महाराष्ट्र में भाजपा की करारी हार के बाद से मचा है हाहाकार, NDA के घटक बढ़ा रहे सरकार की मुश्किल

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शुक्रवार को एक बार फिर से कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने मोदी के नेतृत्व में गठित एनडीए सरकार को अल्पमत सरकार करार देकर भाजपा समर्थकों और गोदी मीडिया की मुश्किलों को बढ़ा दिया है। इंडिया गठबंधन का यह आत्मविश्वास कोई हवाबाजी नहीं है, क्योंकि ऐसे तमाम संकेत एक के बाद एक लगातार आ रहे हैं, जो इशारा कर रहे हैं कि मोदी सरकार का तीसरा कार्यकाल, जो कि अभी शुरू भी नहीं हो पाया है को संभालने के बजाय तमाम प्रेशर ग्रुप रस्सी को अपनी-अपनी ओर खींचने में लगे हुए हैं। नरेंद्र मोदी भले ही पश्चिमी देशों के जी-7 ग्रुप की बैठक में आमंत्रण का लाभ उठाकर देश के समाचार पत्रों में सुर्खियां बटोर रहे हों, भारतीय राजनीति का धरातल उनके लिए उत्तर भारत के तापमान की तरह बेहद गर्म साबित हो रहा है, जिसे धनी देशों के राष्ट्राध्यक्षों के साथ गर्मजोशी दिखाकर पाटना अब और अधिक संभव नहीं रहा गया है।

वापस देश के माहौल पर लौटकर आते हैं तो हम पाते हैं कि लोकसभा चुनाव के बाद भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश को यह दिखाने की कोशिश में कामयाब हो गये हों कि सब चंगा है, लेकिन उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे देश के सबसे बड़े राज्यों में राजनीतिक भूचाल रह-रहकर लगातार जारी है। अगर इसमें तमिलनाडु को भी जोड़ दें तो इन 5 राज्यों से ही देश के लगभग आधे लोकसभा सांसद आते हैं। एनडीए गठबंधन इनमें से सिर्फ बिहार में अपनी साख को कुछ हद तक बचाने में कामयाब रही है, वर्ना शेष सभी राज्यों में उसे जोर का झटका मिला है। खासकर महाराष्ट्र को लेकर एनडीए गठबंधन में अभी से भारी दरारें दिखने लगी हैं, और आसन्न विधानसभा चुनावों को देखते हुए ऐसा लगता है कि भाजपा के लिए मुसीबतों का पहाड़ इसी राज्य से शुरू होने वाला है।

राज्य में भाजपा का ग्राफ बुरी तरह से गिरा है

बता दें कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान महाराष्ट्र की सियासत में भूचाल लाने वाली भाजपा से हिसाब-किताब चुकता करने के लिए बेताब क्षेत्रीय दल, जिन्हें केंद्र सरकार 2024 के चुनाव में मटियामेट होते देखना चाहती थी को अपेक्षाकृत अप्रत्याशित सफलता प्राप्त हुई है। इसमें एनसीपी (शरद पवार गुट) को सबसे कमजोर कड़ी माना जा रहा था, लेकिन 80% स्ट्राइक रेट के साथ यह महाविकास अघाड़ी गठबंधन में सबसे सफल रही है। कांग्रेस का प्रदर्शन भी बेहद शानदार रहा है, और वह महाराष्ट्र का सबसे बड़ा दल बनकर उभरा है। मात्र 17 लोकसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़ा कर इस बार कांग्रेस की झोली में 13 सीटें आई हैं। जिस एकमात्र निर्दलीय उम्मीदवार को इस बार महाराष्ट्र लोकसभा चुनाव में जीत हासिल हुई है, वे भी कांग्रेस का ही बागी उम्मीदवार विशाल प्रकाशबापू पाटिल हैं, जिन्होंने सांगली सीट पर भाजपा के संजय पाटिल को 1 लाख से भी अधिक मतों से पराजित किया है। गठबंधन में यह सीट उद्धव ठाकरे की पार्टी के खाते में गई थी।

48 लोकसभा वाले महाराष्ट्र में 2019 में भाजपा के खाते में 23 सीटें थीं, लेकिन इस बार उसके हाथ मात्र 9 सीटें आई हैं। कांग्रेस को पिछली बार एक सीट पर जीत हासिल हुई थी, लेकिन इस बार 13+1 सीट जीतकर उसने तमाम राजनीतिक पंडितों को चकरा दिया है। इस बार भाजपा ने सबसे अधिक 28 लोकसभा सीटों पर अपनी पार्टी से उम्मीदवार खड़े किये थे, और उसे राज्य में सबसे अधिक 26.18% मत भी हासिल हुए हैं, लेकिन पिछले बार की तुलना में वह अपनी 14 लोकसभा सीटें गंवा चुकी है। तमाम चुनावी विश्लेषकों ने कयास लगा रखा था कि महाराष्ट्र में भले ही शिंदे और अजित पवार गुट को भारी नुकसान उठाना पड़े, लेकिन भाजपा अपनी 23 सीटों के प्रदर्शन को दुहराने में कामयाब रहेगी। परिणाम घोषित हो जाने के बाद ये सभी पोलस्टर और समीक्षक कुछ ख़ास अंग्रेजी चैनलों पर ही नजर आ रहे हैं।

भाजपा की तुलना में शिवसेना (शिंदे) गुट को अच्छे नतीजे प्राप्त हुए हैं। 15 सीट पर चुनाव लड़कर शिंदे की पार्टी 7 लोकसभा सीट जीतने में कामयाब रही है, हालांकि शिवसेना में दो फाड़ करते वक्त शिंदे गुट के साथ 13 सांसद थे। अजित पवार गुट को भी इस चुनाव में निराशा ही हाथ लगी है, जिसे चार सीट में सिर्फ रायगढ़ लोकसभा सीट पर ही जीत हासिल हो सकी। पवार धड़ों के लिए सबसे प्रतिष्ठित बारामती लोकसभा सीट पर सुप्रिया सुले ने एक बार फिर जीत हासिल कर अजित पवार गुट के राजनीतिक भविष्य पर प्रश्नचिन्ह खड़े कर दिए हैं।

लोकप्रियता के शिखर पर एमवीए गठबंधन

इस पृष्ठभूमि में महाराष्ट्र की राजनीति अब भाजपा के हाथ से छिनकर विपक्ष के हाथ में जा चुकी है। विपक्ष को हासिल असाधारण सफलता के पीछे कई कारक हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। इसमें सबसे प्रमुख है महाराष्ट्र की क्षेत्रीय अस्मिता के साथ केंद्र सरकार के द्वारा की गई छेड़छाड़। कांग्रेस और भाजपा देश की राष्ट्रीय पार्टियां हैं, लेकिन शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) क्षेत्रीय दल के रूप में मान्यता प्राप्त पार्टियां रही हैं।

पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा और शिवसेना ने पूर्ण बहुमत हासिल किया था, लेकिन मुख्यमंत्री पद पर ढाई-ढाई साल की बात पर कलह और शरद पवार की कूटनीति ने 4 दशक में पहली बार भाजपा को अलग-थलग कर दिया और उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में कांग्रेस और एनसीपी की सरकार बन गई थी। राज्य पर अपनी गिरफ्त को बनाये रखने और 2024 में एक बार फिर प्रचंड बहुमत हासिल करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा प्रेरित ईडी, सीबीआई की जांच ने पहले एकनाथ शिंदे और बाद में अजित पवार को क्रमशः शिवसेना और एनसीपी में तोड़फोड़ को प्रेरित किया। आज भी महायुती की सरकार राज्य में कायम है, लेकिन जनादेश स्पष्ट रूप से महाविकास अघाड़ी के पक्ष में जा चुका है। महाराष्ट्र की जनता को केंद्र की यह बलपूर्वक तोड़फोड़ की कार्रवाई स्पष्ट रूप से नागवार गुजरी है, जिसे संघ प्रमुख मोहन भागवत के हालिया भाषण से समझा जा सकता है।

लेकिन नरेंद्र मोदी और भाजपा भला इस कड़वी हकीकत को क्यों स्वीकार करने लगी? हालांकि, पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान में उप-मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने इस हार की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेते हुए इस्तीफे की पेशकश की थी, जिसे पार्टी ने अस्वीकार कर दिया। अब भाजपा हार का ठीकरा किसपर फोड़े? विदर्भ, पश्चिमी महाराष्ट्र, मुंबई और मराठवाड़ा में कांग्रेस और एनसीपी को हासिल भारी सफलता के पीछे महाराष्ट्र के आदिवासी, दलित, मराठा और अल्पसंख्यक वर्ग की एकजुटता का बड़ा हाथ है।

वंचित बहुजन अघाड़ी को दलित वोटरों ने नकारा

इस चुनाव में प्रकाश आंबेडकर की पार्टी वंचित बहुजन अघाड़ी को 2019 में हासिल 37 लाख वोटों में से 50% से भी अधिक नुकसान ने इंडिया गठबंधन की बढ़त को अजेय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बता दें कि वंचित बहुजन अघाड़ी को इंडिया गठबंधन में शामिल होने का प्रस्ताव था, लेकिन ऐन वक्त पर प्रकाश आंबेडकर ने एकला चलो नारे पर अमल करते हुए 38 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिए। लेकिन अबकी बार, 400 पार के नारे के साथ जिस प्रकार से भाजपा के कई नेताओं की ओर से संविधान में बदलाव के दावे किये जाने लगे, उसने महराष्ट्र में मौजूद अम्बेडकरवादी संगठनों एवं नागरिक संगठनों को आक्रामक हिंदुत्व के खिलाफ एकजुट विपक्ष के पक्ष में लामबंद कर दिया। नतीजतन, इस चुनाव में वंचित बहुजन अघाड़ी को 38 सीट पर मात्र 15.82 लाख मत ही हासिल हो सके, और पिछली बार की तरह वह दर्जनों सीटों पर भाजपा की जीत और कांग्रेस की हार की ताबीर लिखने में कामयाब नहीं हो सकी।

भाजपा-संघ के सिपहसलार अब चुनावी हार के लिए बकरे की तलाश में हैं। इसके लिए आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गनाइजर ने महाराष्ट्र में पार्टी की हार के लिए एनसीपी (अजित पवार) के साथ गठबंधन को जिम्मेदार ठहराया है। पत्र का मानना है कि अजित पवार की छवि को लेकर भाजपा समर्थकों और आम मतदाताओं में एतराज था। एकनाथ शिंदे की शिवसेना के साथ भाजपा गठबंधन को पूर्ण बहुमत हासिल था, फिर भी अजित गुट को तोड़कर गठबंधन में शामिल करने की पहल को महाराष्ट्र की आम जनता ने अस्वीकार कर दिया।

इसके जवाब में अजित पवार गुट के नेता छगन भुजबल का कहना है कि वस्तुतः हमें लोकसभा की दो ही सीटें दी गईं, जिसमें से रायगढ़ हम जीत गये, जबकि बारामती की सीट हम हारे हैं। वस्तुतः हमें लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए उपयुक्त सीटें ही नहीं दी गईं। दूसरा, महाराष्ट्र की तरह भाजपा को उत्तर प्रदेश में भी करारी हार का मुंह देखना पड़ा है। क्या उत्तर प्रदेश की हार के पीछे भी आरएसएस और हमारे दल का हाथ नजर आता है? गठबंधन के घटक दलों के मुंह लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद ही क्यों खुल रहे हैं, इसे आसानी से समझा जा सकता है। इतना ही नहीं, राज्य सभा की सीट के लिए अजित पवार ने अपनी पत्नी सुनेत्रा पवार को आगे कर भाजपा की मुश्किलों को बढ़ा दिया है। बताया जा रहा है कि इस सीट पर जीत के लिए भाजपा विधायकों का संख्या बल आवश्यक होगा। इससे पहले भी, पार्टी ने केंद्र में प्रफुल्ल पटेल को राज्य मंत्री का पद दिए जाने को ठुकराकर अपनी नाराजगी का इजहार कर दिया था।

उधर मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे, 7 लोकसभा सीट पर जीत से फिलहाल काफी आश्वस्त हैं। महाराष्ट्र में एनडीए गठबंधन को अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाने के लिए उन्होंने जो वजह बताई है, वह बेहद दिलचस्प है। शिंदे के अनुसार, 400 पार नारे की वजह से आम लोगों को गलतफहमी हो गई कि संविधान से छेड़छाड़ संभव है, जिसका चुनावी नतीजे पर असर पड़ा। यह साफ़ बताता है कि जो शिंदे साहब कल तक भाजपा के शीर्षस्थ नेतृत्व की दया पर निर्भर थे, वे भी अब नरेंद्र मोदी के खोखले दंभ से भरे नारे की खिल्ली उड़ाने से बाज नहीं आ रहे हैं।

टीडीपी, जेडीयू, शिवसेना(शिंदे), लोजपा सहित कई निर्दलीय सांसद को मिला दें तो यह संख्या 50 को पार कर जाती है। बेरोजगार युवाओं, किसानों, दलित, पिछड़ों, आदिवासी समाज और मुस्लिम मतदाताओं के लोकप्रिय जन-समर्थन की लहर पर सवार विपक्ष आज इस हालत में है कि वह सदन और सड़क दोनों जगह, हर जनविरोधी कदम पर मोदी सरकार को रक्षात्मक मुद्रा अपनाने और एनडीए के घटक दलों को सोचने पर विवश कर सकती है। नरेंद्र मोदी के पास दो ही विकल्प हैं, या तो वे जल्द से जल्द अटल बिहारी वाजपेयी की तरह गठबंधन धर्म का पालन करने की आदत अपना लें, वरना कभी भी उनकी सरकार अल्पमत में आ सकती है।

महाविकास अगाड़ी के नेता इस बात को संभवतः बखूबी समझ रहे हैं। एमवीए के नेताओं ने आज शनिवार लोकसभा चुनावों पर मुंबई में संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस कर अपनी संयुक्त ताकत का इजहार किया है। शरद पवार, उद्धव ठाकरे और कांग्रेस नेता पृथ्वीराज चव्हाण ने इस प्रेस कांफ्रेंस में चुन-चुनकर केंद्र की एनडीए सरकार को निशाना बनाते हुए पीएम मोदी को आड़े हाथों लिया। शरद पवार ने नरेंद्र मोदी का आभार व्यक्त करते हुए चुटकी ली है कि, “पीएम नरेंद्र मोदी ने महाराष्ट्र में जिस-जिस लोकसभा क्षेत्र में सभा और रोड शो का आयोजन किया था, वहां-वहां से महाविकास अघाड़ी के उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की है। इसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का शुक्रिया।” इतना ही नहीं शरद पवार और उद्धव ठाकरे ने साफ़ कर दिया है कि वे अपनी पार्टी में शिंदे और अजित पवार गुट के नेताओं को प्रवेश नहीं देने जा रहे हैं, और आगामी विधानसभा चुनाव में भारी जीत की तैयारी में अभी से जुटने जा रहे हैं।

साफ़ है, महाराष्ट्र में इंडिया गठबंधन बहुसंख्यक समाज को अपने पक्ष में पा रहा है, जबकि डबल इंजन सरकार में केंद्र की तरह राज्य सरकार के सितारे भी गर्दिश में हैं। यहां पर राज्य सरकार की स्थिति कहीं ज्यादा डांवाडोल है, क्योंकि हार की आशंका से राजनीतिक पंक्षी दूसरी डाल की राह तो तक रहे हैं, लेकिन जनता की निगाह में जिनका मोल दो कौड़ी का रह गया हो, इंडिया गठबंधन ऐसे अपयश को अपने माथे लगाने की भूल भला क्यों करना चाहेगा? सबसे बड़ी बात, जब मतदाता आपके पक्ष में हो जिसने केंद्र की आर्थिक नाकेबंदी के बावजूद 2024 लोकसभा चुनाव में सबसे अधिक लड़खड़ाती पार्टी कांग्रेस को सबसे बड़ा जनादेश दिया हो, तो ऐसी भूल वह चाहकर भी नहीं करना चाहेगी।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

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