मोदी 3.0 सरकार: अंतर्विरोधों में ही उलझे रहने को अभिशप्त

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अब जब कि शपथग्रहण समारोह संपन्न हो चुका है, और नयी सरकार ने कमान संभाल लिया है। मंत्रियों और उनके विभागों का बंटवारा भी लगभग कर दिया गया है। टेक्निकली इसे आप मोदी 3.0 सरकार न कहें पर एनडीए सरकार तो बन गई है। इतना ज़रूर है कि यह सरकार इस बार अनेक अंदरुनी संकटों से घिरी हुई है, बहुतेरे अंतर्विरोधों से भरी हुई है। इन अंतर्विरोधों और संकटों के रहते यह सरकार कब तक चल पाएगी, नहीं कहा जा सकता, पर एक बात तो तय है कि इस सरकार का ज्यादा समय अपने अंदरूनी संकटों और अंतर्विरोधों से निपटने में जाया होने वाला है, यानि आने वाले समय में देश को चलाना, आगे ले जाना नहीं, अपनी सरकार को बचाना ही, इस गठबंधन का केंद्रीय कार्यभार बना रहेगा।

जनादेश क्या कहता है

यह सरकार और खासकर भाजपा, इस बार जनादेश हासिल करने से वंचित रह गई, यह हार न केवल भाजपा की हार है, बल्कि उससे भी ज्यादा प्रधानमंत्री मोदी की निजी हार है। मोदी की गारंटी को जनता ने क़ुबूल नही किया,और लगभग सभी मानते हैं कि मोदी जी की साख को बड़ा धक्का लगा है। पर इतिहास में कई बार ऐसा ऐसा होता रहा है जब, जनादेश न होते हुए भी टेक्निकली सरकार बन जाती है, इस बार यही हुआ है, जनादेश विदाई का होते हुए भी यह सरकार तो बन गई है। पर हां! इस सरकार का जनता के बीच इकबाल कितना बना रहेगा, इस पर तमाम विश्लेषक शंकाएं व्यक्त कर रहे हैं।

इस बात से भी, कोई इंकार नही कर सकता है कि 400 पार फिर 370 फिर 300 पार की बात करते-करते 272 के भी नीचे चले आने के चलते, नैतिक प्राधिकार भी एक हद तक, इस सरकार ने गंवा दिया है। ऐसे में आप इस नयी सरकार को एक ऐसी सरकार के रूप में देख सकते हैं, जिसे शासन करने की, नैतिकता संपूर्णता में हासिल नही है और भारतीय जनता पर सांविधानिक सत्ता को लागू करने का इकबाल भी इस सत्ता के पास, नही के बराबर है। किसी भी लोकतांत्रिक गणतंत्र में, सरकार के खाते में, इन दोनों ही महत्वपूर्ण तत्वों का ना होना, बेहद ही चिंताजनक बात है,जिस बात की बस, ऐसे ही उपेक्षा नहीं की जा सकती है, क्यों कि इकबाल और नैतिक प्राधिकार के न होने से जनता का भरोसा और सरकार की स्थिरता, दोनों पर ही बराबर संकट बना रहता है।

मोदी की कार्यशैली और गठबंधन की राजनीति

ये जरूर है कि फिर से भारत में, गठबंधन सरकारों का दौर लौट आया है। भारतीय मतदाताओं ने मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को 272 का जादुई आंकड़ा पार करने नही दिया है, भाजपा 240 सीटों तक ही सिमट गई है। इसका एक मतलब ये है कि मोदी ज़ी को इस बार आंशिक प्रधानमंत्री के बतौर ही काम करना पड़ेगा,यानि मंत्रियों और उनके मंत्रालयों का चयन और कई नीतिगत फैसलों में, सहयोगी पार्टियों का दख़ल बराबर बना रहेगा.इस पहलू को भी समझना है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली यह सरकार, पिछली गठबंधन सरकारों की तरह बिल्कुल ही नही होगी, अटल बिहारी वाजपेयी या मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकारों से अलग, इस सरकार की पहचान पहले दिन से ही अपने सहयोगी पार्टियों को अप्रासंगिक बनाने, तोड़ डालने की बनी हुई है। यह अनायास नही है कि टीडीपी नेता चंद्रबाबू नायडू, अपने खाते में स्पीकर का पोस्ट चाहते हैं, ताकि तोड़-फोड़ के दौर में अपनी पार्टी को बचाया जा सके।

एनडीए गठबंधन में भाजपा की ज्यादातर सहयोगी पार्टियां अपना सांगठनिक वजूद,लगभग खो चुकी है, एलजीपी हो, अपना दल हो, हम हो या आरएलडी हो, या कुछ अन्य में भी अब, अलग पार्टी दिखने की आकांक्षा और क्षमता भी लगभग खत्म हो चुकी है, इन्हें अब मोदी मार्का गठबंधन के राजनीति के अनुरूप ढाल लिया गया है। पर अभी जेडीयू और टीडीपी के साथ ऐसा नही है, अपनी पार्टी को बचाए रखना, उनके लिए प्राथमिक कार्यभार,आगे भी बने रहना है। इसीलिए ये दोनों पार्टियां फूंक-फूंककर कदम बढ़ा रही है, भाजपा से अलग,अपने मुद्दों को मीडिया के जरिए मंत्रीमंडल गठन से पहले ही उठा देना भी इसी असुरक्षा बोध और सतर्कता के चलते हैं।

मोदी मार्का राजनीति का एक और पहलू,सहयोगियों को सहज नही रहने दे रहा है। नरेंद्र मोदी ने अपने राजनीतिक जीवन में कभी भी अल्पमत की सरकार नही चलाई है,पहले मुख्यमंत्री और फिर बाद में प्रधानमंत्री रहते हुए मोदी को, सहयोगी पार्टियों पर इस तरह से निर्भर, कभी भी नही रहना पड़ा, ऐसे में नरेंद्र मोदी की पहली प्राथमिकता भाजपा सांसदों की संख्या को 272 के पार ले जाना होगा, और सहयोगी पार्टियों की प्राथमिकता होगी अपनी पार्टी को बचाए रखना, इन्हीं अंतर्विरोधी स्थितियों में यह सरकार,चलने के लिए बाध्य होगी।

इसी तरह, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब यह कहते हैं कि एनडीए,एक स्वाभाविक गठबंधन है, इनके आपस के रिश्ते का आधार नीतिगत एकता है, आर्गेनिक सहजता है.तो यह उन छोटे-छोटे सहयोगियों पर तो लागू होता है, जो लंबे समय से भाजपा के साथ रहते हुए अनुकूलित कर लिए गए हैं, जिन्हें अब अपनी पार्टी की चिंता कम है,और थोड़ी बहुत भिन्नता रखते हुए, सत्ता में बने रहना ही प्राथमिकता है।

पर यही बात फिर एक बार,टीडीपी और जदयू पर लागू नही होती, जिनके ऊपर इस सरकार का सारा दारोमदार टिका हुआ है। पूरे चुनाव में मोदी ज़ी मुसलमान समाज को टारगेट करते रहे, उन्हें घुसपैठिया, ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले, हिंदुओं का धन लूटने वाले और दलितों पिछड़ों का आरक्षण हड़पने वाले बताते रहे, और इधर टीडीपी मुसलमानों को अलग से आरक्षण देने और मदरसो को सुरक्षा फंड मुहैया कराने की बात कर रही है, फिर दोनों की दिशा में रत्ती भर भी एकता कहां है।

उसी तरह नीतीश कुमार जाति जनगणना के पक्ष में हैं और राज्य के लिए विशेष पैकेज चाहते है, भाजपा इन दोनों ही मुद्दों को नकारती रही है, यहां पर भी दूर-दूर तक कहां है, एकता का कोई बिंदु,यानि जिन मुख्य दलों पर निर्भर है यह सरकार,उन्ही के साथ अंतर्विरोधों की भरमार है, आने वाले समय में इन संकटों का सामना यह सरकार कैसे कर पाती है,यह देखना अभी बाकी है।

नयी परिस्थिति में संघ-भाजपा और मोदी

इस बार संघ-भाजपा के अंदर के अंतर्विरोधों को भी पहले कहीं ज्यादा,मैनेज करना पड़ेगा,कमजोर जनमत के चलते, मोदी के लिए एकछत्र संचालन यहां भी मुश्किल होता जाएगा। कैबिनेट मंत्रियों के सपथ ग्रहण के क्रम को अगर ध्यान से देखें तो आप को पता चलेगा कि मोदी सरकार की वास्तविक चिंता क्या है। उत्तर प्रदेश में भाजपा को मिले जोर के झटके को, मोदी सरकार को गंभीरता से लेना पड़ा है, शपथ ग्रहण समारोह के दौरान आप देखेंगे कि अमित शाह को पीछे कर,अप्रत्याशित रूप से राजनाथ सिंह को ज्यादा महत्व देना पड़ा है ,आम समय होता तो राजनाथ सिंह को परामर्श मंडल में ढकेल दिया जाता। इस बार, पर ऐसा नही हुआ, फिर से वो बेहद प्रासंगिक होकर उभरे हैं। इसका मतलब ये भी है कि भविष्य में भी योगी आदित्यनाथ निशाने पर बने रहेंगे। यानि आने वाले समय में योगी ज़ी ख़तरे से बाहर नही हैं,यह उत्तर प्रदेश में मिले भारी झटके का परिणाम है, कि लंबे समय बाद, राजनाथ सिंह, खत्म होते-होते अचानक, हाशिए से केंद्र में आ गए हैं।

भाजपा के अंदर मोदी के मुखर आलोचक माने जाते रहे नितिन गडकरी भी, अचानक से इस नयी-नवेली मोदी सरकार के लिए बेहद प्रासंगिक हो गए हैं। इनके बारे में भी ज्यादातर विश्लेषकों का मानना था कि जल्दी ही इनकी भी विदाई हो सकती है। पर महाराष्ट्र में भाजपा को मिले झटके ने बात बदल दी है। और जल्दी ही वहां होने वाले विधानसभा चुनाव में हार के आसन्न ख़तरे ने, और फिर उसका,केंद्र सरकार पर पड़ने वाले गहरे असर की संभावना के चलते, नरेंद्र मोदी को पुनर्विचार के लिए मजबूर होना पड़ा है।

महाराष्ट्र में भयंकर तोड़-फोड़ ने ब्रांड मोदी बहुत चोट पहुंचाया है, और नितिन गडकरी की क्रेडिबिलिटी ने उन्हें फिर बेहद प्रासंगिक बना दिया है। हरियाणा ने भी भाजपा को संकट में डाला है, मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री पद से हटा कर हरियाणा को मैनेज करने की कोशिश की गई थी, पर ऐसा बिल्कुल नही हुआ। अब जबकि हरियाणा में बड़ा नुक़सान हो चुका है, और जल्दी ही वहां भी चुनाव है, नतीजन फिर से मनोहर लाल खट्टर को लाना पड़ा है। केंद्र में मंत्री बनाना पड़ा है।

उसी तरह शिवराज सिंह चौहान को बहुत देर तक पीछे रख पाना या रिटायर्ड कर देना ,बार-बार मुश्किल साबित हुआ है।विधानसभा चुनाव के बाद अब लोकसभा में अपने ताकतवर प्रदर्शन के जरिए शिवराज सिंह चौहान ने जबरदस्त वापसी की है। नतीजन उन्हें भी मोदी-3 मंत्रिमंडल में महत्वपूर्ण जगह देनी पड़ी है। मोदी काल में संघ और भाजपा के बीच की संवादहीनता भी बहुत बढ़ गई है, लंबे समय से मोदी और मोहन भागवत के बीच भी संवाद, लगभग बंद है, बीच चुनाव में भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने सबको चौंकाते हुए, भाजपा और संघ को अलग-अलग बता दिया और संघ पर निर्भरता से इंकार कर दिया।

इस चुनाव में कई विश्लेषकों ने संघ की निष्क्रियता को जगह-जगह नोट भी किया,और अब नरेंद्र मोदी के शपथग्रहण समारोह के ठीक बाद, मोहन भागवत ने मणिपुर का मसला उठा कर और विपक्ष कोई दुश्मन नही है, प्रतिपक्ष है, ऐसा कह कर साफ़ कर दिया है कि संघ और भाजपा के बीच शक्ति संतुलन में भी बदलाव आ गया है, यानि इस मोर्चे पर भी मोदी 3.0 को आने वाले समय में मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा।

अब इतनी बात तो साफ़ हो गई है कि इन बहुतेरे विरोधी तत्वों-ताकतों के साथ काम करते हुए इस सरकार को, हिंदुत्व के कोर मुद्दों को आगे बढ़ा पाना, मुश्किल होने जा रहा है,यानि आने वाले समय में, बढ़ते आर्थिक-सामाजिक संकटों और उसके खिलाफ जनता में बढ़ रहे गुस्से को, भटकाने वाली राजनीति और भोथरी होती जाएगी, और अंततः जनता का ग़ुस्सा व जन आंदोलन की ताक़ते ही इस सत्ता के अनगिनत अंतर्विरोधों को अपने अंतिम परिणति तक पहुंचाएंगी।

(मनीष शर्मा राजनीतिक कार्यकर्ता और कम्युनिस्ट फ्रंट के संयोजक हैं)

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