नई दिल्ली। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने लोकसभा में पेश लेखानुदान विधेयक (vote on account) यानी अंतरिम बजट में जो दावे किए, उन्हें मेनस्ट्रीम मीडिया ने उसी रूप में प्रस्तुत कर दिया। यह सवाल पूछने की जहमत आम तौर पर नहीं उठाई गई कि जब सरकार इस विधेयक के जरिए तीन महीनों (अप्रैल से जून तक) के लिए भारत की संचित निधि से रोजमर्रा के आम खर्च के लिए धन निकालने का अधिकार संसद से मांग रही है, तो वह अगले पूरे वित्त वर्ष के लिए योजनाओं या इरादों की घोषणा इस मौके पर कैसे कर सकती है?
उलटे इस रुख को मीडिया ने एक स्वर से मोदी सरकार के अप्रैल-मई में होने वाले आम चुनाव में फिर विजयी होने के आत्म-विश्वास का संकेत बताया। मोदी सरकार यह मान कर चल रही है कि आम चुनाव महज औपचारिकता हैं, जिसके बाद फिर से भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनना तय है।
उधर मेनस्ट्रीम मीडिया में यही मान कर चला जा रहा है- या इसे ऐसे कहा जाए कि ऐसा ही हो, इसके लिए माहौल बनाया जा रहा है। इसके बीच यह प्रश्न जैसे अप्रासांगिक-सा हो गया है कि संसदीय मर्यादा और लोकतांत्रिक तकाजों का भी कोई महत्त्व होता है या नहीं?
तो सरकार ने चुनाव को ध्यान में रखकर एक राजनीतिक कथानक तैयार किया है, जिसे वह प्रचारित करने के लिए संसद के मंच का उपयोग करने में सफल हो रही है। यह कहानी इस हफ्ते तीन बार सुनाई गई। पहले 30 जनवरी को वर्तमान सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार वी अनंत नागेश्वरन ने प्रेस कांग्रेस कर यह कथा सुनाई। (आर्थिक रिपोर्ट या सियासी परचा?)
नागेश्वरन ने प्रेस कांफ्रेंस में जो रिपोर्ट पेश की, वह हर व्यावहारिक रूप में गुजरे वर्ष की आर्थिक सर्वेक्षण रपट थी। लेकिन चूंकि इस बार लेखानुदान बिल आना था, इसलिए उसे जारी करने के लिए प्रेस कांफ्रेंस आयोजित की गई।
फिर उस कहानी को एक फरवरी को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अपने अभिभाषण के तौर पर संसद के संयुक्त अधिवेशन में रखा।
यही कथा कुछ और विस्तृत ढंग से वित्त मंत्री सीतारमण ने लेखानुदान विधेयक पेश करते वक्त संसद के माध्यम से पूरे देश सुनाई।
(संभव है कि अगले हफ्ते जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दोनों सदनों में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हुई बहस का जवाब देंगे, तब यह कहानी फिर लोगों को सुनने को मिले।)
कहानी यह है कि मोदी सरकार ने पिछले दस साल में देश का आर्थिक कालाकल्प कर दिया है। अब भारत उस मुकाम पर है, जहां से अगले आम चुनाव के बाद वह विकसित देश बनने की अपनी यात्रा शुरू कर देगा। इस दौरान आर्थिक मोर्चे पर सरकार का असल प्रदर्शन क्या रहा है, इस बारे में किसी बहस में वह शामिल होने को वह तैयार नहीं है। उसका नैरेटिव एकतरफा है, जिसे प्रचारित करते हुए जनमत के एक हिस्से को प्रभावित कर लेने की अपनी क्षमता पर उसे पूरा भरोसा है।
मोदी सरकार को यह भरोसा भी है कि आजादी के बाद पहले सत्तर साल में कुछ नहीं हुआ- ये जो कहानी वह दोहराती रही है, उसे बहुत से लोगों के दिमाग में सच के रूप में उतार देने में सफल रही है। तो इस कहानी को कुछ और पुख्ता करने के लिए वित्त मंत्री ने एलान किया कि सरकार 2014 के पहले तक ‘अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन’ के बारे में एक श्वेत पत्र जारी करेगी।
दस साल सत्ता में रहने के बाद कोई सरकार अपने से पहले की सरकारों के कथित कुप्रबंधन की चर्चा कर ताकत पाने की आशा करे, तो यह अपने-आप में उस सरकार के कार्य प्रदर्शन पर एक प्रतिकूल टिप्पणी है। लेकिन मेनस्ट्रीम मीडिया ऐसी टिप्पणियां नहीं करता, इसलिए सरकार को भरोसा है कि कथित श्वेत पत्र से उसका ’70 साल’ वाला नैरेटिव और मजबूत होगा।
तो बात घूम-फिर कर यहीं आ जाती है कि सरकार को इतना ‘आत्म-विश्वास’ किस बात पर है- या इस ‘आत्म-विश्वास’ का राज़ क्या है?
ध्यान दें, तो समझ में आता है कि इस राज़ की वजहें निम्नलिखित हैं–
तो कहा गया है कि सरकार में “आत्म-विश्वास” इतना ज्यादा है कि वह चुनाव के साल में भी सस्ती जनप्रियता जुटाने (populism) के दबाव में नहीं आई। populism नव-उदारवाद के पैरोकारों की तरफ से गढ़ा गया एक शब्द है, जिसमें जन-कल्याण पर खर्च होने वाले हर रकम को चुनावी मकसद से सस्ती जनप्रियता जुटाने की कोशिश के रूप में देखा जाता है।
ऐसा करने या ऐसा करने का वादा करने वाली ताकतों को हिकारत की नजर से populist कहा जाता है। यानी जो ‘नव-उदारवादी आम सहमति’ है, उससे हटने की हर कोशिश populist मानी जाती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने populism के लिए हिंदी में रेवड़ी शब्द प्रचलित किया है। अर्थ वही है। आम जन के कल्याण के लिए घोषित की जाने वाली हर योजना रेवड़ी है।
तो मोदी सरकार अब रेवड़ी नहीं बांट रही है। वैसे ऐसा उसने पहली बार किया हो, ऐसा नहीं है। पिछले साल यानी 2023-24 के बजट में भी जन-कल्याण की योजनाओं के बजट में कटौती की गई थी। आम जन को राहत देने वाली घोषणाओं से बचा गया था। तब भी कहा गया था कि मोदी सरकार को अपने आर्थिकी और राजनीतिक एजेंडे से वोट हासिल करने का इतना आत्म-विश्वास है कि आम चुनाव से पहले अंतिम पूर्ण बजट में भी उसने ‘रेवड़ी’ नहीं बांटी। यही “आत्म-विश्वास” उसने फिर- यानी लेखानुदान बिल (अंतरिम बजट) में भी दिखाया है।
उसी ‘आत्म-विश्वास’ के साथ वह ‘विकसित भारत’ की कहानी को आगे बढ़ा रही है, जबकि इस दावे में छेद ही छेद हैं (हकीकत क्या है ‘विकसित’ भारत के हल्ले की?)। इसे दुस्साहस (जिसे मेनस्ट्रीम मीडिया ‘आत्म-विश्वास’ कह रहा है) ही कहा जाएगा कि सरकार वैसे तो देश कोविपरीत दिशा में ले जा रही है, लेकिन उसने एलान कर दिया है कि लोकसभा चुनाव के बाद जब वह पूर्ण बजट पेश करेगी, तो उसमें भारत को 2047 तक विकसित देश बना देने का रोडमैप शामिल किया जाएगा।
वैसे सरकार का जो मौजूदा रोडमैप है, वह देश के आठ से दस प्रतिशत लोगों को अभी ही वो जीवन स्तर दे चुका है, जो विकसित देशों की आम आबादी को हासिल रहता है। मुमकिन है कि आने वाले 23 वर्षों में आबादी का पांच से दस प्रतिशत और हिस्सा उस जीवन स्तर को प्राप्त करने की स्थिति में पहुंच जाए।
लेकिन यह निर्विवाद है कि ऐसा बाकी लगभग अस्सी प्रतिशत आबादी की कीमत पर होगा। दरअसल, सरकार के विकसित भारत के नैरेटिव की असलियत 20 बनाम 80 की अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ना है। यानी (80 प्रतिशत लोगों की) बदहाली के समुद्र में (20 प्रतिशत लोगों के) खुशहाल टापू बनेंगे।
मगर अल्पसंख्यक खुशहाल आबादी की आवाज इतनी जोरदार और गुंजने वाली है कि बाकी लोगों का एक बड़ा हिस्सा भी फिलहाल उन्हीं की धुन पर थिरकता हुआ नजर आ रहा है। बहरहाल, यह समझना जरूरी है कि आखिर कॉरपोरेट सेक्टर और उससे जिन तबकों के हित जुड़े हैं, वे इस सरकार के प्रशंसक या पैरोकार क्यों बने हुए हैं।
इस संदर्भ में गौर करने की बात है कि आज के वित्तीय पूंजीवाद दौर में कॉरपोरेट्स की संपत्ति असल में वित्तीय बाजारों से बढ़ रही है। इसलिए फिलहाल उन्हें देश में बने रहे हालात की चिंता नहीं है। जो नीतियां देश में चल रही हैं, उनकी वजह से देश की आम आबादी की वास्तविक आय घट रही है।
इसके परिणामस्वरूप उपभोक्ता बाजार सिकुड़ रहा है और आम उपभोग में गिरावट आ रही है। वित्तीय पूंजीवाद के इस दौर में निवेश, उत्पादन और वितरण वाली अर्थवयवस्था सिकुड़ती जा रही है, जबकि संसाधनों और सेवाओं का वित्तीयकरण (financialization) प्रमुख हो गया है। यह दिशा देशी और बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेट्स की प्राथमिकताओं के मुताबिक है।
देशी और बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेट्स और वित्तीय कंपनियों के लिए इससे बेहतर कोई और बात नहीं हो सकती कि कोई सरकार अपने नीति निर्माण का कार्य ही वित्तीय बाजार से जुड़ी एजेंसियों को सौंप दे, जिससे वे मन-माफिक नीतियां बनाएं और पूरी अर्थव्यवस्था को अपने हितों के अनुकूल ढाल दें। मोदी सरकार ने उनकी यह इच्छा पूरी की है। कैसे, यह जानने के लिए इन बातों पर गौर करें–
इन खबरों पर गौर करें, तो यह राज़ खुल जाता है कि विदेशी कंपनियों के अधिकारी, उनकी लॉबिंग से प्रभावित विदेशी राजनेता, पश्चिमी मीडिया, भारतीय कॉरपोरेट सेक्टर और उसके स्वामित्व वाला मीडिया क्यों मोदी सरकार की छवि चमकाने में दिन-रात लगे रहते हैं।
सत्ताधारी दल को चुनाव जीतने के लिए जरूरी अकूत संसाधन भी इन्हीं समूहों से प्राप्त हो रहा है। इन समूहों की धन और प्रचार की ताकत अगर किसी एक पार्टी के पक्ष में लगी हो, तो बाकी राजनीतिक प्रतिस्पर्धा एकतरफा हो जाती है। इससे अन्य सियासी दलों के लिए जो प्रतिकूल स्थिति पैदा होती है, उसे आसानी से समझा जा सकता है।
ये शासक समूह जो चमक इस सरकार को देते हैं, उसकी रोशनी से फिलहाल भारतीय मतदाताओं का एक वैसा बड़ा वर्ग भी चकाचौंध है, जिसकी अपना भविष्य लगातार अंधकारमय होता जा रहा है। जब सियासी हकीकत यह हो, तो किसी सरकार का ‘आत्म-विश्वास’ से भरपूर होना कोई असामान्य बात नहीं है। यही आत्म-विश्वास लगातार दो बार से बजट के दिन झलका है।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)