नतीजे जो भी हों, 2024 के जनादेश से ब्रांड मोदी और मिशन हिंदुत्व को धक्का लगना तय

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आज जब आम चुनाव 2024 का समापन हो रहा है, देश में हर नागरिक के मन में एक ही सवाल है, क्या चुनाव निष्पक्ष हुआ है? क्या मतगणना निष्पक्ष होगी? क्या चुनाव परिणाम में जनादेश और जनभावना की ईमानदार अभिव्यक्ति होने पाएगी? यदि परिणाम प्रतिकूल हुआ तो क्या मोदी-शाह इसे यूं ही स्वीकार करेंगे और सत्ता का सहज हस्तांतरण (smooth transition) हो पायेगा? यदि जनादेश का अपहरण हुआ, तो क्या जनता और विपक्ष इसे स्वीकार करेंगे?

जाहिर है इन सारे सवालों का जवाब भविष्य के गर्भ में है और उन्हीं पर हमारे लोकतन्त्र की तकदीर टिकी हुई है। इन सवालों का लोगों के मन में खड़ा होना ही इस बात का सबूत है कि लोग किस कदर मौजूदा political dispensation में विश्वास खो चुके हैं।

मोदी ने यह चुनाव ब्रांड मोदी के नाम पर लड़ा है और उनका एकमात्र मुद्दा हिंदुत्व और ध्रुवीकरण था। कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे के अनुसार अपनी 206 सभाओं में 421 बार उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम किया। चुनाव के नतीजे जो भी हों, जनता के पॉपुलर mood से यह साफ है कि मोदी-शाह के 400 पार के शिगूफे या 300 पार के दावे के विपरीत भाजपा के मतों और सीटों में भारी गिरावट होगी।

हर हाल में 2024 का जनादेश ब्रांड मोदी और हिंदुत्व के खिलाफ बड़ा धक्का साबित होने जा रहा है। मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी से वरिष्ठ पत्रकार सुरेश प्रताप सिंह के अनुसार- “बनारस संसदीय सीट पर हवा उल्टी दिशा में बह रही है। विश्वगुरु का जादू अपनी चमक खो चुका है। कार्यकर्ता उदास बैठे हैं। कोई उत्साह नहीं है। 25 मई को दुर्गाकुंड से संत रविदास मंदिर तक लगभग छह किमी तक आयोजित प्रियंका गांधी और डिंपल यादव के आयोजित रोड-शो में रास्ते में उमड़ी भीड़ और उसके उत्साह से हवा के रूख का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।

मोहनसराय में 28 मई को आयोजित इंडिया गठबंधन के नेता राहुल गांधी और अखिलेश यादव की रैली में उमड़ी भीड़ से भी हवा के रूख को समझा जा सकता है। लोग सत्ता परिवर्तन के पक्ष में हैं। प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक रैली खत्म होने के बाद भी लोग सभा स्थल पर डटे रहे। इसका मतलब यह है कि लोग उनका भाषण और सुनना चाहते थे। ऐसा चुनावी रैली में कम देखने को मिलता है। यदि इंडिया गठबंधन के प्रत्याशी अजय राय 60-70 फीसदी भी बूथ मैनेजमेंट करने में सफल हो गए तो बनारस संसदीय सीट का चुनाव परिणाम चौंकाने वाला हो सकता है।”

वाराणसी में जब यह हाल है तो और जगहों पर क्या हुआ है, समझा जा सकता है! चुनाव का नतीजा अंततः जो भी हो, यह तो तय है कि यह चुनाव मोदी परिघटना के उतार decline का साक्षी बनेगा।

राजनीति विज्ञान के शोधार्थियों के लिए यह लम्बे समय तक अध्ययन का विषय बना रहेगा कि मोदी जो संघ के अनगिनत प्रचारकों जैसे एक और प्रचारक थे, वे कैसे भारतीय राजनीति के शिखर पुरुष बन गए और उनके हाथों सत्ता का ऐसा अभूतपूर्व संकेन्द्रण हो गया जो सम्भवतः आज़ाद भारत के इतिहास में कभी नहीं हुआ। आखिर वे कौन सी परिस्थितियां थीं जिन्होंने इस को जन्म दिया और अंततः इसके पतन का कारण बनीं?

दरअसल, मोदी परिघटना शासकवर्ग की एक खास दौर के जरूरत की ऐतिहासिक उपज थीं। नवउदारवादी नीतियों के संकट के दौर में जब कारपोरेट के कभी लाड़ले रहे मनमोहन सिंह अपने विरुद्ध चले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के चलते साख खो बैठे, तब शासक वर्ग गुजरात मॉडल के हीरो मोदी को PM material घोषित कर उनके राज्यारोहण के लिए लामबंद हुआ।

नवउदारवादी नीतियों के संकट के दौर में वैश्विक वित्तीय पूंजी के धन कुबेरों तथा देशी कारपोरेट घरानों को विशाल बाजार और प्राकृतिक संसाधनों वाले भारत में एक ऐसे शासक की जरूरत थी जो उनके पक्ष में नीतियां बना सके, साथ ही इन नीतियों से तबाह हो रही आम जनता के आक्रोश को अपनी साम्प्रदायिक नीतियों द्वारा divert कर सके और फासीवादी दमन द्वारा contain कर सके। बहुप्रचारित गुजरात मॉडल द्वारा मोदी यह सारी योग्यता प्रदर्शित कर चुके थे।

दरअसल 2002 में जब केशु भाई पटेल और शंकर सिंह बघेला के सत्ता संघर्ष के बीच मोदी को आडवाणी ने मुख्यमंत्री बनाकर गुजरात भेजा, उसके बाद से मोदी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। गोधरा कांड के बाद राज्य प्रायोजित मुस्लिम विरोधी हमलों द्वारा वे अपनी हिन्दू हृदय सम्राट की छवि गढ़ने में सफल हो गए। वे चुनाव दर चुनाव जीतते रहे। बड़े कॉरपोरेट घरानों को राज्य की ओर से हर तरह की मदद देते हुए वे उनके लाडले बनते गए। बेशक इस प्रक्रिया में कुछ रोजगार आदि का सृजन हुआ, जिससे यूपी, बिहार आदि से गए प्रवासी भी लाभान्वित हुए। धीरे-धीरे गुजरात मॉडल विकास के सबसे अच्छे मॉडल के बतौर कॉरपोरेट मीडिया द्वारा प्रचारित किया जाने लगा और मोदी की छवि हिन्दू हृदय सम्राट के साथ विकास पुरुष की गढ़ दी गयी।

हालांकि शुरुआती हो-हल्ले के बाद जब सच्चाई सामने आई, तब पूरा देश जान पाया कि दरअसल गुजरात मॉडल एक गढ़ा गया मिथक था, जो मानव विकास सूचकांकों के आधार पर देश के तमाम राज्यों से काफी पीछे था।

बहरहाल 2013-14 में कारपोरेट मीडिया की बदौलत गुजरात मॉडल पूरे देश के सर चढ़ कर बोल रहा था। देखा जाय तो 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के दौर से भाजपा एक स्थाई, rising force के बतौर सामने आ चुकी थी और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण भारतीय समाज में अपनी गहरी जड़ें जमाता जा रहा था, भले ही भाजपा सत्ता से बाहर रहे या अंदर। मोदी ने जब गुजरात में अपना अभियान शुरु किया तब तो दिल्ली की सत्ता पर भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी ही विराजमान थे। गोधरा कांड के बाद मुसलमानों पर हो रहे जुल्म के समय उन्होंने मोदी को एक सार्वजनिक पत्रकार वार्ता में राजधर्म निभाने की नसीहत भी दी थी। लेकिन जिन लोगों की स्मृति में वह प्रेस कॉन्फ्रेंस है उन्हें अच्छी तरह याद होगा कि मोदी ने कैसे गुस्से और हिकारत के साथ प्रत्युत्तर में कहा था कि वही तो कर रहा हूं साहब !

बताया जाता है कि तब वाजपेयी लॉबी ने मोदी को मुख्यमंत्री पद से हटाने का भी प्रयास किया था लेकिन आडवाणी ने वीटो कर दिया था और वह सारी कोशिश धरी रह गयी थी।

शायद संघ ने मोदी में अपने एजेंडा को आगे ले जाने वाले एक सुयोग्य नेता की संभावना भांप ली थी। मोदी ने गुजरात को हिंदुत्व की एक आदर्श प्रयोगशाला बना डाला, जहां संघ की संकल्पना के अनुरूप मुसलमानों को व्यवहारतः दोयम दर्जे के नागरिक में बदल दिया गया। उनके प्रतिरोध को इस कदर कुचल दिया गया कि उन्होंने एक तरह से हालात को अपनी नियति मानकर आत्मसमर्पण कर दिया।

उधर हिन्दू जनता को मुस्लिम विरोधी नफरत की घुट्टी पिलाकर जीवन के मूलभूत सवालों को पृष्ठभूमि में धकेल दिया गया। और इस सब के साथ अडानी जैसे चहेते कारपोरेट घरानों को सरकारी खजाने और संसाधनों से अंधाधुंध फायदा पहुंचाया गया जिससे वे अंधाधुंध तरक्की करते गए। बदले में कॉरपोरेट ने आर्थिक संसाधनों और गोदी मीडिया की मदद से मोदी की एक अति मानवीय छवि निर्मित की-न भूतो, न भविष्यति।

अहमदाबाद में हुए एक सम्मेलन में अम्बानी, अडानी समेत एक के बाद एक अनेक बड़े पूंजीपतियों ने मोदी को प्राइम मिनिस्टर मैटेरियल घोषित किया। उधर केंद्र की कांग्रेस-यूपीए सरकार एक बड़े भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के निशाने पर आ गयी। अब retrospect में लगता है कि दरअसल वह आंदोलन संघ-भाजपा के रणनीतिकारों की गहरी चाल का नतीजा था। जिसे बेहद चालाकी से अन्ना हजारे और सिविल सोसाइटी के अनेक नामचीन चेहरों को सामने रखकर लॉन्च किया गया।

बहरहाल उस आंदोलन के फलस्वरूप कांग्रेस पूरी तरह जनता की नजरों से उतर गई। इसका सबसे बड़ा राजनीतिक लाभ मोदी नीत भाजपा को ही मिला, हालांकि केजरीवाल के नेतृत्व में आप पार्टी भी देश के राजनीतिक रंगमंच पर उभरने में सफल रही।

इस तरह कांग्रेस के राजनीतिक ध्वंस से पैदा शून्य में कारपोरेट मीडिया की मदद से मोदी की एक ईमानदार, मजबूत राजनेता जो विकास पुरुष भी है की छवि बना दी गयी, इस सबकी underlying थीम उनकी हिन्दू हृदय सम्राट वाली छवि थी ही।

रही सही कसर मोदी ने अपने बारे में तरह-तरह की कहानियां सुनाकर पूरी कर दीं, मसलन यह कि बचपन मे वे चाय बेचते थे या अपनी ओबीसी पहचान को उन्होंने सचेत ढंग से स्थापित किया। इस तरह मोदी के persona को गढ़ा गया और वे एक मिथकीय महामानव जैसे उभरते चले गए।

मोदी की धुर दक्षिणपंथी अर्थनीति से लाभान्वित होता super rich क्लास तथा खाया-अघाया मध्यवर्ग का हिस्सा भी मोदी के पीछे चट्टान की तरह खड़ा हो गया। सामंती अवशेषों से गहरे जुड़े इन तबकों की चेतना पर गैर लोकतांत्रिक मूल्यों, व्यक्तिपूजा, मजबूत नेता, अधिनायकवाद आदि का गहरा प्रभाव है। (इसके बारे में कभी पवन वर्मा ने अपनी  किताब The Great Indian Middle Class में विस्तार से लिखा है) इसलिए ये मोदी मार्का फासीवादी राजनीति के मज़बूत स्तम्भ बन गए। इसके साथ ही मोदी ने अपने को ओबीसी घोषित करके, ओबीसी तथा दलित आदिवासी समुदाय के बीच से कुछ प्रतिनिधित्व देकर अपने कोर सवर्ण power-groups के साथ ओबीसी दलित, आदिवासी समुदाय का भी संश्रय कायम कर लिया। इसमें 5 किलो मुफ्त अनाज जैसी योजनाओं ने भी बड़ी भूमिका निभाई।

यही वह व्यापक सामाजिक आधार था जिस पर खड़े होकर 2014 में अच्छे दिन की उम्मीद दिखाकर और 2019 में अंधराष्ट्रवाद की लहर पर सवार होकर मोदी ने सत्ता हथियाने में सफलता प्राप्त की।

लेकिन 2024 चुनाव आते-आते वह विराट social coalition अपने अंदरूनी अंतर्विरोधों के बोझ तले  बिखर चुका है। समाज के सभी तबको का मोदी राज से मोहभंग हुआ है। जहां बेरोजगारी और महंगाई पूरे समाज का सबसे बड़ा मुद्दा बन गई है, वहीं संविधान-आरक्षण बचाने का नारा समाज के वंचित तबकों का सबसे बड़ा युद्धघोष बन चुका है। व्यापक जनता ने संघ के विभाजनकारी एजेंडे को नकार दिया है। बदहाल जनता के अंदर विपक्ष के लोककल्याण के वायदों से निश्चय ही नई उम्मीद पैदा हुई है। शासक वर्गों को भी सम्भवतः साख खोते मोदी की जगह नए नेतृत्व की जरूरत है।

उम्मीद है चुनाव नतीजे इस बदलते हुए यथार्थ को अभिव्यक्त करेंगे और मोदी परिघटना के पराभव पर मुहर लगाएंगे।

(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं)

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