भारत में जाति: मालिकाने तो बदले लेकिन श्रमिकों के हाथ नहीं !

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भारतीय समाज के हर पहलू में जातिवाद का जहर घुला दिखता है। अर्थव्यवस्था, राजनीति, समाज, अकादमी, संस्कृति, खान-पान और शादी-विवाह, साहित्य और सामाजिक-संघर्षों के टूटने-बिखरने तथा मौत-बलात्कार के हम सभी साक्षात गवाह हैं जिनमें जाति अपना तांडव करती हुई दिखती है।

जाति भारतीय समाज की एक खासियत है। जो आर्थिक और विचारधारात्मक रूप में सामने आती है। जाति सामाजिक श्रम के आर्थिक बंटवारे को दर्शाती है तथा परम्परा इसकी प्रकृति, इसका स्वभाव, इसकी आत्मा है। जाति की संरचना हमेशा जड़ और अपरिवर्तनशील रही है। भारत में वर्ग हमेशा जाति के रूप में ही सामने आया है। उत्पादन प्रणालियां बदलती रही, ज़मीनों के मालिकाने बदलते रहे। लेकिन श्रम करने वाले श्रमिकों का समूह कभी नहीं बदला, जो सब कुछ पैदा करते हैं। ये पैदा करने वाली हमेशा मेहनतकश निचली जातियां ही रही। साथ ही साथ जाति की विचारधारा भी यहां अपने जड़ रूप में निरंतर बनी रही। बल्कि भारत में शोषण, उत्पीड़न और वंचना बनाये रखने में, दूसरे देशों की अपेक्षा जातिवादी विचारधारा की अहम भूमिका है। जिसकी वजह भारत के ऐतिहासिक विकास में है।

हमारा मानना है कि वर्तमान भारत में जातिवादी संरचना मौजूद है। यहां की “जाति” ही “वर्ग” है। इसलिए हम “जाति-वर्ग” कहना उचित समझते हैं। मेहनतकश जाति-वर्ग का मुख्य अंतर्विरोध भारतीय कनिष्ठ पूंजीवाद-ऊपरी जाति और इसके आका साम्राज्यवाद से तथा ब्राह्मणवादी विचारधारा से है। यह अंतर्विरोध आर्थिक और विचारधारात्मक दोनों स्तर पर है। दोनों एक-दूसरे को बढ़ाते हैं और मेहनतकश जाति-वर्ग को गुलामी, शोषण, उत्पीड़न और वंचना के पारावार में डुबाते हैं।

एक क्रांतिकारी का वक्तव्य उपरोक्त बात की पुष्टि करता है; उनके अनुसार, “उत्पादन की आर्थिक परिस्थितियों की भौतिक तब्दीली –जिसे प्राकृतिक विज्ञान की ही तरह ठीक-ठीक ढंग से निश्चित किया जा सकता है–तथा कानूनी, राजनीतिक, धार्मिक, सौन्दर्य-संबंधी, अथवा दार्शनिक रूपों की, संक्षेप में विचारधारा के उन रूपों की तबदीली के बीच एक अन्तर है जिसमें मनुष्य इस संघर्ष की चेतना प्राप्त करते है और निपटारे के लिए लड़ते हैं।”

इसलिए हमें भी जातिवादी संरचना के खिलाफ मुख्यत: विचारधारा के क्षेत्र में ही लड़ना पड़ेगा। हम जातिवाद को अच्छे से समझने के लिए कुछ सवाल खड़े करते हैं; पहला, कौन सा जाति-वर्ग है जो ब्रिटिश उपनिवेशवाद के पहले, उसके दौरान और आजादी के बाद भी निरंतर ऊपरी जाति-वर्ग को उसकी जरूरत की चीजें पैदा करके खिलाता है?

दूसरा, जाति-वर्ग की संरचना को कैसे बनाकर रखा जाता है? और वह कौन सी विधि है जो धनवान जाति-वर्ग को धन पैदा करने वाले जाति-वर्ग के प्रतिशोध से सुरक्षित रखती है?

हमारा मानना हैं कि वे पैदा करके खिलाने वाले जाति-वर्ग दलित, आदिवासी और गरीब किसान ही रहे हैं। इस गुलामी, शोषण, उत्पीड़न और वंचना को राज्य-सत्ता के बल पर बनाकर रखा गया। लेकिन इसको बनाये रखने में राज्य-सत्ता के बल से बड़ी भूमिका विचारधारा की रही है। 

उपरोक्त कथन की पुष्टि के लिए भारतीय इतिहास पर एक सरसरी नजर डालना जरूरी है। भारतीय समाज में जातिवाद अपने जड़ और अपरिवर्तनीय रूप में आत्म-निर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था के साथ ही स्थापित हुआ था। जिसको हम जजमानी-प्रथा भी कहते हैं। इसकी अपनी आर्थिक और विचारधारात्मक विशेषताएं थी।

थोड़े में, आर्थिक व्यवस्था, राजा-महाराजा, सुल्तान-बादशाह, नवाब-जगीरदार और जमींदार ज़मीनों का मालिकाना रखते थे। एक गांव या उससे अधिक गांव की जमीन जोतने का हक किसी एक ऊपरी जाति को सौंप दिया करते थे। जमीन किसी की निजी मिल्कियत नहीं होती थी। वह ऊपरी जाति उस गांव के जमीन जोतने वाली शूद्र जाति को समूहिक तौर पर कर के बदले जमीन जोतने का अधिकार देती थी। इस जाति का हरेक सदस्य सामूहिक जमीन में से एक हिस्सा जोतने के लिए प्राप्त करता था। यानि जमीन का कोई निजी मालिकाना नहीं होता था और बेचा-खरीदा नहीं जा सकता था।

बढ़ई और दूसरी कर्मकार जातियां जैसे लुहार, कुम्हार, नाई, जुलाहा, दर्जी, मोची, सुनार आदि बेचने-खरीदने (commodity) के लिए उत्पादन नहीं करती थी। ये सारी जातियां खेती करने वालों पर निर्भर थी।

गांवों को सचेत तौर पर शांतिपूर्ण बनाया गया था और उनसे हथियार रखने का अधिकार छीन लिया गया था। कुलमिलाकर मुगलों तक थोड़े-बहुत फेर-बदल के साथ यहीं आर्थिक व्यवस्था जारी रही।

उपरोक्त अर्थव्यवस्था को बनाये रखने में विचारधारा एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थी। जिसमें हजारों सालों से चली आयी परम्पराएं जान फूंकती थी। परंपरा एक ऐसी चीज है जो अतीत से वर्तमान तक चली आयी किसी प्रथा, धारणा और कार्यशैली को कहते हैं। परम्परा जाति का स्वभाव, उसकी प्रकृति, उसकी आत्मा है।

ये परम्पराएं हैं कि ब्राह्मण कोई भी शारीरिक कार्य नहीं करेगा। उसके छ: कर्तव्य बतायें गए हैं– वेदों का अध्ययन और अध्यापन, अपने लिए तथा दूसरों के लिए पूजा-पाठ करना, उपहार लेना और देना। इन मानसिक और परजीवी कार्यों ने ब्राह्मण को मेहनतकश जाति-वर्ग से काट दिया। इन पढ़े-लिखे ब्राह्मण विद्वानों को जाति-वर्ग से पैदा हुई गैरबराबरी से कोई लेना-देना नहीं था।

अपनी परजीविता और शोषण के इस मानसिक और शारीरिक बंटवारे को बनाए रखने के लिए ब्राह्मण ने मेहनतकश जाति-वर्ग का ध्यान उनकी भौतिक जरूरत से और साथ ही उनकी स्वतंतत्रता से भटकाया। उन्हें अध्यात्म की ओर मोड़ दिया। इस आध्यात्मिक भटकाव ने मेहनतकश जाति-वर्ग को इस बात की अनुभूति से दूर रखा कि हमारी भौतिक जरूरतों के लिए विज्ञान बहुत जरूरी है। इसलिए मानसिक और शारीरिक श्रम अलग-अलग होने के चलते तकनीक का विकास बिल्कुल नहीं हो पाया।

ब्राह्मणों ने अपनी परजीविता को बनाए रखने के लिए एक ही जाति-वर्ग में शादी-विवाह और अपने से नीची जाति-वर्ग का पकाया हुआ खाना वर्जित कर दिया। औरतों की आजादी पर सुचिता के नाम पर वफादारी की हथकड़ी-बेड़ी डाल दी। आदिवासी कबीलों के अलगाव से आयी क्षेत्रीयता, अजनबीपन, और गांव के गंवारूपन को जान-बूझकर बढ़ावा दिया जिससे कि वह आगे बढ़कर धार्मिक जड़सूत्र बन जाए तथा मेहनतकश जाति-वर्गो में एका और तर्क करने की बुद्धि का विकास ना हो।

उपरोक्त सचेत झूठ और धोखे को धर्म के पालन और उसकी रक्षा के लिए जरूरी बताया। तथा मेहनतकश जाति-वर्ग के लिए लच्छेदार और बहुअर्थी संस्कृत भाषा का प्रयोग किया जिससे कि वे सच न समझ सके। आखिरकार धर्म को ऐसे पेश किया कि वह मेहनतकश जाति-वर्ग की सुरक्षा के लिए है।

इस तरह मेहनतकश जाति-वर्ग अपनी गुलामी, शोषण, उत्पीड़न और वंचना की विचारधारा, परम्परा और संस्कृति को अपनी उद्धारक मानने लगी और इसका झंडाबरदार तथा उसके सामने सम्पूर्ण आत्मसमर्पण कर दिया। ये ही अस्थाएं और विश्वास उनकी आजादी और भौतिक जरूरतों की प्राप्ति– रोजी-रोटी, मकान, शिक्षा-स्वास्थ्य और मान-सम्मान- में हथकड़ी-बेड़ी बन गयी।

धार्मिक और विचारधारात्मक सुरक्षा की जड़ें बहुत गहरी हैं और इस सुरक्षा के लिए कर्मिक समूह द्वारा अपनी बनाई गयी चीजें खुद लेजाकर परजीवी ऊपरी-वर्ग को देने की परम्परा थी। हड़प्पा सभ्यता में सभी सामान बनाने वाले समूह जिनमें बढ़ई, लुहार, बुनकर, आदि कर्मिक लोग थे। ये समूह खुद ही मातृ-देवी के नाम पर अपने सामान का एक बड़ा हिस्सा ऊपरी-वर्ग और पुजारी के यहां पहुंचा आते थे। इनकी ऐसी मानसिकता थी कि मातृ-देवी हमारी हर तरह से सुरक्षा करेगी। इसी धार्मिक सुरक्षा की आस्था और विश्वास को आर्य ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने आगे बढ़ाया।

सवाल ये है कि ये धार्मिक, वैचारिक, सांस्कृतिक, मनोवृत्ति इतने हजारों सालों से कैसे जिंदा हैं और मजबूत ही होती जा रही हैं। इसकी वजह भारत की भौगोलिक बनावट में है। यहां कभी ऐसा समय नहीं आया कि लोगों को खाना-पीना मिलना बंद हो जाए। हिमयुग के समय भी ऐसा नहीं हुआ था जबकि यूरोप वगैरह में हिमयुग के दौरान पहले के समुदाय ज़्यादातर नष्ट हो गए थे। दूसरी वजह सामाजिक क्रांतियों में है जो भारत में कभी पूरी तरह नहीं हुई है।

अब हम पूरे दावे के साथ यह कह सकते हैं कि आजादी के बाद भारत की उत्पादन प्रणाली में बदलाव आया लेकिन अतीत की मेहनतकश जाति-वर्ग श्रम करने वाली ही रही। वह सारी दौलत पैदा करके ऊपरी जाति-वर्ग की तिजोरियां भरता रहा और खुद गुलाम, शोषित उत्पीड़ित और वंचित ही रहा। तथा उसकी विचारधारात्मक-धार्मिक दिमागी गुलामी और आत्म-समर्पण की अंतर्वस्तु में कोई बदलाव नहीं आया। भले ही रूप में कुछ बदलाव आ गए हो।

आजादी के बाद भारतीय पूंजीवाद ने जमीन को खरीद-बिक्री की वस्तु में बदल दिया। गांव की आत्म-निर्भर अर्थव्यवस्था को खत्म कर दिया। कर्मिक जातियों – बढ़ई, लुहार, कुम्हार, नाई, जुलाहा, दर्जी, मोची, सुनार- के लिए गांव में अब नाम-मात्र के ही काम बचे हैं। लेकिन पूंजीवादी उधोग इन्हें पूरी तरह समाहित नहीं कर पाये हैं। जिसकी वजह से ये कर्मिक और खेत मजदूर पूरी तरह गांव की पुरानी जातिवादी व्यवस्था से आजाद नहीं हो पाये तथा कहीं न कहीं उसी पुरानी ग्रामीण आर्थिक-व्यवस्था से जुड़े रहते हैं और ब्राह्मणवादी विचारधारा, संस्कृति तथा परम्पराओं से नाभि-नाल जुड़े रहते हैं। क्योंकि, उन्हें जाति ही एक ऐसा संगठन दिखता है जो ऊपरी जातियों-वर्गो तथा पूंजीपतियों से उनकी एक हद तक सुरक्षा करता है। चाहे वह आरक्षण का मुद्दा हो, चाहे दमन-उत्पीड़न का।

लेकिन फिर भी सारे देशी-विदेशी उधोग-धन्धे इन्हीं मेहनतकश जाति-वर्ग के मज़दूरों के दम पर चलते हैं। अभी निचले दर्जे के सारे तकनीकी मजदूर इन्हीं निचली जतियों से तैयार किए जा रहे हैं। देश-विदेशों में जाने वाले और कन्स्ट्रक्शन, घरों में, खेतों में, शहरी नगरपालिकाओं में तथा युद्धरत देशों में काम करने वाले यहीं निचली जातियों-वर्गों के लोग हैं। सरकार इन निचली जातिवादी-वर्गवादी पेशों को खुलेआम प्रोत्साहन देती है। तरह-तरह की जातिवादी योजनाएं चलाती है। एप्पल जैसी कंपनियों के हॉस्टल में बंधुआ-मजदूर की तरह रहने वाली औरतें इन्हीं निचली जातियों-वर्गों की हैं, जो 18 साल से 25 साल की हैं। अतीत की सभी मेहनतकश जाति-वर्ग आज भी गुलामी, शोषण, उत्पीड़न और वंचना का दंश झेलने को लाचार हैं।

भारतीय पूंजीवाद, निचली जाति-वर्ग के लोगों को पूरी तरह से फैक्टरियों में काम नहीं दे पाया है। एक ऐसा मजदूर नहीं पैदा कर पाया जो सभी पुराने कूड़े-कचरे से मुक्त हो और सिर्फ और सिर्फ अपनी मजदूरी के दम पर ही जिंदा रहे। क्योंकि खुद यहां का पूंजीपति अपने जन्म से ही पिछड़ा हुआ और विदेशी पूंजीवाद पर निर्भर रहा है। दूसरा, जब भारत आजादी के बाद देशी पूंजीपतियों के हाथ में आया, तब पूंजीवादी क्रांतियों का दौर खत्म हो चुका था। पूरी दुनिया में मेहनतकश मजदूर-किसानों नें क्रांति का बिगुल फूंक रखा था। इसलिए भारतीय पूंजीवाद बहुत डरा-सहमा, फूंक-फूंककर पैर रखने वाला और कुछ भी क्रांतिकारी कदम न उठाने वाला रहा है।

सरकार और ऊपरी जाति-वर्ग के पूंजीपति ब्राह्मणवादी विचारधारा का स्तुतिगान कर रहे हैं वो किसी से छिपा नहीं है। मंदिर निर्माण, पाठ्यक्रम में अतीतोन्मुख बदलाव, औरतों की आजादी पर हमले,धार्मिक उन्माद आदि-आदि। ऊपर से पूंजीवादी व्यक्तिवाद, प्रतिस्पर्धा, अवसरवाद और मौकापरस्ती तथा पशु-प्रवृत्ति (animalinstinct) को खुलेआम बढ़ावा दिया जा रहा है।

थोड़े में, अतीत की मेहनतकश जाति-वर्ग आज भी ऊपरी जाति-वर्ग के पूंजीपति और उनके आका साम्राज्यवादियों के जुए के नीचे पिस रहे हैं, कराह रहे हैं। अर्थव्यवस्था के साथ-साथ जिसकी मुख्य वजह है: ब्राह्मणवादी-पूंजीवादी विचारधारा और मेहनतकश जाति-वर्ग द्वारा इसको अंगीकार कर लेना तथा अपने जीवन का मार्ग-दर्शक बना लेना।

इस जातिवाद का विनाश कैसे हो?

अर्थव्यवस्था में सबको हिस्सेदारी मिलनी चाहिए। ब्राह्मणवादी-पूंजीवादी विचारधारा की जगह वैज्ञानिक, सामूहिकता, और बराबरी की विचारधारा का प्रचार-प्रसार हो।

अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी का मतलब है दुबारा भूमि सुधार हो और सभी में भूमि वितरण किया जाये। भूमि वितरण देश के अलग-अलग भागों के अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकता है। देश की तमाम जोतने योग्य जमीन का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाना चाहिए तथा सबसे निचली जाति-वर्ग को ज़मीनों का मालिक बनाया जाना चाहिए। मालिकाना भिन्न-भिन्न परिस्थितियों के अनुसार अलग-अलग हो सकता हैं। कहीं निजी, कहीं सहकारी तथा कहीं-कहीं कम्यून आधारित मालिकाना अपनाया जा सकता हैं तथा इसको सबके सहयोग और सलाह से सबकी साझी संपत्ति की ओर ले जाया जा सकता है। ताकि सबकी जरूरतें भी पूरी हो जाए और ज़मीनों का अंधाधुंध दोहन भी न हो। जिससे की हमारी आगे आने वाली पीढ़िया भी इस जमीन में खा-कमा सके और अपना जीवन यापन कर सके।

उधोग-धन्धों को भी साम्राज्यवादी-निर्यात आधारित न बनाकर देश की जरूरतों के हिसाब से पुन: निर्मित करना चाहिए। जिनका मालिकाना उस क्षेत्र के मेहनतकश जाति-वर्ग के हाथ में सामूहिक तौर पर होगा। वही उसका प्रबंधन करेंगे और निर्णय लेंगे। जो क्षेत्र विशेष को ध्यान में रखते हुए अपने देश की जरूरतों के हिसाब से हो। यानि खेती के आसपास जरूरतों के हिसाब से छोटे-छोटे उधोग-धंधे बनाये जा सकते हैं। जिनमें लोगो को रोजगार भी मुहैया होगा और जरूरतों की सामग्री भी उत्पादित होगी। इनके अनुसार अपनी देशी तकनीक का भी विकास किया जा सकता है। जिसके लिए देश में जरूरी शिक्षा, वैज्ञानिक और कच्चा माल उपलब्ध है। इससे हमारी विदेशों पर परनिर्भरता घटेगी और हम आत्म-निर्भरता की ओर लंबे डग भरेंगे।

देश की दूसरी बड़ी जरूरतों के लिए अलग से बड़े कारखाने लगाने चाहिए जिनका मालिकाना मेहनतकश जाति-वर्ग की सरकार के हाथों में हो और पूरे देश तथा प्रकृति के साथ सामंजस्य को ध्यान में रखते हुए उत्पादन किया जाये। ना कि विदेशों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए और प्रकृति का विध्वंस करते हुए।

ब्राह्मणवादी और पूंजीवादी विचारधारा और मूल्य-मान्यताओं के खिलाफ एक सशक्त वैज्ञानिक और समाजपरक जन-आंदोलन चलाया जाएगा। जिससे शिक्षा पद्धति से लेकर समाज का कोई भी पहलू अछूता नहीं रहेगा।

निष्कर्ष के तौर पर, हम कह सकते हैं कि ऊपरी जाति-वर्ग और देशी-विदेशी पूंजीवाद जातिवादी सामाजिक संरचना को बनाये रखना चाहते हैं, जिससे कि वे मेहनतकश जाति-वर्ग का शोषण, उत्पीड़न जारी रख सके। ऐसा वे ब्राह्मणवादी और पूंजीवादी विचारधारा के दम पर करते हैं। इसलिए मेहनतकश जाति-वर्ग को गुलामों, शोषितों, उत्पीड़ितों और वंचितों की एकता कायम करनी चाहिए और अपनी गुलामी की जंजीरें तोड़ने के लिए उठ खड़ा होना चाहिए।

हमारी ज़बानों पर देश के कारखानों और ज़मीनों के मालिकाने के नारे गूंजने चाहिए, जिनको हमने अपने खून-पसीने से सींचा है और परवान चढ़ाया है। हमारी मुट्ठियां ब्राह्मणवादी-पूंजीवादी विचारधारा और मूल्य-मान्यताओं के खिलाफ तनी होनी चाहिए तथा समाजपरक और विज्ञानपरक मुक्तिकामी शिक्षा के जन-आंदोलन की सुरक्षा में उठनी चाहिए। तभी हम आजाद और सिर उठाकर जी सकेंगे और एक समतापूर्ण समाज के निर्माण कार्य में लग सकेंगे।

(हरेंद्र का लेख)

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