारी नहीं, कांग्रेस तो लड़ी ही नहीं

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4 जून को 18 वीं लोकसभा चुनाव के नतीजों के आने के बाद, इधर के हों या उधर के, सभी की जुबान पर एक ही सवाल है कि अरे, ये मध्यप्रदेश में क्या हो गया ? सवाल स्वाभाविक है,  कुछ छोटे राज्यों को छोड़कर देश में मध्यप्रदेश एकमात्र बड़ा राज्य है जहां की सारी की सारी सीटें भाजपा ने जीत लीं। यह तब हुआ जब पूरे देश में भाजपा की सीटें घटी हैं। उत्तरप्रदेश में तो आधी से कहीं ज्यादा कम हो गयीं, महाराष्ट्र में मुंह की खाई, कर्नाटक में अनेक सीटें गंवाई, बंगाल में खूब गिरावट आयी,  बिहार में भी घाटा हुआ, यहां तक कि खुद मोदी शाह के गुजरात में जहां सूरत की सीट ‘निर्विरोध जीत ली गयी’ थी, उस गुजरात में भी भाजपा सभी की सभी सीट्स नहीं जीत पायी। फिर मध्यप्रदेश में क्या हुआ? लोग पूछते हैं कि मप्र में कांग्रेस क्यों हारी? असल में तो यह सवाल ही गलत है; हार-जीत उसकी होती है जो लड़ता है, मध्यप्रदेश में कांग्रेस हारी नहीं है, यहां पर में कांग्रेस चुनाव लड़ी ही नहीं है।

इतनी नेतृत्वविहीन कोई भी पार्टी शायद ही कभी रही हो जितनी इस चुनाव में मध्यप्रदेश की कांग्रेस थी। कोई दसेक दिन तक भाजपा के दरवाजे पर खड़े होकर, मनपसंद सौदेबाजी न होने पर लौट के वापस घर को आये पूर्व मुख्यमंत्री, हाल तक इसके प्रदेशाध्यक्ष रहे कमलनाथ अपनी जो भी थोड़ी बहुत बची हुई रही होगी उस साख को गंवा चुके थे। वे इतने हास्यास्पद और अविश्वसनीय हो गए थे कि छिंदवाड़ा तक ने दरवाजा दिखा दिया। उनके वारिस नकुल नाथ अपने ट्विटर के परिचय में से कांग्रेस पहले ही निकाल चुके थे, इस बार छिंदवाड़ा ने उनके बायो में से सांसद हटा दिया। अपनी अकर्मण्यता का नमूना वे अपने 16 महीने के मुख्यमंत्री काल में दे ही चुके थे। इस दौरान उन्होंने उस भाजपाई भ्रष्टाचार के खिलाफ कलम तक नहीं उठाई थी, जिस भ्रष्टाचार की वजह से शिवराज सरकार गयी थी और वे सरकार में आये थे।

दूसरे बड़े नेता  दिग्विजय सिंह खुद चुनाव लड़ रहे थे और अपनी ही सीट में उलझे थे। इन दोनों की कांग्रेस के जितने भी खासमखास थे वे गणेश परिक्रमा करने के लिए अपने इलाकों को सूना छोड़कर इनकी सीटों पर हाजिर थे। अब बचे जुम्मा- जुम्मा चार रोज पहले नियुक्त किये गए नए ‘युवा’ अध्यक्ष जी, वे इतने ताजे थे कि उन्हें इंदौर के बाहर भी कोई मध्यप्रदेश है यही समझने के लिए जो कम से कम समय चाहिए था, वह भी नहीं मिल पाया था। विजयराघवगढ़ और विजयपुर, शिवपुरी और श्योपुर, गोपद बनास और गोहद उनके लिए नाम तक नए थे, उनके मार्ग और उनमे बसने वाले कांग्रेस कार्यकर्ताओं के धाम जानने की तो बात ही अलग है।

इन तीनों को घटा देने के बाद अब बाकी बचे वे शेष जिन्हें पंजे की टिकट पकड़ाकर मैदान में उतार दिया गया था। एक दो अपवादों को छोड़कर बाकी सब बेचारे टिकटधारी जितने बुझे मन और लिजलिजे आत्मविश्वास के साथ चुनाव लड़ रहे थे, उससे कहीं ज्यादा संकल्पबद्धता, तन-मन यहां तक कि धन के साथ उनके क्षेत्र के कांग्रेसी लगे थे; उन्हें जिताने के लिए नहीं, उनकी यानि अपनी ही पार्टी के प्रत्याशियों की हार पक्की करने के लिए जी जान से काम कर रहे थे। इतनी भीषण गर्मी में भी वे इतने प्राणपण से जुटे थे, इतनी उदारता से खर्च कर रहे थे कि उनकी धुन और लगन को देख जीतने वाली पार्टी के कार्यकर्ता भी शर्मसार हो जाते थे। यह तब था जब सामने शकुनि अपने पांसे लिए बैठा था, कंस इस बार पूरी तैयारी में था और रावण रथी विरथ रघुवीरा की चौपाई का अखंड पाठ चहुंओर गुंजायमान था।

एक तबके को यह भ्रम था कि इनके भीतरघात से होने वाले नुकसान की पूर्ति सामने वाली पार्टी में मची रार और असंतोष से हो जायेगी। ऐसा सोचने वाले भूल गए कि सामने वाली पार्टी के संतुष्ट असंतुष्ट दोनों ही सत्ता की मलाई के अभिषेक और चाशनी से परमतुष्ट हैं, वे उसमें खलल डालने की हद तक नहीं जायेंगे।

रही सही कसर भाजपा के ‘ऑपरेशन हाथ – कमल का साथ’ ने पूरी कर दी। हड़प्पाकालीन कांग्रेसियों से लेकर कभी कांग्रेस में नहीं रहे कांग्रेसियों तक के इस्तीफे दिलाने और उन्हें हस्तगत कर कमलबद्ध करने की मोदी शाह की राष्ट्रीय परियोजना मध्यप्रदेश में कुछ ज्यादा ही सघनता के साथ चली। यहां भाजपा ने बाकायदा एक प्रकोष्ठ बनाकर पुलिस, आई बी, रेवेन्यू जैसे महकमों के अफसरों को उनके हवाले कर दिया। आई टी, ई डी, सीबीआई पहले से ही थी। फाइलें ढूंढी, तलाशी गयी, उनकी गुलेल बनाकर कुछ पके, कुछ अधपके, कुछ निढाल, कुछ थके आम टपका कर उन्हें मीडिया में कलमी और दशहरी आम बताकर मशहूर किया गया। इसी के साथ पहले खजुराहो किया गया, उसके बाद इंदौर किया।

यह एक मनोवैज्ञानिक युद्ध था। कतारों में निराशा और मतदाताओं में ‘खाओ तो कद्दू न खाओ तो कद्दू’ की निर्विकल्पता का माहौल बनाना मुख्य मकसद था जो पूरा भी हुआ। कोई भी पार्टी इसका मुकाबला थोड़ी सी आक्रामकता बढ़ाकर, सत्ता के इस घोर असंवैधानिक दुरुपयोग के खिलाफ हल्ला मचाकर और इसके खिलाफ सड़कों पर आकर कर सकती थी। मगर सड़कों पर आना तो यह पार्टी कब की भूल चुकी है, पिछली 20 सालों में कभी नहीं आयी। व्यापम हुआ, नहीं आई। मंदसौर हुआ, राहुल गांधी वहां पहुंच गए मगर बाकी मध्यप्रदेश में किसी कांग्रेसी के कुर्ते पाजामे की कड़क क्रीज तक नहीं टूटी। महंगाई, मंडियों में लूट, भ्रष्टाचार, जनता में हाहाकार होता रहा किंतु कांग्रेसियों की नींद नहीं टूटी। चलिए, इन सब पर नहीं टूटी कम से कम खुद की पार्टी के टूटने बिखरने पर टूटनी चाहिए थी, मगर टूटे तो तब, जब पार्टी का कोई ढांचा, कोई संगठन बचा हो। किसी तरह की सामूहिकता, समन्वय और नए सुझावों को सुनने का धैर्य-धीरज बचा हो ।  

कहने की जरूरत नहीं किंतु कहना जरूरी है कि चुनाव एक राजनीतिक कार्यवाही होती है और राजनीति का एक वैचारिक आधार होता है। राष्ट्रीय मुद्दों पर एक नजरिया होता है, स्थानीय समस्याओं के बारे में समझदारी होती है और उनके हल, निराकरण के लिए लड़ने, जूझने वाले अवाम के साथ मैदानी साझेदारी होती है। मध्यप्रदेश की कांग्रेस इन सबसे अलग थी, अलग मतलब निस्पृह या स्थितप्रज्ञ नहीं, पूरी तरह भ्रमित और अपने ही सरोकारों से विलग, वह कांग्रेस थी भी, नहीं भी थी। इसका एक हिस्सा और नेताओं का ज्यादातर हिस्सा राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के भाजपाई आयोजन, जिसे बाद में अयोध्या तक की जनता ने ठुकरा दिया, के प्रति अपने राष्ट्रीय नेतृत्व द्वारा अपनाए गए रुख से ही सहमत नहीं था।

राहुल गांधी और दिग्विजय सिंह के साम्प्रदायिकता विरोधी बयान भाजपाइयों से ज्यादा इन कांग्रेसियों को नागवार गुजरा करते थे। जिन्हें कार्यकर्ताओं के दिमागों में भरे गए इस कुहासे को दूर करना था वे नेता खुद इस तरह के मुद्दों से दूरी बनाकर झेंपे- झेंपे घूमते पाए जाते थे। व्यक्तिगत बातचीत में अपनी दुर्गति के लिए राहुल और दिग्विजय को कोसते थे। उधर उनका राष्ट्रीय नेतृत्व अडानी अम्बानी की लूट और चोरी को मुद्दा बनाए हुए था, इधर स्वयं को अंबानी का सगा दोस्त बताने वाले कमलनाथ अडानी से नजदीकियां बनाने में मशगूल थे। नेतृत्व के अलग-अलग स्तर पर कुरते-पजामे के नीचे खाकी नेकर धारण करने वालों की मध्यप्रदेश कांग्रेस में कोई कमी नहीं है, कहावत में कहें तो स्थिति ‘बुआ पहले से ही रुआंसी बैठी थी। ऊपर से भैया आ गया’ जैसी थी।

इतने सबके बावजूद पूरे देश में जो भाजपा विरोधी माहौल था उसे प्रदेश में भी उभारा जा सकता। अनेक दलों के समन्वय इंडिया ब्लॉक की एकता से अवाम के बड़े हिस्से में आश्वस्ति पैदा हुयी थी। डर टूटा था। यही प्रयोग मध्यप्रदेश में भी किया जा सकता था। ऊपर से मल्लिकार्जुन खड़गे और प्रदेश से भी एक दो नेताओं के कहने सुझाने और भोपाल के बौद्धिक जगत द्वारा बार-बार टोके जाने के बाद भी इंडिया ब्लॉक की मीटिंग तक नहीं हुयी। सीटों के तालमेल के बारे में तो सोचा तक नहीं गया।

समाजवादी पार्टी जिसके खिलाफ कमलनाथ निहायत ही अभद्र भाषा का इस्तेमाल कर चुके थे, के लिए खजुराहो की सीट भी राष्ट्रीय स्तर पर बनी सहमति और समझदारी के आधार पर छोड़ी गयी थी। यह बात अलग है कि भाजपा ने उसे मैनेज कर लिया । चुनाव शुरू हो जाने के बाद कहीं जाकर, सो भी इंडिया समूह की जो पार्टियां स्वयं चुनाव नहीं लड़ रही थीं, उनके द्वारा दबाव बनाए जाने के बाद एक साझी बैठक हुई। मगर उसमें भी जो तय हुआ था उसे एक प्रेस कांफ्रेंस के बाद शाम होने से पहले ही भुला दिया गया।

दिग्भ्रमित कांग्रेस यह ज़रा सी बात नहीं समझ पाई कि अलग-अलग रहने पर जो पार्टियां छोटी या बहुत छोटी नजर आती हैं, जब वे इकट्ठा होती हैं तो उनकी प्रभावशीलता चमत्कारिक रूप से बढ़ जाती है। इस नासमझी का नतीजा यह हुआ कि जिन दलों और उनके इमानदार छवि और साख वाले नेताओं से जो मदद ली जा सकती थी, कुछ काम लिया जा सकता था वह भी नहीं लिया गया। जो पार्टी खुद अपने कार्यकर्ताओं और नेताओं को काम नहीं दे पा रही थी वह भला दूसरों को क्या बताती। इस तरह पूरे मनोयोग के साथ कांग्रेस ने मैदान छोड़ने का संकल्प लिया और पूरे चुनाव में, पूरी निष्ठा के साथ उसका निबाह किया।

इन पंक्तियों के लेखक से एक बार कांग्रेस के एक काफी वरिष्ठ नेता ने कहा था कि “हमे, कांग्रेस को, विरोधियों की दरकार नहीं है, खुद को हराने का काम हम खुद ही पूरी शिद्दत और मनोयोग से कर सकते हैं। “मध्यप्रदेश में यही हुआ; एक अच्छे मेजबान की तरह कांग्रेस ने खुद ही सारी सीटों को थाली पर परोस कर भाजपा को दे दिया।

 (बादल सरोज लोकजतन के संपादक हैं।)

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