परकला प्रभाकर का लेख: इस आम चुनाव में मोदी सरकार के मुकाबिल शांतचित्त नागरिक समाज प्रबल चुनौती बनकर खड़ा है 

Estimated read time 1 min read

2024 लोकसभा चुनाव में मोदी सरकार के खिलाफ विभिन्न राजनितिक दल और मंच एक झंडे तले एकजुट होकर लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन इसके बनिस्बत, नागरिक समाज की ओर से बेहद शांत भाव और कहीं ज्यादा दृढ़ता से चुनौती पेश की जा रही है। 

समूचे देश के अनेकों नागरिक संगठन, जिनमें खुद के लिए कोई कुर्सी हासिल करने की कोई इच्छा नहीं है, के बीच अपने गणतंत्र में हासिल मूलभूत मूल्यों की रक्षा के लिए ग़जब उत्साह देखने को मिल रहा है। मोदी राज के पतन की प्रमुख वजह उनके प्रयासों का परिणाम होगा। विपक्षी दल तो उन प्रयासों से हासिल होने वाले लाभ के मात्र हितधारक बनने जा रहे हैं।

लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मौजूदा शासन हार की सूरत में चुपचाप गद्दी छोड़ने जा रही है, क्योंकि उसका काफी कुछ दांव पर लगा हुआ है। इसके कई मजबूत सुबूत हैं जिससे साफ़ नजर आता है कि सरकार अपनी हार की हर संभावना को बाधित करने के लिए कदम उठा रही है। इससे पहले कि हम इस तथ्य पर विचार करें कि मौजूदा शासन अपनी हार के लिए क्यों चिंतित है और हार की सूरत में वह किस बात को लेकर घबराई हुई है, हमें उन तमाम उपायों पर एक बार फिर से गौर करना होगा जिन्हें शासन के द्वारा खिलाफ जनादेश की संभावना के तहत पहले से उठा रखे हैं।  

इसके लिए सरकार ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका को खत्म कर दिया है। अब सरकार द्वारा नियुक्त चुनाव आयुक्तों के द्वारा इस सरकार के हित में काम किया जाता है या नहीं इस बारे में अनुमान या संदेह अपनी जगह पर कायम है। लेकिन आज के दिन इसकी निष्पक्षता पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है यह एक चिंताजनक सच्चाई है।

चुनाव आयोग ने जिस प्रकार से इस बार चुनाव को बिना मतलब के लंबा खींचकर अविवेकपूर्ण घोषणा कर सत्तारूढ़ दल की प्राथमिकता को वरीयता दी है, उससे यह शक पुख्ता होता है। प्रधानमंत्री और सत्तारूढ़ दल के अन्य नेताओं के द्वारा जिस प्रकार से खुलेआम आदर्श आचार संहिता की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं उससे चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर एक बड़ा सवालिया निशान खड़ा हो रहा है। 

इसके साथ ही मोदी सरकार ने कांग्रेस पार्टी के बैंक खातों को फ्रीज़ कराकर अपने सबसे बड़े विरोधी दल को पूरी तरह से लकवाग्रस्त कर दिया है। इसने एक पूर्व मुख्यमंत्री सहित एक मौजूदा मुख्यमंत्री को जेल में डाल दिया है। इन दो नेताओं को जेल में डालकर सरकार ने इन्हें अपने खिलाफ चुनाव प्रचार में हिस्सा लेने से रोक दिया है और विपक्ष के हमले को काफी हद तक कमजोर बना डाला है। 

चुनावी प्रकिया का समूचा मर्म ही खोखला बना दिया गया है। मोदी सरकार ने अपने उम्मीदवारों के निर्विरोध निर्वाचन को सुनिश्चित करने के लिए मनमाने ढंग से अनुचित और बाहुबल का प्रयोग करने में कोई कोताही नहीं बरती है। मुख्य विपक्षी पार्टी से संबंध रखने वाले कई उम्मीदवारों के नामांकन पत्रों को अवैध करार दे दिया जाता है।

छोटे दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों को अपना नाम वापस लेने के लिए दवाब डाला जा रहा है, और कुछ उदाहरण में तो यह भी देखने को मिला है कि उन्हें अपना नामांकन पत्र जमा करने से भी रोका गया। कई निर्वाचन क्षेत्रों से ऐसी भी रिपोर्ट हैं कि जिन लोगों पर सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ मतदान करने का संदेह था, उन्हें मतदान करने से भी रोका गया। सरकार की जांच एजेंसियों को विरोधी पार्टियों के नेताओं को जबरन दल-बदल करने के लिए इस्तेमाल में लिया गया। कुछ क्षेत्रीय दलों के नेताओं को तो खुलेआम डरा-धमकाकर सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल कराया गया है।  

प्रधानमंत्री ने सरकारी मंचों का इस्तेमाल कर एक बार फिर अपनी वापसी की घोषणा कर आम लोगों के सामने नतीजे क्या होंगे की घोषणा कर दी थी। पीएम मोदी ने इसे संसद के भीतर सिर्फ अपनी उम्मीद के तौर पर जाहिर नहीं किया था, बल्कि सत्ता में उनकी वापसी शत-प्रतिशत होने जा रही है, के तौर पर उद्घोषणा की थी। उन्होंने तो सरकार में वापसी के साथ अपनी पार्टी को कितनी बड़ी संख्या जीत मिलने जा रही है, तक की घोषणा की हुई है। उनके द्वारा हर संभव इस बात का प्रयास किया गया है कि जनता को ये न लगे कि वे कोई मामूली प्रधानमंत्री हैं जिसे लोकप्रिय जनादेश के माध्यम से अपनी सत्ता में वापसी की बाट जोहनी पड़ रही है।    

आइये अब उन चीजों पर नजर दौड़ाते हैं, जिसमें सत्ता छिन जाने के बाद इस सरकार का क्या कुछ दांव पर लगा हुआ है। 

इलेक्टोरल बांड्स के विवरणों को हर हाल में सार्वजनिक न होने देने के लिए किये गये ताबड़तोड़ प्रयास अब सार्वजनिक क्षेत्र में आने लगे हैं। यह तो सुप्रीम कोर्ट का हठ था, जिसके चलते स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया को आखिरकार मजबूर होकर इलेक्टोरल बांड्स के माध्यम से किन राजनीतिक दलों को कितना चंदा मिला है, का सारा विवरण सार्वजनिक करना पड़ा। सत्तारूढ़ पार्टी और इसके दानदाताओं के बीच में हजारों करोड़ रुपये के लेनदेन के माध्यम से कैसे क्विड प्रो को का सारा खेल हुआ, ये बातें अब आम लोगों के संज्ञान में आ चुकी हैं। अगर यह इस सरकार की विदाई का वक्त होता तो शत्रुतापूर्ण भाव रखने वाली सरकार की जांच कई और सारे विवरणों का खुलासा कर सकती थी।  

लेकिन अब सत्तारूढ़ दल संभवतः इस बात से चिंतित है कि अगर सरकार से उसकी विदाई होती है, तो पीएम केयर्स फंड में पैसे की आवाजाही के विवरणों का भी खुलासा होना निश्चित है। इसके अलावा मोदी सरकार ने राफेल सौदे में गहन जांच को भी सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ के समक्ष सीलबंद लिफाफे में सूचना भिजवाकर पूरे मामले को दबा दिया था। सत्ता जाने पर बहुत संभव है कि इस सौदे की फाइल एक बार फिर खुल सकती है। इसी प्रकार, सैन्य स्तर वाले निगरानी सॉफ्टवेयर, पेगासस की भी पूरी तरह से जांच होनी बाकी है। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय इस सरकार से जासूसी उपकरण की खरीद को लेकर उससे हां/ना तक में जवाब ले पाने में विफल रही। इसकी गहन जांच की संभावना प्रबल है।  

अनेकों सार्वजनिक संपत्तियों को जिस प्रकार से इस सरकार के क्रोनी मित्रों को कौड़ियों के भाव में बेचा गया, उन दबी-ढकी प्रकियाओं के खुलासे से हिंदुत्व-क्रोनी पूंजीपति गठजोड़ के रहस्य का पर्दाफाश संभव है। खोजी पत्रकारों ने इस बात का पता लगाया है कि पिछले दस वर्षों के दौरान भाजपा ने आधिकारिक तौर पर जितना चंदा पाने की बात स्वीकार की है, और जितना भाजपा खर्च कर चुकी है, उसमें 60,000 करोड़ रुपये का अंतर है। मौजूदा निज़ाम निश्चित ही ऐसी किसी जांच से घबरा रही होगी। 

यदि मौजूदा शासन सत्ता में अपनी वापसी को सुनिश्चित नहीं कर पाई तो इसके द्वारा किये गये भ्रष्टाचार, छल-प्रपंच और पर्देदारी आम लोगों के सामने उजागर हो सकती है। मोदी सरकार के द्वारा जिस प्रकार आंकड़ों के साथ हेराफेरी की गई है, उसके साथ-साथ मौद्रिकरण, भ्रष्ट लेनदेन, विदेशों में जाकर दुस्साहसिक कृत्य को अंजाम देने जैसे विषयों पर जांच हो सकती है। ये चीजें न सिर्फ मौजूदा सत्तारूढ़ नेतृत्व बल्कि इसके पथ-प्रदर्शक राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ को भी मुश्किल में डाल सकती है। 

इन जांचों से जो विवरण सामने आ सकते हैं उनमें यह क्षमता है कि इनके लिए निकट भविष्य में सत्ता में अपनी वापसी के लिए जिस सम्मान की दरकार होती है उसे हासिल करने में दशकों लग जायें। मोदी-शाह की करतूतों का अगर खुलासा हो जाता है तो इससे हिंदुत्ववादी शक्तियों को इस कदर नुकसान हो सकता है जिसकी तुलना महात्मा गांधी की हत्या से इन्हें जो नुकसान झेलने को मिला था, से ही की जा सकती है। 

इनके खाते में ऐसे तमाम बदनुमा दाग भरे पड़े हैं, जिससे परेशान भाजपा और इसके मार्गदर्शक संगठन के लिए मजबूत विपरीत चुनावी परिस्थितियां स्वाभाविक तौर पर चिंता का सबब होनी चाहिए। इसलिए, सत्ता में बने रहने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। इसके साथ ही, सत्ता की गद्दी को खाली करने का अर्थ होगा हिंदू राष्ट्र की परियोजना का खात्मा। अपने शताब्दी समारोह से मात्र एक वर्ष दूर, इस परियोजना की सूत्रधार आरएसएस इतने बड़े झटके को वहन करने की स्थिति में नहीं है।    

ऐसे में, इस बात की पूरी संभावना है कि मौजूदा निज़ाम इस चुनाव को अपने पक्ष में चोरी करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। इससे पहले के आम चुनावों के विपरीत, मौजूदा चुनाव 1 जून को होने वाले अंतिम चरण के मतदान और 4 जून को चुनाव परिणामों की घोषणा के साथ खत्म हो जायें, इसकी संभावना कम है। 

भारत को मतगणना वाले दिन के बाद के उतार-चढ़ाव वाले सप्ताहों के लिए खुद को तैयार रहना होगा। मतदान पेटियों में कैद आम भारतीय का मत निष्पक्ष तरीके से परिलक्षित हो सके, ऐसा प्रतीत होता है कि विपक्षी राजनीतिक दलों के पास इसकी तैयारी नहीं है। 

इस मौके पर, यह नागरिक समाज है जिसे अपनी कमीज की बांह को ऊपर कर हमारे लोकतंत्र की रक्षा करने के लिए तैयार रहना होगा और मौजूदा शासन को इस चुनाव को चुरा लेने से रोकना ही होगा। 

(मशहूर राजनीतिक अर्थशास्त्री, परकला प्रभाकर  का द वायर में प्रकाशित मूल अंग्रेजी लेख को जनचौक द्वारा साभार हिंदी में अनुदित किया जा रहा है।)  

You May Also Like

More From Author

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments