Sunday, April 28, 2024

हकीकत क्या है ‘विकसित’ भारत के हल्ले की?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगले आम चुनाव के लिए ‘विकसित भारत’ को अपने प्रचार का मुख्य थीम (विषयवस्तु) बनाया है। इसके लिए हाल में देश भर में ‘विकसित भारत’ यात्रा निकाली गई। अपने भाषणों में मोदी 2027 तक (जब ब्रिटिश राज से भारत की आजादी के सौ वर्ष पूरे होंगे) भारत को विकसित देश बना देने का इरादा जताते हैं।

लेकिन जैसा कि उनके ज्यादातर राजनीतिक कथानकों में होता है, इस नैरेटिव की बारीकियों में जाने की कोशिश उनकी पार्टी या उनकी तरफ से नहीं होती है। वे यह स्पष्ट नहीं करते कि जब भारत ‘विकसित’ हो जाएगा, तब यहां क्या होगा- यहां के आम जन का जीवन स्तर कैसा होगा, और देश में सबके लिए किस तरह की सुविधाएं होंगी?

वैसे राजनेताओं के लिए अपने सियासी कथानक को अस्पष्ट रखना कोई नई बात नहीं है। राजनीति-शास्त्री ऐसे वादों को Empty Signifier यानी खोखला नारा कहते हैं। भारत में इसके लिए अब एक सटीक शब्द- ज़ुमला प्रचलित हो चुका है। यह शब्द नरेंद्र मोदी के ही एक अन्य Empty Signifier के संदर्भ में चर्चित हुआ। यह खोखला नारा था- अच्छे दिन आएंगे- जिसे मोदी ने 2014 के आम चुनाव में उछाला था।

राजनीति-शास्त्री एरनेस्तो लेकलाउ ने चुनावी राजनीति में Empty Signifiers के इस्तेमाल की विस्तृत व्याख्या की थी। इससे जो एक बात सामने आती है, वो यह है कि ऐसे नारे इस हद तक अस्पष्ट होते हैं कि अलग-अलग व्यक्ति और समुदाय उसका अपने ढंग से अर्थ निकाल सकें।

मसलन, अच्छे दिन आएंगे, जब कहा गया, तो हर तबके या व्यक्ति को संभवतः महसूस हुआ कि मोदी उसके भविष्य को वर्तमान की तुलना में बेहतर बना देंगे। इसी तरह जब डॉनल्ड ट्रंप ने 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में Make America Great Again का नारा दिया, तो उसका कोई स्पष्ट लक्ष्य नहीं था, जिसके मतलब को उनके समर्थकों ने अपने-अपने ढंग से समझा।

संभवतः उसी अंदाज में नरेंद्र मोदी अब ‘विकसित भारत’ का सपना उछाल रहे हैं।

मगर किसी देश के विकसित, विकासशील या अविकसित होने की कुछ ठोस कसौटियां दुनिया में तय हैं। (What Is a Developed Economy? Definition, How It Works, HDI Index)

इसलिए भले मोदी इस नारे का इस्तेमाल अच्छे दिन जैसा अस्पष्ट सपना बेचने के लिए कर रहे हों, मगर हमारे पास इसकी हकीकत की जांच करने का ठोस आधार मौजूद है। हम उन पैमानों पर आंकड़ों के आधार पर इस नारे को ठोस रूप से परख सकते हैं। हम यह जानने की स्थिति में हैं कि विकसित देश बनने की यात्रा में फिलहाल भारत अभी किस मुकाम पर है और उस मंजिल की तरफ जाने की उसकी रफ्तार क्या है?

तो पहले इस पर ध्यान देते हैं कि किसी देश को विकसित या विकासशील मानने के पैमाने क्या हैः

  • आर्थिक विकास और सामाजिक सुरक्षा का स्तर
  • प्रति व्यक्ति आय या प्रति व्यक्ति जीडीपी
  • इन्फ्रास्ट्रक्चर का स्तर और आय एवं धन के आधार पर विभिन्न वर्गों के लिए उनकी उपलब्धता की स्थिति। (गौरतलब है कि अगर किसी देश का सकल घरेलू उत्पाद ऊंचा हो, लेकिन वहां बुनियादी ढांचा कमजोर और आर्थिक गैर-बराबरी बहुत ज्यादा हो, तो उसे विकसित देश नहीं माना जाता है।)
  • संयुक्त राष्ट्र के मानव विकास सूचकांक पर संबंधित देश का स्तर, जिसमें जीवन प्रत्याशा एक महत्त्वपूर्ण पहलू है।
  • विश्व बैंक इस कसौटी पर भी किसी देश के विकास के स्तर को मापता है कि उसकी आर्थिक और वित्तीय नीतियां किस हद तक भूमंडलीकरण के अनुरूप हैं। विश्व बैंक की मान्यता है कि भूमंडलीकरण में शामिल होने से देशों के अंदर आय और जीवन स्तर में सुधार होता है। लेकिन यह पैमाना विवादास्पद है।

सबसे आम पैमाना प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का है। विश्व बैंक 13,250 डॉलर से अधिक प्रति व्यक्ति जीडीपी वाले देशों को विकसित श्रेणी में रखता है। पिछले साल तक चीन भी इस कसौटी को हासिल नहीं कर पाया था। इसलिए लगभग 19 ट्रिलियन डॉलर की जीडीपी के बावजूद उसे विकासशील देशों की श्रेणी में ही गिना जा रहा था।

विश्व बैंक के मुताबिक 2023 में भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी 2,411 डॉलर थी। 3.4 ट्रिलियन की सकल अर्थव्यवस्था के साथ भारत दुनिया में पांचवें नंबर पर जरूर था, लेकिन प्रति व्यक्ति जीडीपी के लिहाज से वह विश्व बैंक की 209 देशों की सूची में 159वें नंबर पर मौजूद था। इस लिहाज से वह निम्न मध्यम आय वर्ग की श्रेणी वाले देशों में था। भारत की औसत आय वैश्विक औसत के महज 19 प्रतिशत के बराबर थी।

वैसे विकसित देश बनने के लिए सिर्फ प्रति व्यक्ति जीडीपी का ऊंचा स्तर पर्याप्त नहीं है। इस मामले में यह उदाहरण दिया जाता है कि कतर में प्रति व्यक्ति जीडीपी 2021 के अंत में 62 हजार डॉलर से ऊपर थी। यानी वह बेहद ऊंचे स्तर वाले देशों में शामिल था।

मगर इन्फ्रास्ट्रक्चर की अपेक्षाकृत कमजोर स्थिति, देश में आय की चरम विषमता और कमजोर आर्थिक वर्ग वाले नागरिकों के लिए शिक्षा के पर्याप्त अवसर के अभाव के कारण उसे विकसित देशों की श्रेणी में नहीं गिना जाता था।

जीवन स्तर के पैमाने में जो बातें देखी जाती हैं, उनमें मानव विकास सूचकांक पर देश का दर्जा, देश की जीवन प्रत्याशा, और बाल मृत्यु दर शामिल हैं। ज्यादातर विकसित देशों में प्रति 1000 जन्म पर शिशु मृत्यु दर दस से कम है, जबकि व्यक्तियों की जीवन प्रत्याशा 75 वर्ष से ऊपर है। 

संयुक्त राष्ट्र के मानव विकास सूचकांक (HDI) को किसी देश में प्रगति को मापने का का उपयुक्त पैमाना समझा जाता है। आम समझ है कि जिस देश का एचडीआई अंक 0.9 या उससे ऊपर हो, उसे विकसित देश की श्रेणी में रखा जाता है। 2020 में नॉर्वे 0.957 के साथ एचडीआई रैंकिंग पहले नंबर पर आया था। (Developed Countries in the World 2023 – Wisevoter)

  • 2022 में भारत के एचडीआई अंक 0.633 प्रतिशत थे और सूचकांक में वह 132वें नंबर पर था।    
  • भारत में 2023 में जीवन प्रत्याशा 70.3 वर्ष थी।
  • भारत में शिशु मृत्यु दर 25 थी।

अब अगर बात इन्फ्रास्ट्रक्चर की करें, तो 2023 की सीएमएस ग्लोबल इन्फ्रास्ट्रक्चर इंडेक्स में भारत का स्थान 31वां रहा।

इसके साथ ही यह बात भी जरूर ध्यान में रखना होगा कि भारत में परंपरागत इन्फ्रास्ट्रक्चर हो या डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर- इनकी उपलब्धता में भारी विषमता है। देश की ऊपरी 20 से 25 फीसदी आबादी को जिस गुणवत्ता का इन्फ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध है, वैसा बाकी आबादी को नहीं है।

डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर के मामले में यह खाई कोरोना काल में बेनकाब हो गई थी। बहरहाल, वर्तमान भारत में सारा नैरेटिव सकल तस्वीर पर आधारित है, जिसमें आबादी के अलग-अलग हिस्सों की वास्तविक स्थिति को सिरे से नजरअंदाज किया जाता है।

इन्फ्रास्ट्रक्चर के साथ यह बात जुड़ी होती है कि इसके उपभोग के लिए किसी नागरिक को कितनी कीमत चुकानी पड़ती है। चूंकि भारत में अब सारा निर्माण निजी क्षेत्र में होता है, इसलिए इसमें शामिल मुनाफे का पहलू हर सेवा को इतना महंगा बना देता है, जिससे वह सेवा आबादी के बहुसंख्यक हिस्से की पहुंच से बाहर हो जाती है।

इस बात का ठोस उदाहरण विभिन्न शहरों में निर्मित मेट्रो रेल की सेवाएं हैं। भारत में हाई क्वालिटी के मेट्रो का निर्माण हुआ है। लेकिन हाल ही में आईआईटी-दिल्ली के एक अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ कि मेट्रो यात्रियों की वास्तविक संख्या अपेक्षित संख्या की तुलना में आधे से भी कम है। (Metros in India have less than 50% projected ridership, says IIT-D report)

यही बात एक्सप्रेस-वे सड़कों, बिजली, दूरसंचार, डिजिटल सेवाओं आदि पर भी लागू होती है। एक्सप्रेस-वे सड़कें पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप में बनी हैं, जिससे उन पर चलने के लिए महंगा टॉल टैक्स देना होता है। इसे वहन करना आम इनसान के वश में नहीं होता है।

साथ ही ऐसी सुविधाएं उपलब्ध जरूर हो जाती हैं, लेकिन उनसे कारोबार जगत को भी अपेक्षित फायदा नहीं होता है। उनके जरिए होने वाले माल वहन पर टॉल टैक्स इतना लग जाता है कि उपभोक्ता तक पहुंचते-पहुंचते उत्पाद की कीमत काफी बढ़ जाती है।

बहरहाल, ये वर्तमान की बातें हैं। प्रधानमंत्री ने नारा 2047 तक भारत को विकसित देश बनाने का उछाला है। तो इस नारे के समर्थक कह सकते हैं कि प्रधानमंत्री के पास अगले 23 साल में देश का काया पलट देने की जादुई योजना है। इसलिए यह परखना भी जरूरी है कि देश ने अभी जो दिशा पकड़ी हुई है, उससे किस मुकाम तक पहुंचने की आशा की जा सकती है।

तो पहले बात जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय की ही करते हैं। भारत के सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर इस समय दुनिया में सबसे तेज बताई जाती है। 2023-24 में भारत के जीडीपी में 7.9 प्रतिशत की दर से बढोतरी होने का अनुमान भारत सरकार ने लगाया है। मगर इस जीडीपी वृद्धि का अधिकांश हिस्सा वित्तीय क्षेत्र से आ रहा है, जिसका आम लोगों और आम हालात में सुधार से कोई संबंध नहीं है।

इसीलिए यह विरोधाभासी सूरत हमारे सामने है कि जिस समय अर्थव्यवस्था के तेज गति से बढ़ने का शोर है, उसी समय यह खबर भी आई है कि चालू वित्त वर्ष में प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि की दर 21 साल के सबसे निचले स्तर पर रहने वाली है। (FY24 per capita income growth may be one of lowest in 21 yrs)

संभवतः इसीलिए इन हालात से परिचित वैसे विशेषज्ञ भी प्रधानमंत्री के नए नारे से थोड़े अचंभित-से हैं, जो आम तौर पर सरकारी नैरेटिव को आगे बढ़ाने का काम करते हैँ। इस बात की मिसाल हाल में एक अंग्रेजी अखबार के स्तंभ में देखने को मिली, जिसमें विकसित भारत के वादे और बहुआयामी गरीबी सूचकांक पर भारत की प्रगति के सरकारी दावों के बरक्स कुछ तथ्यों को याद दिलाया गया- यह कहते हुए कि ऐसी सूरत के रहते विकसित भारत का निर्माण दूर की कौड़ी बना रहेगा।

  • इसमें कहा गया कि बहुआयामी गरीबी सूचकांक में शिक्षा एक पैमाना है, जिसका प्रसार हुआ है। लेकिन साथ ही यह टिप्पणी की गई- ‘स्कूलों में दाखिले का क्या लाभ है, जब शिक्षा की गुणवत्ता खराब बनी हुई है- जैसाकि प्रथम नाम की संस्था की ASER रिपोर्ट से सामने आया है।’
  • विश्व बैंक की 2.15 डॉलर (क्रय शक्ति समतुल्यता के साथ) प्रति दिन खर्च क्षमता आधारित चरम गरीबी के पैमाने पर आज भी भारत में 16 करोड़ चरम गरीबी की श्रेणी में मौजूद हैं।
  • ये गरीब लोग किस धंधे में हैं? इनकी बहुसंख्या कृषि क्षेत्र काम करती है। साथ ही गैर-कृषि क्षेत्र में ये मजदूर के रूप में काम करते हैं। इसलिए यह देखना महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि कृषि क्षेत्र में रोजगार का क्या हाल है और ग्रामीण इलाकों में वेतन दरों में कितनी वृद्धि हुई है।
  • 2009-20 से 2013-14 के दौर में (जब यूपीए-2 का शासन था) ग्रामीण इलाकों में कृषि क्षेत्र में वास्तविक मजदूरी औसतन 8.6 और गैर कृषि क्षेत्र में 6.9 प्रतिशत की सालाना दर से बढ़ी थी।
  • 2014-15 से 2018-29 (मोदी-1 शासनकाल) के दौरान यह दर गिर कर क्रमशः 3.3 प्रतिशत और 3 प्रतिशत रह गई। 2019-20 से 2023-24 (मोदी-2 शासनकाल) में यह दर माइनस में चली गई। इन वर्षों में यह दर -0.6 और -1.4 प्रतिशत रही है। यानी ग्रामीण इलाकों कृषि और गैर कृषि दोनों कार्यों में लगे मजदूरों की वास्तविक आय घटी है। (In Viksit Bharat, rural real wages are in decline)

तो जहां देश में प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि दर में रिकॉर्ड गिरावट आई है, वहीं ग्रामीण मजदूरी वास्तव में घट रही है। तो साफ है कि देश प्रगति के बजाय के आर्थिक अवनति की दिशा में चल पड़ा है। जहां तक सकल घरेलू उत्पाद की तीव्र वृद्धि दर की बात है, तो तेजी से वित्तीय पूंजीवाद में तब्दील होती जा रही इस अर्थव्यवस्था में सारे लाभ उन सीमित वर्गों के हाथ में सिमट रहे हैं, जो संपत्ति पर रेंट कमा सकने में सक्षम हैं। जो लोग मेहनत-मजदूरी और उत्पादन-वितरण की अर्थव्यवस्था से जुड़े हैं, उनकी माली स्थिति तेजी से बिगड़ रही है।

जैसाकि वैश्विक अनुभव है, वित्तीय अर्थव्यवस्था समाजों में गैर-बराबरी तेजी से बढ़ाती है। वही भारत में हो रहा है। आर्थिक रूप से अधिक विषम होते जाना भी विकसित देश बनने की विपरीत दिशा में जाना होता है। इस दिशा के साथ भारत विकसित देश की प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त कर सकता। वैसे भी वित्तीय अर्थव्यवस्था एक सीमा के बाद बबूले (bubble economy) में तब्दील हो जाती है।

1997 में पूर्वी एशिया में, 2008 में अमेरिका में और उसके बाद कई यूरोपीय देशों में इस बबूले के फटने का परिणाम हम देख चुके हैं। जब ऐसा होता है तो अर्थव्यवस्था का आकार अचानक उससे बहुत छोटा दिखने लगता है, जैसा बबूले के दौर में दिखता था। भारत के लिए यह एक उपयुक्त चेतावनी है।

तो कुल कहानी यह उभरती है कि विकसित भारत का कथानक देश को किसी मुकाम पर ले जाने का संकल्प नहीं, बल्कि एक खोखला नारा है, जिसे चुनाव के मद्देनजर गढ़ा गया है। चूंकि आजकल ऐसे नारे सफल हो रहे हैं, तो मुमकिन है कि यह भी जनमत के एक हिस्से को प्रभावित करने में कामयाब हो जाए। लेकिन उससे देश के विकसित होने का रास्ता नहीं निकलेगा। हां, भारत की राजनीतिक शब्दावली में एक जुमला और दर्ज हो जाएगा।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

एक बार फिर सांप्रदायिक-विघटनकारी एजेंडा के सहारे भाजपा?

बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद हमेशा से चुनावों में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए सांप्रदायिक विघटनकारी...

Related Articles

एक बार फिर सांप्रदायिक-विघटनकारी एजेंडा के सहारे भाजपा?

बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद हमेशा से चुनावों में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए सांप्रदायिक विघटनकारी...