आम बदहाली के बीच चमकते-दमकते छह करोड़ लोग

चालू वित्त वर्ष में भारत सरकार ने प्रत्यक्ष करों से 17.2 लाख करोड़ रुपये की आमदनी का अनुमान लगाया था। सरकार की तरफ से दी गई जानकारी के मुताबिक दिसंबर की समाप्ति तक सरकार 14.7 लाख करोड़ की रकम इस माध्यम से वसूल चुकी थी। यानी 2023-24 के लिए तय लक्ष्य का 81 प्रतिशत हासिल कर लिया गया था। चूंकि हमेशा ही आखिरी तीन महीनों में सबसे ज्यादा कर्ज उगाही होती है, इसलिए सरकार का यह अनुमान दुरुस्त है कि इस वित्त वर्ष में उसे लक्ष्य से भी ज्यादा प्रत्यक्ष कर प्राप्त हो सकते हैं।

किसी अर्थव्यवस्था में प्रत्यक्ष करों से अधिक राजस्व जुटाने को एक स्वस्थ नीति माना जाता है। प्रत्यक्ष कर समृद्ध तबकों से आता है, जबकि परोक्ष कर का सभी तबकों पर- चाहे वे धनी हों या गरीब समान बोझ पड़ता है। दरअसल, अगर माली हालत को पैमाना बना कर समझें, तो गरीब तबकों को अपनी कमजोर स्थिति के कारण यह बोझ ज्यादा महसूस होता है।

नरेंद्र मोदी सरकार ने वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी), उत्पाद शुल्क, विभिन्न प्रकार के उप कर (सेस) आदि के जरिए परोक्ष करों का भारी बोझ लोगों पर डाला है। इसका परिणाम यह हुआ कि एक समय परोक्ष करों से होने वाली आमदनी प्रत्यक्ष करों की तुलना में ज्यादा हो गई। लेकिन अब एक बार फिर प्रत्यक्ष करों से अधिक आमदनी की स्थिति बन गई है।

ये दीगर बात है कि परोक्ष करों में कोई कमी नहीं हुई है। यानी आम जन पर टैक्स की भारी मार अब भी पड़ रही है। लेकिन इस बीच अर्थव्यवस्था के स्वरूप को इस तरह ढाला गया है, जिससे प्रत्यक्ष करों से आमदनी में भारी इजाफा हुआ है। ऐसा इसलिए हुआ है, क्योंकि सरकार के ज्यादा से ज्यादा संसाधनों को कुछ हाथों में सौंपने की नीति काफी आगे बढ़ चुकी है।

आबादी की निम्न श्रेणियों से ऊपरी श्रेणियों की तरफ धन ट्रांसफर करने की इस नीति के तहत ऊपरी टॉप पांच से दस प्रतिशत लोगों की आमदनी एवं धन में अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुई है। कॉरपोरेट सेक्टर में मोनोपॉली को प्रोत्साहित करने की नीति सरकार ने अपना रखी है, जिससे कुछ कंपनियों की आय में भारी इजाफा हुआ है। नतीजा है कि ऐसे व्यक्ति और कंपनियां अधिक इनकम टैक्स एवं कॉरपोरेट टैक्स दे रहे हैं।

इसके अलावा अर्थव्यवस्था का अधिक से अधिक वित्तीयकरण (financialization) करने की राह पर भी सरकार चली है। इस तरह शेयर, ऋण, बॉन्ड बाजार में निवेश को बढ़ावा दिया गया है। इससे लाखों की संख्या में नए लोगों ने शेयर खरीद-बिक्री के कारोबार में कदम रखा है। बहुत से ऐसे लोग जो प्रत्यक्ष रूप से इस कारोबार में नहीं हैं, उन्होंने म्युचुअल फंड्स के जरिए शेयर बाजार में पैसा लगाया है। इन कारणों से शेयर मार्केट तेजी से चढ़ा है। इसका लाभ इस बाजार से जुड़े तमाम लोगों को मिला है।

चूंकि ऐसी हर आमदनी पर लोगों को टैक्स देना होता है, अतः इसका फायदा सरकार को भी मिल रहा है। अल्पकालिक पूंजीगत निवेश कर और लाभांश कर से अब सरकार को काफी राजस्व प्राप्त हो रहा है।

अर्थव्यवस्था के यह रूप लेने का परिणाम है कि भारत के प्रीमियम बाजार में विस्तार हुआ है। इससे पश्चिमी कंपनियों और निवेशकों के लिए भारत एक आकर्षक जगह बना है। गौरतलब है कि कंपनियां और इन्वेस्टमेंट बैंक किसी अर्थव्यवस्था के आकार का आकलन वहां मौजूद उपभोक्ता वर्ग की आमदनी और क्रय शक्ति के आधार पर करती हैं। इसलिए बोल-चाल में भले भारत को एक अरब 40 करोड़ लोगों का बाजार कहा जाता हो, लेकिन असल में किसी कंपनी की निगाह में बाजार से मतलब उन लोगों से होता है, जो उसके उत्पाद खरीद सकने की क्षमता रखते हों।

अब अमेरिकी इन्वेस्टमैंक गोल्डमैन शैक्स ने भारतीय बाजार के बारे में एक नई रिपोर्ट पेश की है। उसके मुताबिक भारत में महंगी वस्तुओं (यानी प्रीमियम गुड्स) का बाजार अब छह करोड़ लोगों का हो चुका है। गोल्डमैन शैक्स ने अनुमान लगाया है कि 2027 तक भारतीय बाजार दस करोड़ लोगों का हो जाएगा। इस इन्वेस्टमेंट बैंक ने प्रीमियम गुड्स के बाजार में उन लोगों को शामिल किया है, जिनकी सालाना आमदनी दस हजार डॉलर (यानी लगभग साढ़े आठ लाख रुपये) से ज्यादा है।

बैंक का अनुमान है कि 2015 में इस आय वर्ग में दो करोड़ 40 लाख लोग थे। पिछले नौ वर्षों में इन तबके की संख्या दो गुना से भी ज्यादा बढ़ी है। इसका फायदा जेवरात और महंगी कारों के उद्योग के साथ-साथ सेवा क्षेत्र में पर्यटन, रेस्तरां, होटल, और हेल्थकेयर के कारोबार को भी मिला है।

चूंकि आने वाले तीन वर्षों में इस आय वर्ग के लोगों की संख्या में और वृद्धि का अनुमान है, इसलिए ऐसे कारोबार से जुड़ी कंपनियों के लिए भारतीय बाजार का आकर्षण बढ़ना स्वाभाविक है। और इन वस्तुओं और सेवाओं की बिक्री पर जीएसटी लगता है, तो इस परोक्ष कर से सरकार की अधिक आमदनी भी लाजिमी है।

गोल्डमैन शैक्स ने कहा है- “पिछले तीन वर्षों के दौरान भारत में वित्तीय एवं ठोस संपत्तियों में महत्त्वपूर्ण बढ़ोतरी हुई है, जिसके परिणामस्वरूप धन में वृद्धि हो रही है। हालांकि सोना और जायदाद में धन के निवेश की प्रवृत्ति बनी हुई है, लेकिन पिछले पांच वर्षों में एक बड़ा बदलाव यह देखा गया है कि लोग सीधे शेयर खरीदने या फिर म्युचुअल फंड्स के जरिए शेयर बाजार में अधिक पैसा लगा रहे हैं।”

लेकिन इसी रिपोर्ट में आमदनी की सर्वोच्च और मध्य श्रेणियों में शामिल लोगों के बीच खर्च क्षमता बढ़ने की हकीकत का भी जिक्र है। इसमें इस बात की ओर ध्यान खींचा गया है कि भारत में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद आज भी तीन हजार डॉलर से कम है। (असल में यह ढाई हजार डॉलर के आसपास ही है।)

रिपोर्ट में जिक्र है कि भारत में 96 करोड़ लोगों के पास डेबिट कार्ड हैं और सवा नौ करोड़ लोगों के पास पोस्ट पेड मोबाइल फोन कनेक्शन हैं। इसके बावजूद सिर्फ तीन करोड़ ऐसे लोग हैं, जिनके पास अपना वाहन (यानी कार) रखने की क्षमता है।

इस रिपोर्ट का अर्थ है कि भारत में 70 हजार रुपये से अधिक आय वर्ग में आने वाले लोगों की संख्या सिर्फ छह करोड़ है। उससे नीचे की सारी आबादी इस आय से कम पर गुजारा कर रही है। यह वो तबका है, जिसकी वास्तविक आय गिरी है। उसका एक कारण तो जीएसटी भी है। दूसरा कारण महंगाई है।

दिसंबर में मुद्रास्फीति दर चार महीनों के सबसे ऊंचे स्तर पर यानी 5.7 प्रतिशत पर पहुंच गई। लेकिन उसके बीच गौरतलब तथ्य है कि दिसंबर में खाद्य पदार्थों की महंगाई दर 9.5 प्रतिशत रही। शहरों में तो यह दस फीसदी से ऊपर रही।

भोजन सबसे अनिवार्य खर्च है। इसकी महंगाई दर वर्षों से आम मुद्रास्फीति दर से ऊपर बनी हुई है। यह अर्थशास्त्र की एक आम समझ है कि जिस परिवार की आमदनी जितनी कम होती है, उसका भोजन पर खर्च आय के अनुपात में उतना ही ज्यादा होता है। तो समझा जा सकता है कि गरीब और सामान्य वर्ग पर खाद्य महंगाई की अधिक मार पड़ती है। इसलिए उसकी आमदनी की क्रय-शक्ति गिरती गई है।

एक तथ्य यह भी है कि महंगाई बढ़ने के साथ सरकार की जीएसटी से होने वाली आमदनी भी बढ़ती है। सरकार यह टैक्स प्रतिशत में लेती है। तो 18 प्रतिशत टैक्स दायरे वाली कि एक वस्तु की कीमत दस रुपया होने पर सरकार को अगर एक रुपया 80 पैसे मिलेंगे, लेकिन उस वस्तु की कीमत 12 रुपया हो जाए, तो सरकार को दो रुपये छह पैसे का राजस्व मिलेगा। जीएसटी से अधिक उगाही के पीछे एक भी एक प्रमुख कारण है।

निहितार्थ यह कि गैर बराबरी की अर्थव्यवस्था समाज के ऊपरी आय वर्गों के लिए अत्यंत लाभदायक है, वहीं यह सरकार के लिए भी फायदे की बात है। इन दोनों के फायदों का नुकसान बाकी आबादी को हो रहा है। इसके बावजूद सत्ताधारी दल लोकप्रिय बना हुआ है, तो उसका अपना गतिशास्त्र है।   

दरअसल भारत की आज की राजनीतिक अर्थव्यवस्था (पॉलिटिकल इकॉनमी) को अगर समझना हो, तो ताजा सामने आए आंकड़े बेहद काम के हैं। आखिर जिसे हम लोकतंत्र कहते हैं, अक्सर उसमें वही पार्टियां सफल होती हैं, जिन्हें उस समाज के समृद्ध वर्ग का समर्थन हासिल हो। इसी वर्ग के पास पार्टियों को चंदा देने, उनके लिए प्रचार तंत्र जुटाने और किसी नैरेटिव को लोकप्रिय बना देने की क्षमता होती है। बाकी वर्गों के मतदाता उन्हीं नैरेटिव्स से प्रेरित होते हैं।

समृद्ध तबके अपना दांव उस पार्टी पर लगाते हैं, जिसकी नीतियां उन्हें अपने हितों के अनुकूल लगती हैं। फिलहाल यह समर्थन अगर भारतीय जनता पार्टी के साथ है, तो क्यों, यह उपरोक्त आंकड़ों से बेहतर समझा जा सकता है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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